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आरक्षण को लेकर संविधान सभा की बहस में डॉ. आंबेडकर की राय से बाकी सदस्य सहमत नहीं थे।

 बाबा साहेब ने देश में सामाजिक- धार्मिक- पारंपरिक विभेद और उत्पीड़न के शिकार लोगों के लिए लोकतांत्रिक स्पेस का जब तर्क दिया तो किसी के पास उसका ठोस प्रतिकार नहीं था। बीसवीं सदी के आखिरी दशक में जब भारत भी विकास के ग्लोबल होड़ में शामिल हुआ तो अर्थ से लेकर समाज तक कई पूर्वाग्रह ध्वस्त हुए। सामाजिक न्याय के विमर्श में यह तर्क शामिल हो गया कि पूंजी और अवसरों के खुले राजमार्ग पर विभेद और असमानता के रोड़े न के बराबर हैं। पर इन तमाम बदलावों के बीच कुछ जमीनी सच्चाई आज भी यथावत है। बीते तीन दशकों में भारतीय समाज निश्चित रूप से बहुत बदला है। विकास की मुख्यधारा में आज अधिकतम समुदाय के लोग शामिल हैं। पर इस परिवर्तन के बीच भी जो बात पूरी तरह से नहीं मिटी, वह है जनजातीय और पिछड़े समाज को लेकर जारी असमानता।

सामाजिक- राजनीति के विमर्श के बीच आरक्षण का सवाल देश को आज नए सिरे से मथ रहा है। इस बीच जो नया भारतीय समाज बना है, वह अपनी समझ की नई जमीन पर इन मुद्दों की व्याख्या करना चाहता है। यह व्याख्या सीधे-सीधे आरक्षण विरोधी न होकर इसे दिए जाने के तर्क और तरीके पर एक गंभीर विमर्श को आगे बढ़ा रहा है। आरक्षण के साथ इससे जुड़े सवालों की गूंज देश की सर्वोच्च अदालत तक पहुंच रही है। हाल में एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि क्रीमी लेयर की अवधारणा एससी- एसटी को दिए जाने वाले आरक्षण में भी लागू होगी। संविधान पीठ ने अपने फैसले में कहा कि संवैधानिक कोर्ट किसी भी क्रीमी लेयर को दिए गए आरक्षण को रद्द करने के लिए सक्षम है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि आरक्षण का पूरा उद्देश्य यह है कि पिछड़ी जातियां अगड़ों से हाथ में हाथ मिलाकर बराबरी के आधार पर आगे बढ़ें।

जिन लोगों को यह लग रहा था कि अदालत क्रीमी लेयर की दरकार को लेकर अगर कोई सकारात्मक नजरिया अपनाती है तो वह सामान्य न्याय से आगे न्यायिक सक्रियता के दबाव में होगी, तो उनका पूर्वाग्रह गलत साबित हुआ है। इस बारे में कोर्ट ने अपनी दलील और मंशा दोनों ही यह कहते हुए साफ की है कि जब वह एससी- एसटी में क्रीमी लेयर का मामला लागू करता है तो वह अनुच्छेद 341 तथा 342 के तहत राष्ट्रपति द्वारा जारी एससी-एसटी की सूची में छेड़छाड़ नहीं करता। इस सूची में जाति और उपजाति पहले की तरह बने रहते हैं। इससे सिर्फ वही लोग प्रभावित होते हैं, जो क्रीमी लेयर के कारण छुआछूत और पिछड़ेपन से बाहर निकल आए हैं और जिन्हें आरक्षण से बाहर रखा गया है। जाहिर है कि कोर्ट ने केंद्र सरकार का यह आग्रह पूरी तौर पर खारिज कर दिया कि एससी-एसटी में क्रीमी लेयर के मामले को खत्म कर दिया जाए।

इससे पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाते हुए सरकार से पूछा था कि जिस तरह अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के अमीर लोगों को क्रीमी लेयर के सिद्धांत के तहत आरक्षण के लाभ से वंचित रखा जाता है, उसी तरह एससी-एसटी के अमीर लोगों को प्रमोशन में आरक्षण के लाभ से क्यों वंचित नहीं किया जा सकता। दरअसल आरक्षण में क्रीमी लेयर लागू करने का सवाल देश में आज एक ऐसे तकाजे की शक्ल अख्तियार कर चुका है, जो आरक्षण को आगे ढोते चले जाने की तदर्थ राजनीतिक समझ के आगे बड़े सवाल खड़े करता है। देश में आरक्षण को लेकर संविधान सभा की बहस से लेकर अब तक की स्थिति के बीच परिस्थितियों में बदलाव और नए-पुराने अनुभवों के कई संदर्भ शामिल हो गए हैं। बड़ी बात यह है कि नया भारतीय समाज भी उन वर्गो के आरक्षण पर कोई सीधा सवाल नहीं उठा रहा, जिनकी शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति में आज भी अपेक्षित बदलाव नजर नहीं आता है।

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