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भगवान ओंकारेश्वर ढोल-नगाड़ों के साथ मालवा भ्रमण पर निकले

अनादिकाल से चली आ रही परंपरा के तहत गुरुवार को भगवान ओंकारेश्वर 15 दिन के लिए प्रतीकात्मक रूप में मालवा क्षेत्र के भ्रमण पर रवाना हुए। मंदिर ट्रस्ट द्वारा शुद्ध घी, आटा और गुड़ से निर्मित सुपड़ी (प्रसाद) का भोग लगाया गया।

इसके बाद ढोल-नगाड़ों और जयकारों के साथ श्रद्धालुओं ने भोलेनाथ को विदाई दी। 15 दिनों तक ज्योतिर्लिंग मंदिर ने भगवान की सेज नहीं सजेगी वहीं त्रिकाल आरती भी नहीं होगी।

ओंकारेश्वर मंदिर ट्रस्ट के सहायक कार्यपालन अधिकारी अशोक महाजन और पंडित आशीष दीक्षित ने बताया कि अनादिकाल से चली आ रही परंपरा को मंदिर ट्रस्ट आज भी निभाता है। गुरुवार को मालवा क्षेत्र में जाने से पहले मंदिर ट्रस्ट ने सुबह भगवान को प्रसादी भोग लगाकर विदा किया।

उन्होंने बताया कि पूर्व के समय में भगवान कार्तिक माह में 15 दिन मालवा क्षेत्र के इंदौर, महू, धार, झाबुआ के अलावा निमाड़ क्षेत्र के खंडवा, खरगोन, बड़वानी सहित अन्य गांवों में भ्रमण करते थे। उस समय संसाधन के अभाव में अधिकांश लोग भोलनाथ के दर्शन करने ओंकारेश्वर नहीं पहुंच पाते थे।

इस कारण पालकी में भोलेनाथ की मूर्ति को विराजित कर मालवा व निमाड़ क्षेत्र के गांवों में ले जाया जाता था। अब पालकी तो नहीं जाती लेकिन अनादिकाल से चली आ रही परंपरा को अभी भी निभाया जा रहा है।

15 नवंबर को भगवान ओंकार महाराज प्रतीकात्मक रूप से मालवा भ्रमण के लिए रवाना हो गए। वे 1 दिसंबर को भैरव अष्टमी पर मालवा से वापस ओंकारेश्वर लौटेंगे। 15 दिनों तक ज्योतिर्लिंग मंदिर ने भगवान की सेज नहीं सजेगी वहीं त्रिकाल आरती भी नहीं होगी।

ओंकारेश्वर मंदिर ट्रस्ट के पुजारी पंडित डंकेश्वर दीक्षित, पंडित निलेश पुरोहित, नवलकिशोर शर्मा ने बताया कि प्राचीन समय से एसी मान्यता है कि भगवान ओंकारेश्वर भक्तों का हाल-चाल जानने के लिए मालवा और निमाड़ क्षेत्र के गांवों में जाते थे।

पूर्व में ओंकार महाराज पालकी में सवार होकर लाव-लश्कर व गाजे-बाजे के साथ भ्रमण पर रवाना होते थे। साथ में मंदिर ट्रस्ट के पुजारी, सेवक, नगाड़े, ढोल, रसोईदार साथ रहते थे। लोगों की भगवान के प्रति इतनी आस्था थी कि वे अपनी कृषि भूमि भी भगवान ओंकारेश्वर को मंदिर को दान कर देते थे।

वर्तमान में भी मंदिर ट्रस्ट के नाम 350 एकड़ से अधिक की जमीन मालवा व निमाड़ क्षेत्र में है। भगवान के मालवा व निमाड़ क्षेत्र में जाने का प्रमाण भी है। धीरे-धीरे समय व परिस्थिति बदल दी गई। अब भगवान प्रतीकात्मक रूप में भ्रमण करने जाते हैं।

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