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बिहार से मखाना की खेती सीखेंगे पड़ोसी देश, पूर्णिया में होती है पढ़ाई

मिथिला का मखाना अपनी खास पहचान रखता है। कोसी, सीमांचल और मिथिला इलाके में इसकी खेती बहुतायत में होती है। अब पूर्णिया चार पड़ोसी देशों नेपाल, बांग्लादेश, भूटान और मलेशिया को भी मखाने की खेती से अवगत कराएगा। भोला पासवान शास्त्री कृषि कॉलेज, पूर्णिया के प्राचार्य डॉ. पारसनाथ ने इस संबंध में थाइलैंड में आयोजित एशियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी की बैठक में एक व्याख्यान भी प्रस्तुत किया।

दो लोगों की टीम गई थी थाइलैंड

भोला पासवान शास्त्री कृषि कॉलेज, पूर्णिया के प्राचार्य डॉ. पारसनाथ व सबौर कृषि विश्वविद्यालय, भागलपुर के वैज्ञानिक डॉ. राजेश कुमार 20 से 24 दिसंबर तक थाइलैंड के पटाया में थे। वहां उन्होंने एशियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी की बैठक में मखाने की खेती के बारे में जानकारी दी। थाइलैंड के कृषि वैज्ञानिक रामसी भुजैल के साथ इनकी मखाने की खेती पर विस्तृत चर्चा हुई।

जलजमाव इलाके में बेहतर खेती

उन्हें बताया गया कि भारत के जलजमाव वाले इलाकों में मखाने की बेहतर खेती हो रही है। इसी कार्यक्रम में यह तय किया गया कि नेपाल, मलेशिया, भूटान और बांग्लादेश के कृषि वैज्ञानिकों के साथ इस तकनीक को साझा किया जाएगा। इससे मखाने की खेती को एक अलग पहचान मिलेगी।

नुकसान से दूर, फायदे हैं भरपूर

मखाना बेहद पौष्टिक खाद्य पदार्थ है। इसमें प्रोटीन प्रचुर मात्र में होता है। सोडियम, कैलोरी और वसा की मात्र काफी कम होती है। बिना खाद व कीटनाशकों के इसकी खेती की जाती है। किडनी, रक्तचाप, हृदय रोग में यह काफी फायदेमंद होता है। इसे लोग देवभोजन भी कहते हैं। इन्हीं गुणों के कारण विदेशों में इसकी काफी मांग है। वजन घटाने के इच्छुक लोग भी इसका सेवन करते हैं।

किसानों की आय में हुई है दोगुनी बढ़ोतरी

पूर्णिया का भोला पासवान शास्त्री कृषि कॉलेज देश में इकलौता कृषि कॉलेज है, जहां मखाने के उत्पादन से संबंधित तकनीक की पढ़ाई होती है। पहले कृषि विज्ञान के पाठ्यक्रम में इसकी खेती शामिल नहीं थी। विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिक डॉ. अनिल कुमार व उनकी टीम द्वारा मखाने की दो प्रजातियां विकसित की गई हैं। सबौर-वन और भदोही किस्में पुरानी किस्मों से बेहतर हैं। इससे किसानों की आय में दोगुनी बढ़ोतरी हुई है। खास बात यह है कि अनुपयोगी जलजमाव वाले क्षेत्र मखाने के रूप में सोना उगलने लगे हैं।

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