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आबादी विस्तार की वकालत कितनी जायज

Jansankhya-population-samasya-karan-essay-in-hindi-300x243सियाराम पांडेय ‘शांत ’———

देश में आबादी विस्फोटक स्थिति में पहुंच गई है। जनसंख्या वृिद्ध का आलम यह है कि हर दो मिनट पर एक बच्चे का जन्म  हो रहा है। जनसंख्या बढ़ रही है और उसके बरक्स नागरिक सुविधाएं निरतंर घट रही हैं।  रोटी,कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत जरूरतें तक पूरी नहीं हो पा रही हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य  की तो पूछिए ही मत। आबादी के हिसाब से न तो चिकित्सक हैं और न ही शिक्षक। बढ़ते परिवार   का असर कृषि जोत पर भी पड़ रहा है। साल-दर-साल जोत घट रही है। रही सही कसर भूमािफया और भवन कारोबारी पूरी कर रहे है। कृषि योग्य भूमि पर प्लॉटिंग और भवन निर्माण का सिलसिला पूरे सवाब पर है। खाद्य सामग्रियों का अभाव अभी महसूस हो रहा है। जब गंवई भूमि पर भी शहर बस जाएंगे। जब कृषि योग्य भूिम आवासीय  जरूरतों की भेंट  चढ़ जाएगी तो फिर इस देश की रोटी  की जरूरत कैसे पूरी होगी, यह अहम सवाल है। इस साल  देश के दस राज्यों के 256 जिले  सूखे की चपेट में रहे। मतलब देश की एक तिहाई  आबादी को सूखाजन्यपीड़ा झेलनी पड़ी। सबका पोषण करने वाली धरती में बड़ी-बड़ी दरारें पड़ गईं। प्यासे जानवरों और  पक्षियों का रूदन राग सर्वत्र सुनाई पड़ा। नहीं सुनाई दिया तो इस देश के तथाकथित बुद्धिजीवियों को। अन्यथा उनकी ओर से हिंदुओं को और अधिक बच्चे पैदा करने की सलाह दी ही नहीं  जाती। इस देश के मुसलमान तो पहले ही  धर्म की दुहाई देकर परिवार नियोजन से बचते रहे हैं।  इंदिरा गांधी ने जब देश भर में परिवार नियोजन  जरूरी घोषित कर दिया था। जब कर्मचारियों में रेलवे में बेटिकट सफर करते पकड़े गए साधु-संतों तक की नसबंदी करा दी थी, उस समय भी मजहब का वास्ता देकर मुसलमानों ने अपनी नसबंदी नहीं कराई थी और आज हालात यह है कि उनकी तादाद बहुत तेजी के साथ बढ़ रही है। उनकी बढ़ती तादाद और तुष्टिकारी राजनीति का दशा-दिशा को देखते हुए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का चिंतित होना कुछ हद तक स्वाभाविक भी है और शायद इसीलिए उसके नेता  गाहे-बगाहे हिंदुओं को भी अपनी आबादी बढ़ाने की सलाह देते रहते हैं। उन्हें लगता है कि अगर  हिंदू हम दो-हमारे दो के सिद्धांत पर अड़ा रहा  तो क्या होगा? जिस तरह महंगाई बढ़ रही है, परिवार पालने मुश्किल हो रहे हैं, ऐसे में केवल हिंदू राजनीति को बचाए रखने के लिए परिवार बढ़ाने का मूर्खतापूर्ण जोखिम कौन लेगा?  हिंदू ही नहीं, पढ़े-लिखे मुसलमान भी परिवार का दायरा सीमित रखने में  ही यकीन  रखते हैं। हिंदुत्व की राजनीति करने वालों की चिंता भी बेजां नहीं है कि  अगर मुस्लिम आबादी बढ़ गई तो इस देश का राजनीतिक स्वरूप क्या होगा?  उनकी हिंदू राजनीति किस मुकाम पर खड़ी होगी। लोकतंत्र में सरकार उसकी ही बनेगी जिसका बहुमत होगा और बहुमत अगर मुसलमानों के पास होगा तो हिंदू इस देश में दोयम दर्जे के नागिरक हो जाएंगे।  तीन ओर से समुद्र से िघरा, हिम शिखरों से युक्त  पर्वत मालाओं, अनगिन नदियों , बांधों और झीलों वाला यह देश जल संकट से किस कदर गुजरा है, यह भी किसी से छिपा नहीं है। इसी देश के कुछ  भूभाग में  संगीनों के साये में पानी का  वितरण करना पड़ा है।  आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 1951 में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 51177 घनमीटर थी जो आज घटकर  1650 घनमीटर रह गई है।  वर्ष 2050 तक यह आंकड़ा और घटकर 1447 घनमीटर या िफर उससे भी कम हो सकता है। ऐसे में परिवार बढ़ाने की वकालत कितनी उचित है, इस पर मंथन तो किया ही जाना चाहिए। वे नेता भी सोचें जो प्रधानमंत्री को भी दो या उससे ज्यादा बच्चे पैदा करने  की नसीहत दे रहे हैं। इस िनयम को उन पर  बाध्यकारी बनाना चाह रहे हैं। होना तो यह चाहिए था कि वे अपने वर्ग के लोगों को समझाते कि वे मजहब को मानें लेकिन औलाद पैदा करने के मामले में संयम बरतें। देश के जनसंख्या संतुलन की जिम्मेदारी अकेले हिंदुओं कह ही नहीं, हर भारतवासी को इसके लिए आगे आना चाहिए। आबादी का विस्तार तो कभी भी कहीं भी किया जा सकता है लेकिन भूमि तो बढ़ाई नहीं जा सकती। कई बड़े शहरों में आवासीय योजनाओं के लिए खाली जमीन तलाशे नहीं मिल रही है। विकास परिषदों और प्राधिकरणों को शहर से बाहर गांवों का रुख करना पड़ा है। नोटिफिकेशन और अधिग्रहण का भूत गांवों का वजूद मिटाने की ओर अग्रसर है। मौजूदा दौर में सोहनलाल द्विवेदी होते तो शायद वह यह लिखने की गलती न करते कि‘ है अपना हिंदुस्तान कहां,वह बसा हमारे गांवों में।’ गांव शहर बन जाएंगे तो खेती कहां होगी और जब खेती होगी ही नहीं तो रोते रहिए अनाज की महंगाई का रोना।

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