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उत्तर कोरिया को लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के पास नहीं है कोई स्पष्ट नीति

 उत्तर कोरिया और अमेरिका के बीच वार्ता का रद होना एक बड़ी चिंता की बात है। चिंता इसलिए क्‍योंकि काफी समय और तनाव के बाद यह समय आया था जब अमेरिका और उत्तर कोरिया वार्ता के लिए राजी हुए थे। वहीं वार्ता होने से पहले सैन्‍य अभ्‍यास को लेकर की गई किम जोंग उन की बयानबाजी और दूसरी तरफ अमेरिकी एनएसए द्वारा गद्दाफी मॉडल का जिक्र करना इस वार्ता पर भारी पड़ा। हालांकि अमे‍रिका ने भविष्‍य में दोबारा बातचीत शुरू करने की उम्‍मीद जरूर जाहिर की है लेकिन यह कितनी हकीकत बन सकेगी इस पर अब भी सवालिया निशान लगा हुआ है। उत्तर कोरिया अमेरिका से बातचीत को लेकर काफी संभलकर आगे बढ़ रहा था। उसने इस बारे में आगे बात करने से पहले चीन की राय भी ली थी। यहां तक भी किम के द्वारा की गई बयानबाजी को लेकर अमेरिकी राष्‍ट्रपति डोनाल्‍ड ट्रंप ने चीन को भी कोसा था। लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि उत्तर कोरिया के लिए चीन काफी मायने रखता है। वहीं चीन के लिए भी उत्तर कोरिया का होना काफी मायने रखता है। इस पूरे मुद्दे पर विदेश मामलों के जानकार ऑब्‍जरवर रिसर्च फाउंडेशन के प्रोफेसर हर्ष वी पंत ने दैनिक जागरण से बात की।

वार्ता रद होने का क्‍या पड़ेगा असर

यह पूछे जाने पर कि इस वार्ता के रद होने से कया असर पड़ेगा प्रोफेसर पंत का कहना था कि फिलहाल इसका असर लंबे समय के बाद दिखाई देगा। उनके मुताबिक फिलहाल वार्ता रद होने के बावजूद भी उत्तर कोरिया दोबारा परमाणु परिक्षण तो नहीं करेगा। वहीं लंबे समय की यदि बात की जाए तो यह दक्षिण कोरिया और जापान के लिए सही नहीं होगा। उनका कहना है कि वार्ता रद होने के बाद एक बार फिर से इन देशों के बीच तनातनी का माहौल शुरू हो सकता है, जिसका खामियाजा भी इन्‍हीं को उठाना होगा। उनके मुताबिक सबसे बड़ी समस्‍या इसकी वजह से दक्षिण कोरिया को होने वाली है क्‍योंकि दक्षिण कोरिया के राष्‍ट्रपति ने इसको एक मुहिम बना लिया था कि उत्तर कोरिया और अमेरिका की वार्ता के जरिए कोरियाई प्रायद्वीप में शांति स्‍थापित की जाएगी। इस वार्ता के रद होने से उनको एक झटका जरूर लगा है। वहीं यदि उत्तर कोरिया निकट भविष्‍य में कोई परमाणु परिक्षण करता है, जिसकी संभावना कम ही है तो यह देखना बेहद दिलचस्‍प होगा कि अमेरिका की इसको रोकने के लिए क्‍या नीति होगी।

वार्ता से क्‍यों पीछे हटा अमेरिका

फेसर पंत का मानना है कि ट्रंप प्रशासन बहुत सोच विचार कर कोई कदम नहीं उठाता है। उनके मुताबिक वह अचानक से ही इस वार्ता के लिए राजी हुए थे और सभी तैयारियां होने के बाद अचानक से ही पीछे भी हट गए। उनका कहना था कि दरअसल अमेरिका उत्तर कोरिया से होने वाली बातचीत के जरिए विश्‍व को यह बताना चाहता था कि उनका डाला गया दबाव काम कर गया जिसकी बदौलत किम बातचीत के लिए राजी हो गया। उन्‍होंने ऐसा करना शुरू भी कर दिया था। पिछले दिनों खुद ट्रंप ने उत्तर कोरिया से वार्ता को लेकर कुछ ट्विट भी किए थे। लेकिन उनका यही पासा उलटा पड़ गया और उत्तर कोरिया ने उन्‍हें पूरी तरह से नकार दिया। वहीं इस वार्ता से पीछे हटने की दूसरी बड़ी वजह ये थी कि उत्तर कोरिया को लेकर अमेरिका की कोई स्‍पष्‍ट नीति नहीं है। प्रोफेसर पंत का मानना है कि एक तरफ वार्ता की बात कर कोई भी देश दूसरे को धमका नहीं सकता है जैसा की अमेरिकी राष्‍ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बर्डन ने किया था। गौरतलब है कि बर्डन ने किम को धमकाते हुए गद्दाफी मॉडल का जिक्र किया था। इस बयान की वजह से उत्तर कोरिया वार्ता को लेकर नाखुश था। यह सब बताता है कि बिना सोचे समझे जो अमेरिका ने वार्ता को लेकर कदम उठाया था बिना सोचे-समझे ही उसको वापस ले लिया।

यहां काम करेगी चीन की भूमिका

यह पूछे जाने पर वार्ता को टालने के मुद्दे पर क्‍या दक्षिण कोरिया किम को इसके लिए मना पाएगा, तो प्रोफेसर पंत का कहना था कि यहां पर चीन की भूमिका काफी होगी। ऐसा इसलिए है क्‍योंकि चीन खुद चाहता है कि कोरियाई प्रायद्वीप में शांति स्‍थापित हो। हालांकि पंत का यह भी मानना है कि चीन ये कभी नहीं चाहेगा कि उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया एक देश के रूप में सामने आएं। इसमें उसका हित नहीं है। लिहाजा वह चाहता है कि कोरियाई प्रायद्वीप के ये दो देश कभी एक न हों। इनके एक होने में चीन का नुकसान है। ऐसा इसलिए है क्‍योंकि दक्षिण कोरिया अमेरिका का समर्थक देश देश है और अन्‍य देशों की तुलना में काफी विकसित है। ऐसे में यदि ये दोनों देश एक होते हैं तो इनकी ताकत भी बढ़ जाएगी और चीन का सिरदर्द भी। यहां पर इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि चीन और उत्तर कोरिया दोनों ही एक दूसरे को समर्थन देते हैं। ऐसे में यदि ये दोनों देश एक होते हैं तो चीन अपने समर्थक देशों में से एक को खो देगा। लिहाजा वह इनको एक नहीं होने देगा।

वार्ता में चीन की भूमिका

यहां पर ये भी नहीं भूलना चाहिए कि उत्तर कोरिया का शुरू से यही मकसद था कि उसकी अमेरिका से वार्ता हो। हालांकि दक्षिण कोरिया का मकसद उत्तर कोरिया से शांति हो सकती है लेकिन किम का मकसद शुरू से ही दूसरा था। ऐसे में दक्षिण कोरिया को भी अपनी नीति बदलनी होगी। ऐसे में दोबारा बात करने की बात करने वाले अमेरिका को भी अपनी नीति इस ओर स्‍पष्‍ट करनी होगी कि वह यदि उत्तर कोरिया को परमाणु हथियार मुक्‍त राष्‍ट्र बनाने की बात करता है तो उसके लिए उसकी क्‍या नीति होगी। इसकी वजह ये है कि जिन शब्‍दों का बर्डन ने जिक्र किया है उस पर तो किम कभी भी वार्ता के लिए राजी नहीं होने वाले हैं। यह पूछे जाने पर कि आने वाले दिनों में यदि कोई वार्ता हुई तो क्‍या इसमें चीन को अमेरिका कोई बड़ी भूमिका बातचीत की टेबल पर देना चाहेगा, तो उनका कहना था कि नहीं। ऐसा नहीं होने वाला है। वह मानते हैं कि अमेरिका ये जरूर चाहता है कि चीन बातचीत के लिए किम को तैयार करे, लेकिन वह कभी भी चीन को बड़ी भूमिका नहीं देना चाहेगा। वहीं उत्तर कोरिया जरूर चाह सकता है कि चीन उसके साथ बातचीत की टेबल पर साथ हो, क्‍योंकि वह उसका सबसे बड़ा समर्थक देश है। लेकिन इस पर भी अमेरिका का राजी होना काफी मुश्किल है।

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