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कैबिनेट विस्तार से ज्यादा जातीय संतुलन

सियाराम पांडेय शांत –
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बेहद सूझ-बूझ के साथ अपने मंत्रिमंडल का विस्तार कर लिया। जिन 19 नए चेहरों को अपनी टीम में स्थान दिया है, उमें अगर उच्च शिक्षित हैं तो  कुछ इंटरमीडिएट पास भी है। मतलब मोदी ने अपनी कैबिनेट में पढ़ों को ही नहीं, कढ़ों अर्थात अपने क्षेत्र के अनुभवियों को भी तरजीह दी है। योगी आदित्यनाथ जैसे  सांसदों की हसरतों पर पानी भी फिरा जबकि गिरिराज सिंह जैसे वाग्वीरों का बाल भी बांका नहीं हुआ। यह अलग बात है कि नरेंद्र मोदी ने अपने कुछ बड़बोले मंत्रियों के दिल की धुकधुकी कैबिनेट विस्तार तक बढ़ाए रखी। कैबिनेट विस्तार में भाजपा के प्रभाव वाले राज्यों पर प्रधानमंत्री कुछ ज्यादा ही मेहरबान रहे। यूपी से 3, राजस्थान से 3, गुजरात से 3, मध्यप्रदेश से 3 राज्यमंत्रियों का शपथग्रहण इसका इंगित नहीं तो और क्या है? महाराष्ट्र से 2, उत्तराखंड , पश्चिम बंगाल ,दिल्ली,असम और कर्नाटक से एक-एक नए राज्यमंत्री बनाकर  प्रधानमंत्री ने पूरे देश को साधने की कोशिश की है। यह अलग बात है कि मंत्रिमंडल विस्तार में पंजाब को कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिला है तो इसके पीछे प्रधानमंत्री की सोची-समझी मंशा रही है। उन्हें पता है कि प्रतिपक्ष इस विस्तार को चुनावी विस्तार करार देने में पीछे नहीं हटेगा। उसका आरोप होगा कि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड से राज्यमंत्री बनाने के पीछे सरकार का उद्देश्य चुनावी लाभ लेना है। ऐसे में सरकार के पास एक जवाब तो है ही कि अगले साल चुनाव तो पंजाब में भी होने हैं लेकिन पंजाब का तो कोई सांसद इस बार मंत्री नहीं बनाया गया है।
 फगन सिंह कुलस्ते को राज्यमंत्री बनाकर प्रधानमंत्री ने आदिवासी जमात को भाजपा से जोड़े रखने का प्रयास किया है लेकिन वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे  कुलस्ते नोट के बदले वोट कांड में जेल जा चुके हैं। ऐसे में मोदी पर दागियों को तरजीह देने का आरोप भी लग सकता है। रमाशंकर कठेरिया को राज्यमंत्री पद से हटाए जाने का दलितों के बीच गलत संदेश न जाए, इस निमित्त उन्होंने कई दलितों को अपने मंत्रिमंडल का चेहरा बनाया है। आरपीआई चीफ रामदास अठावले को मंत्री बनाने के पीछे सरकार का साफ मंतव्य है कि इससे दलितों के  बीच एक सकारात्मक संदेश जाएगा  कि मोदी सरकार डॉ.भीमराव अंबेडकर के आदर्शों और सिद्धांतों को न केवल मान देती है, बल्कि दलितों को आगे बढ़ाने के प्रति गंभीर भी है। रमेश चंदप्पा और कर्नाटक के दलित चेहरे हैं तो अठावले महाराष्ट्र के। अर्जुन मेघवाल  राजस्थान में भाजपा के दलित आइकन हैं। उनकी सादगी किसी से छिपी नहीं है। उनका साइकिल से संसद जाना हमेशा चर्चा के केंद्र में रहा है और इस बार भी वे शपथ लेने साइकिल से ही राष्ट्रपति भवन पहुंचे। मंत्री बनने के बाद वे साइकिल की सवारी छोड़ेंगे या नहीं, यह देखने वाली बात होगी।
 सर्वानंद सोनोवाल के मुख्यमंत्री बन जाने के बाद असम  का मंत्रिमंडल में कोई चेहरा नजर नहीं आ रहा था। नगांव के भाजपा सांसद राजेन गोहने को राज्यमंत्री बनाकर मोदी ने साफ कर दिया है कि उन्होंने चुनाव के दौरान असम की जनता से जो वादा किया था, उसे वे भूले नहीं हैं। मध्यप्रदेश से अनिल माधव दवे को महत्व देकर उन्होंने संघ परिवार को साधने की कोशिश की है। वैसे इसे 2003, 2008 और 2013 में हुए मध्यप्रदेश विधान सभा चुनाव और तीन लोकसभा चुनावों में भाजपा के चुनाव प्रबंधन समिति के प्रमुख के रूप में उनके सराहनीय काम का पारितोषिक भी कहा जा सकता है।
 हार्दिक पटेल के आरक्षण विषयक पटेल आंदोलन से गुजरात में भाजपा को काफी नुकसान हुआ है। भले ही हार्दिक पटेल जेल में हो लेकिन आरक्षण का जिन्न अभी पूरी तरह बोतल में गया नहीं है। वह कभी भी सक्रिय हो सकता है। बस एक चिंगारी मुहैया होने भर की देर है। ऐसे में पुरुषोत्तम भाई रूपाला गुजरात में भाजपा के संकट मोचक हो सकते हैं। पीएम के करीबी होने का तो उन्हें लाभ मिला ही है लेकिन  गुजरात के लिए यह सौदा बुरा नहीं है। पटेलों पर पकड़ बनाए रखने के लिए यह दांव बेहद जरूरी था। अरविंद केजरीवाल के आरोप बाणों के सीधे वार झेलने की बजाय दिल्ली  राज्य भाजपा को  एक मजबूत  क्षत्रप की जरूरत थी। अभी केजरीवाल को जवाब देने के लिए  भाजपा के शीर्ष नेताओं को मोर्चबंदी करनी पड़ती थी। विजय गोयल भले ही राजस्थान से राज्यसभा सांसद हैं लेकिन उनका कार्यक्षेत्र तो दिल्ली ही रहा है, ऐसे में उन्हें राज्यमंत्री का ओहदा देकर मोदी ने केजरीवाल की नाक में पानी भरने का  बंदोबस्त कर दिया है। एमजे अकबर को राज्यमंत्री बनाने के पीछे सरकार की सोच यह रही है कि पार्टी को हिंदी और अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में प्रभावी ढंग से अपना पक्ष रखने वाला मंत्री चाहिए था और उसके विश्वास की इस कसौटी पर अकबर खरे उतरते हैं। उत्तर प्रदेश के भाजपा अध्यक्ष पद से लक्ष्मीकांत वाजपेयी को हटाने के बाद भाजपा की ब्राह्मण विरोधी छवि बन रही थी। महेंद्र नाथ पांडेय को राज्यमंत्री पद देकर भाजपा ने ब्राह्मण समुदाय की नाराजगी को कम करने का प्रयास किया है। शाहजहांपुर की भाजपा सांसद कृष्णा राज  को महत्व देकर जहां प्रधानमंत्री ने दलित मतों में सेंध लगाने की रणनीति को अंजाम दिया है, वहीं उत्तराखंड में दलित सांसद अजय टम्टा को महत्व देकर उन्होंने दूर की कौड़ी खेली है। अगर वे मंत्री पद के दावेदारों खंडूरी और निशंक में से किसी एक को मंत्री बनाते तो इससे उत्तराखंड में भाजपा में कलह बढ़ती और यह स्थिति अगले साल होने जा रहे विधानसभा चुनाव के लिहाज से बहुत मुफीद नहीं होती। यह जानते हुए कि अजय टम्टा का महज बारहवीं पास होना स्मृति ईरानी की योग्यता की तरह सरकार के गले की हड्डी बन सकता है,अगर उन्होंने टम्टा को चुना है तो इसमें उत्तराखंड का हित ही सर्वोपरि है। यूपी से अनुप्रिया पटेल को मंत्री बनाना पिछड़ों को साथ लाने जैसा ही है। इससे भाजपा लाभ में रहेगी।
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