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सड़क से संसद तक दलित सियासत

mayaअजय कुमार
उत्तर प्रदेश में दलित-दलित का खेल खूब चल रहा है। प्रदेश में चौतरफा दलितों पर अत्याचार का रोना रोया जा रहा है। हकीकत पर पर्दा डालकर हवा में तीर चलाए जा रहे हैं। दलितों का मसीहा बनने की होड़ में कई दल और नेता ताल ठोंक रहे हैं। किस दल को कितना फायदा होगा, यह तो कोई नहीं जानता है,लेकिन ऐसा प्रतीत हो रहा है कि बसपा को दलित वोटों में सेंधमारी से बड़ा नुकसान हो सकता है। 2014 के आम चुनाव में दलितों का जो रुझान भाजपा की तरफ देखा गया था, उसका सारा श्रेय मोदी को दिया गया था। लोकसभा चुनाव में बसपा का खाता भी नहीं खुल पाया था। इसके बाद से अपने आप को दलित वोटों का लंबरदार समझने वाली मायावती बीजेपी और मोदी के ऊपर कुछ ज्यादा ही हमलावर हो गई हैं। देश के किसी भी कोने से दलितों के ऊपर अत्याचार की कोई घटना प्रकाश में आती है तो मायावती उसे तुरंत हाईजैक कर लेती हंै। दलित राजनीति चमकाने में कोई कोरकसर न रह जाए, इसलिए वह घटना स्थल पर जाती हैं,पीडि़तों से भी मिलती हैं। राज्यसभा में किसी भी विषय पर चर्चा चल रही हो, माया उसको दलितों पर अत्याचार की तरफ मोड़ देती हैं। माया ही नहीं, कांग्रेस के रणनीतिकार प्रशांत कुमार, जदयू नेता नीतीश कुमार, आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल, लालू यादव आदि तमाम नेताओं की भी नजरें दलित वोटरों पर लगी हैं। दलितों के मुद्दे पर बीएसपी सुप्रीमो मायावती प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को लगातार ललकार रही हैं कि वह दलितों पर अत्याचार के मुद्दे पर सहानुभूति जताने की जगह दलितों पर अत्याचार करने वालों के खिलाफ कार्रवाई करें।
daदलितों पर सियासत कोई नई बात नहीं है। यह ऐसा मसला है जिस पर सभी दल माया के सामने बैकफुट पर नजर आते हैं, लेकिन अबकी से मोदी टीम इस मसले पर मायावती को ‘माइलेज‘ देने को तैयार नहीं हैं। माया के साथ-साथ कांग्रेसी भी दलित उत्पीडऩ की घटनाओं पर ‘कदम ताल’ करते दिख जाते हैं। कांग्रेसी कहते हैं कि दलितों के लिए कांग्रेस ने बहुत कुछ किया था। सभी दलों और नेताओं को परख लेने के बाद अब दलित पुन: कांग्रेस के पाले में आने को आतुर हैं। उधर, जिस मुखरता के साथ माया और कांग्रेस दलित उत्पीडऩ के मुद्दे को हवा देने में लगे हैं, बीजेपी नेता भी उतनी तेजी के साथ दलितों पर अत्याचार की घटनाओं का प्रतिवाद कर रहे हैं। बीजेपी अगले साल यूपी में होने वाले विधान सभा चुनाव के लिये 18 फीसदी दलित वोटों में से मायावती की गैर बिरादरी वाले करीब दस प्रतिशत गैर जाटव दलितों पर डोरे डाल रही हैं। मायावती ने दलितों को राजनैतिक रूप से काफी परिपक्व बनाया है,लेकिन जिस तरह से समाजवादी पार्टी ने पिछड़ों के नाम पर सिर्फ यादवों का उपकार किया उसी प्रकार बसपा ने दलित जाटव का ही भला किया। यही वजह है अभी भी दलितों में सपेरा, सरवन, हरी, हेला इत्यादि छोटी जातियों का राजनीतिकरण नहीं हो पाया है। भाजपा की कोशिश ऐसे गैर जाटव दलित जातियों को अपने से जोडऩे की है। इस क्रम में भाजपा में सबसे अधिक होड़ पासी जाति को जोडऩे की दिख रही है, जो जाटव के बाद दलितों में राजनीतिक रूप से दूसरी महत्वपूर्ण जाति है।
उत्तर प्रदेश में लम्बे समय तक दलित वोटों की सबसे बड़ा दावेदार कांग्रेस हुआ करती थी, लेकिन मंडल-कमंडल की राजनीति के बाद काफी कुछ बदल गया। राम जन्मभूमि के आंदोलन के आस-पास ही बसपा का गठन हुआ और उसने दलितों में सियासी अलख जगाने का काम किया। दलित नेता और चिंतक मान्यवर कांशीराम ने दलितों में सियासी अलख जगाने का काम किया। परिणाम स्वरूप राम जन्मभूमि आंदोलन धीमा पडऩे के बाद दलित वोटरों का रुझान उत्तर प्रदेश में बसपा की तरफ होने लगा था, जो 2012 के विधानसभा चुनाव तक लगातार जारी रहा। 2012 में माया का सर्वजन हिताय का नारा और ब्राह्मण-दलित गठजोड़ का फार्मूला कामयाब नहीं हो पाया। माया यूपी की सत्ता से बाहर जरूर हुईं, किंतु उनका दलित मतों का आधार सुरक्षित रहा। 2014 के लोकसभा चुनाव में करीब दो-तीन प्रतिशत दलित वोटरों ने लम्बे समय के बाद पाला बदल कर विकास के नाम पर भाजपा को वोट क्या दिया,माया का खाता ही नहीं खुल पाया।
बात बीजेपी की की जाये तो पता चलता है कि बीजेपी नहीं चाहती है कि यूपी के चुनाव में दलित उत्पीडऩ की घटनाएं विरोधियों के लिए सियासी हथियार बनें। मोदी का गोरक्षा के नाम पर तांडव करने वालों के खिलाफ सख्त बयान को इसी से जोडक़र देखा गया था। मोदी ही नहीं, केन्द्रीय गृह मंत्री और यूपी की सियायत के दमदार ‘खिलाड़ी’ रह चुके राजनाथ सिंह के साथ पार्टी के अन्य नेता भी इस कोशिश में हैं कि किसी भी सूरत में बीजेपी और मोदी छवि दलित विरोधी न बने। इसीलिए राज्य में कहीं कोई दलित उत्पीडऩ की घटना हो रही है तो इसके लिये बीजेपी या मोदी कैसे जिम्मेदार हो सकते हैं,यह सवाल माया जैसे तमाम नेताओं से पूछा जा रहा है। राजनाथ सिंह विरोधियों से कह रहे हैं,’ दिल पर हाथ रखकर कहिये, क्या बढ़े हैं दलितों पर अत्याचार। पुराने आंकड़ों के द्वारा भी यह समझाया जा रहा है कि दलितों की इस स्थिति के लिये कांग्रेस का 55 वर्षों का शासन जिम्मेदार है।
एक तरफ बीजेपी आंकड़ों के सहारे दलितों पर बढ़ते अत्याचार के झूठे प्रचार की हवा निकालना चाहती है, वहीं दलितों के उत्पीडऩ के नाम पर मायावती के हो-हल्ले को कम करने के लिए बीएसपी से बगावत करने वाले स्वामी प्रयाद मौर्या को अपनी शरण में लेकर भी बीजेपी ने नया दांव चला है। स्वामी अपनी पूर्व बहनजी का चि_ा जनता के सामने खोलने में लगे हैं,‘ मायावती दलित नहीं, दौलत की बेटी हैं,’ जैसे बयान सियासी फिजाओं में गंूज रहे हैं। पीएम मोदी के कथित गोरक्षकों पर सख्त तेवर दिखाए जाने का असर भी दिख रहा है। विश्व हिन्दू परिषद(विहिप) जैसे संगठनों के तेवर भी ढीले पड़ गए हैं। सियासी हवा का रुख भांप कर विहिप ने दलितों का सबसे बड़ा गोरक्षक बताना शुरू कर दिया है। विहिप के नेता कह रहे हैं कि दलितों पर किसी तरह का उत्पीडऩ बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। इतना ही नहीं,गोरक्षा के नाम पर नवंबर में दिल्ली में जो प्रदर्शन होना है,उससे भी विहिप ने पल्ला झाड़ लिया है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पहले ही पीएम के विचारों से सहमति जता चुका है।
दलितों को अपने पाले में खींचने के लिए बसपा-भाजपा के बीच चल रहे दंगल को उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार अपने हिसाब से हवा दे रही है। वह चाहती है ‘सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।’ इसीलिए मायावती पर सीधा हमला बोलकर दलितों की नाराजगी मोल नहीं लेने की रणनीति के तहत सपा सुप्रीम कोर्ट के सहारे माया का इतिहास खंगाल रही है। बसपा राज में दलित महापुरुषों के बने स्मारकों में हुए भ्रष्टाचार को जगजाहिर करके दलितों के बीच यह मैसेज पहुंचाया जा रहा है कि मायावती ने जब दलित महापुरुषों को नहीं छोड़ा तो वह दलितों का क्या भला करेंगी। अखिलेश सरकार के लिए दलित वोट बैंक की सियासत का दरवाजा तब खुला जब सुप्रीम कोर्ट ने उससे पूछा कि बसपा राज में लखनऊ और नोएडा में दलित महापुरुषों के स्मारकों के कथित भ्रष्टाचार की जांच के मामलों में सरकार क्या कर रही है। पहले से ही मायावती को घेरने में लगी सपा ने सुप्रीम कोर्ट को तुरंत बता दिया कि बसपा सुप्रीमों मायावती और महासचिच नसीमुद्दीन के खिलाफ जांच तेज कर दी गई है। जो स्मारक और पार्क जांच के दायरें में है उसमें अंबेडकर सामाजिक परिवर्तन स्थल, काशी राम स्मारक स्थल, गौतम बुद्ध उपवन इको पार्क, नोएडा का अंबेडकर पार्क शामिल है। सपा सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट के उस सवाल के जबाव में कोर्ट को यह बताया गया था जिसमें कोर्ट ने अखिलेश सरकार से पूछा था कि उसने मायावती सरकार के 2007 से लेकर 2011 तक के कार्यकाल के दौरान तत्कालीन मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी पर लोकायुक्त रिपोर्ट में लगे अरोपों की जांच के बारे में क्या किया है।
बहरहाल, लोकसभा और राज्यसभा में दलित उत्पीडऩ पर चर्चा हो चुकी है,लेकिन मामला ठंडा होने की बजाए गरमाता ही जा रहा है। यह उम्मीद भी नहीं है कि यह जल्दी ठंडा होगा। अमूमन ऐसा ही होता है। न ही इस बात की उम्मीद की जा सकती है कि गृह मंत्री राजनाथ सिंह द्वारा राज्य सरकारों को इन असामाजिक तत्वों के खिलाफ कड़ा से कड़ा कदम उठाने की सलाह का कोई ज्यादा प्रभाव पड़ेगा। कांटे से कांटा निकालने की जुगत में लगे भाजपा नेता और तमाम केंद्रीय मंत्री विपक्ष, खासतौर पर बसपा एवं कांग्रेस पर दलितों पर उत्पीडऩ के मुद्दे को राजनीतिक रंग देने का आरोप लगा रहे हैं। केन्द्रीय मंत्र वैंकेया नायडू का कहना सही है कि हम सबको अल्पकालिक फायदे के लिए घटनाओं को राजनैतिक रंग देने से बचना चाहिए। इससे अनुसूचित जाति, जनजाति और दलितों का भला नहीं होगा।

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