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साईं बाबा ने दशहरे के दिन ही समाधि क्यों ली?

साईं बाबा के दशहरे के दिन समाधि लेने लेना का रहस्य क्या है? इससे पहले उन्होंने रामविजय प्रकरण क्यों सुना? इस प्रकरण में कथा है कि राम ने रावण से 10 दिनों तक युद्ध लड़ा था और दशमी के दिन रावण मारा गया था। रावण के मारे जाने के कारण दशमी को ही दशहरा कहते हैं। इसी दिन माता दुर्गा ने महिषासुर का वध किया था इसलिए इसे विजयादशमी कहते हैं। आओ जानते हैं कि साईं बाबा ने क्यों दशहरे के दिन समाधि ली। 
शिर्डी, महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले की राहटा तहसील का एक कस्बा है। यहीं पर विश्‍वप्रसिद्ध संत सांईं बाबा ने समाधि ली थी। यहां दुनियाभर से सांईं बाबा के भक्त उनके समाधि दर्शन के लिए आते हैं। सांईं बाबा ने शिर्डी में यहीं 15 अक्टूबर दशहरे के दिन 1918 में समाधि ली थी।

यह समाधि सवा दो मीटर लंबी और एक मीटर चौड़ी है। समाधि मंदिर के अलावा यहां द्वारकामाई का मंदिर चावड़ी और ताजिमखान बाबा चौक पर सांईं भक्त अब्दुल्ला की झोपड़ी है। मान्यता है कि महज 16 वर्ष की उम्र में सांईं बाबा शिर्डी आए थे और फिर वहीं रहने लगे।

कहते हैं कि दशहरे के कुछ दिन पहले ही सांईं बाबा ने अपने एक भक्त रामचन्द्र पाटिल को विजयादशमी पर ‘तात्या’ की मृत्यु की बात कही। तात्या बैजाबाई के पुत्र थे और बैजाबाई सांईं बाबा की परम भक्त थीं। तात्या, सांईं बाबा को ‘मामा’ कहकर संबोधित करते थे, इसी तरह सांईं बाबा ने तात्या को जीवनदान देने का निर्णय लिया।

27 सितंबर 1918 को सांईं बाबा के शरीर का तापमान बढ़ने लगा। उन्होंने अन्न-जल सब कुछ त्याग दिया। बाबा के समाधिस्त होने के कुछ दिन पहले तात्या की तबीयत इतनी बिगड़ी कि जिंदा रहना मुमकिन नहीं लग रहा था। लेकिन उसकी जगह सांईं बाबा 15 अक्टूबर, 1918 को अपने नश्वर शरीर का त्याग कर ब्रह्मलीन हो गए। उस दिन विजयादशमी (दशहरा) का दिन था।

अंतिम दिन क्या किया बाबा ने?
दो-तीन दिन पूर्व ही प्रातःकाल से बाबा ने भिक्षाटन करना स्थगित कर दिया और वे मस्जिद में ही बैठे रहने लगे। वे अपने अंतिम क्षण के लिए पूर्ण सचेत थे इसलिए वे अपने भक्तों को धैर्य बंधाते रहते।

जब बाबा को लगा कि अब जाने का समय आ गया है, तब उन्होंने श्री वझे को ‘रामविजय प्रकरण’ (श्री रामविजय कथासार) सुनाने की आज्ञा दी। श्री वझे ने एक सप्ताह प्रतिदिन पाठ सुनाया। तत्पश्चात ही बाबा ने उन्हें आठों प्रहर पाठ करने की आज्ञा दी। श्री वझे ने उस अध्याय की द्घितीय आवृत्ति 3 दिन में पूर्ण कर दी और इस प्रकार 11 दिन बीत गए। फिर 3 दिन और उन्होंने पाठ किया। अब श्री. वझे बिलकुल थक गए इसलिए उन्हें विश्राम करने की आज्ञा हुई। बाबा अब बिलकुल शांत बैठ गए और आत्मस्थित होकर वे अंतिम क्षण की प्रतीक्षा करने लगे।

इन दिनों काकासाहेब दीक्षित और श्रीमान बूटी बाबा के साथ मस्जिद में नित्य ही भोज करते थे। महानिर्वाण (15 अक्टूबर) के दिन आरती समाप्त होने के पश्चात बाबा ने उन लोगों को भी अपने निवास स्थान पर ही भोजन करके लौटने को कहा। फिर भी लक्ष्मीबाई शिंदे, भागोजी शिंदे, बयाजी, लक्ष्मण बाला शिम्पी और नानासाहेब निमोणकर वहीं रह गए। शामा नीचे मस्जिद की सीढ़ियों पर बैठी थीं।

लक्ष्मीबाई शिंदे को 9 सिक्के देने के पश्चात बाबा ने कहा कि मुझे मस्जिद में अब अच्छा नहीं लगता है इसलिए मुझे बूटी के पत्थरवाड़े में ले चलो, जहां मैं सुखपूर्वक रहूंगा। ये ही अंतिम शब्द उनके श्रीमुख से निकले। इसी समय बाबा बयाजी के शरीर की ओर लटक गए और अंतिम श्वास छोड़ दी। भागोजी ने देखा कि बाबा की श्वास रुक गई है तब उन्होंने नानासाहेब निमोणकर को पुकारकर यह बात कही। नानासाहेब ने कुछ जल लाकर बाबा के श्रीमुख में डाला, जो बाहर लुढ़क आया। तभी उन्होंने जोर से आवाज लागाई… अरे। देवा!
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