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हुड्डा पर छापे के मायने

hudaaसियाराम पांडेय ‘शांत’
गुड़गांव में हुए भूमि अधिग्रहण में धांधली के एक मामले में केंद्रीय जांच ब्यूरो ने हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा के घर छापा मारा। इसके अतिरक्त यूपीएससी के एक वर्तमान सदस्य के घर समेत 20 स्थानों पर भी छापेमारी की गई। कांग्रेस इसे राजनीतिक िवद्वेष भावना से की गई कार्रवाई करार दे सकती है। उसकी जगह कोई भी होगा तो यही कहेगा लेकिन सीबीआई ने रोहतक, गुड़गांव, पंचकूला समेत दिल्ली में छापेमारी कर यह तो साबित कर ही दिया है कि अगर अपराध हुआ है तो उसकी जांच होगी ही, अपराधी चाहे कितना भी रसूखदार क्यों न हो ? जांच एजेंसी ने इस मामले में पिछले साल सितंबर में ही मामला दर्ज किया था।

आम आदमी के लिए यह विचार का विषय हो सकता है कि जब पूर्व मुख्यमंत्री के घर पर छापा पड़ सकता है तो इसके पीछे कोई न कोई ठोस वजह तो होगी ही, हवा में तो इस तरह की कार्रवाई होती भी नहीं। बिल्डरों और सरकार के संबंध किसी से छिपे नहीं हैं। फिर हुड्डा तो उन मुख्यमंत्रियों में हैं जिन पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद राबर्ट बाड्रा को भूमि संबंधी लाभ पहुंचाने और भू उपयोग बदलने का आरोप है। यह मामला जरा अलग किस्म का है। अगस्त 2004 से अगस्त 2007 के बीच निजी भवन निर्माताओं ने हरियाणा सरकार के कुछ अधिकारियों की मिलीभगत से मानेसर, नौरंगपुर और लखनौला के किसानों और अन्य भूस्वामियों से लगभग 400 एकड़ जमीन बेहद कम दाम में खरीदी। किसानों को सरकारी अधिग्रहण का भय दिखाकर यह सब किया गया था। गौरतलब है कि इस प्रक्रिया में पहले तो हरियाणा सरकार ने गुड़गांव जिले के गांव मानेसर, नौरंगपुर और लखनौला में औद्योगिक मॉडल टाउनशिप की स्थापना के लिए 912 एकड़ जमीन के अधिग्रहण के लिए भूमि अधिग्रहण कानून के तहत अधिसूचना जारी की थी,लेकिन बाद में निजी बिल्डरों ने भूस्वामियों को सरकार द्वारा सस्ती दर पर अधिग्रहण का डर दिखाकर कथित तौर पर उनसे जमीन हथिया ली। उद्योग निदेशालय ने 24 अगस्त, 2007 को इस भूमि को अधिग्रहण प्रक्रिया से बाहर कर दिया। इससे साफ जाहिर है कि भू अधिग्रहण प्रक्रिया शुरू ही की गई थी, बिल्डरों को लाभ पहुंचाने के लिए। सरकार को कोई अधिग्रहण करना नहीं था। इसलिए अधिसूचना को भयादोहन का हथियार बनाया गया। वैसे भी अधिसूचना के बाद भूमि को अधिग्रहण प्रक्रिया से बाहर करना सरकारी अधिग्रहण नीति के विपरीत है। सरकार का यह निर्णय वास्तविक भूमालिकों के हितों की रक्षा नहीं करता बल्कि इससे बिल्डरों, उनकी कंपनियों और एजेंटों के पक्ष को मजबूती मिलती है। उनके हित सधते हैं और किसी भी सरकार से इस तरह के किसान विरोधी आचरण की उम्मीद नहीं की जा सकती। सीबीआई के एफआईआर में इस बात का उल्लेख है कि लगभग 400 एकड़ भूमि जिसकी बाजार में उस वक्त कीमत प्रति एकड़ चार करोड़ रुपये से अधिक थी। सरकारी अधिग्रहण का हौव्वा खड़ाकर बिल्डरों ने किसानों की लगभग 1,600 करोड़ रुपये मूल्य की जमीन महज 100 करोड़ रुपये में खरीद ली। इससे किसानों को 1500 करोड़ रुपये का घाटा हुआ भी, सरकार को भी राजस्व की चपत लगी। एक ओर तो कांग्रेस किसानों का हमदर्द बनी घूम रही है, वहीं दूसरी तरफ उसके मुख्यमंत्री का इस तरह का आचरण गले नहीं उतरता। उत्तर प्रदेश में टीम पीके इस बात का पता लगाने में जुटी है कि यहां के किसानों पर बैंकों का कितना कर्ज है और मोदी सरकार में उसे क्यों नहीं माफ किया गया है। वह सूचना के अधिकार के तहत इस बावत जानकारी लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर दबाव बनाने के पक्ष में है और बाद में वह किसानों के सभी कर्ज माफ कर उनकी सहानुभूति बटोरने और इसी बहाने यूपी में वर्ष 2017 का चुनावी मैदान मारने की फिराक में है लेकिन सीबीआई ने हुड्डा और उनके अधिकािरयों के घर छापे मारकर साफ कर दिया है कि किसानों को लाभ का सब्जबाग दिखाने वाली कांग्रेस वैसी है नहीं, जैसा कि वह प्रदर्शन करती है। यहां हाथी के दांत खाने और दिखाने के सर्वथा अलग हैं।

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