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ऐसे लोकतंत्र से तो राजतंत्र ही भला था

अशोक पाण्डेय 

नेताओें में निष्ठा, ईमानदारी, नैैतिकता कुछ भी तो नहीं बची। स्वार्थ सिद्ध न होने पर वे कपड़े की तरह पार्टी बदल रहे हैं। लोकतंत्र तो राजतंत्र से भी गया बीता साबित हो रहा है। राजतंत्र में राजा सर्वोपरि होता था। वह अपने बेटे को राजा बना सकता था और इसके लिए उसे किसी से पूछने की जरूरत भी नहीं थी लेकिन वह ऐसा नहीं करता।

अपने बेटे को राजा बनाने के लिए भी वह सभा बुलाता था। सर्वानुमति हासिल करता था। तब कहीं अपने बेटे को युवराज घोषित करता था। महाराज दशरथ अपने दौर के चक्रवर्ती राजा थे। देवासुर संग्राम में भी उन्होंने देवताओं की मदद की थी लेकिन राम के राज्याभिषेक से पहले उन्होंने सभा आहूत की। यह कहकर सर्वानुमति हासिल की कि जो पंचहि मत लागै नीका।

विभीषण ने भी रावण का साथ तब तक नहीं छोड़ा जब तक कि उसे बता नहीं दिया कि जो काम वे कर रहे हैं, उसमें राक्षसकुल की भलाई नहीं है। राजनीति भी एक तरह की दोस्ती है और दोस्ती हर कमी के साथ कुबूल की जाती है। ‘शर्त लगाई नहीं जाती दोस्तों के साथ। तू है मुझेे कुबूल हर कमी के साथ।’ विभीषण चाहता तो रावण को बिना बताए भी राम के पास जा सकता था लेकिन यह मर्यादा, नैतिकता और निष्ठा क्ी भावना के अनुरूप न होता। जबकि वह  यह भी जानता था कि जिस तट पर प्यास बुझाने से अपमान प्यास का होता हो, उस तट पर प्यास बुझाने सेे प्यासा रह जाना बेहतर है और बाद ने विभीषण ने इस विकल्प कोे अपनाया भी लेकिन जब तक निभाते बना, खूब निभाया। उसने अपने भ्रातृत्व प्रेम में कोई कमी नहीं आने दी।

वह भी चाहता तो आज  के नेताओं की तरह आनन-फानन में निर्णय लेे सकता था। गुरु द्रोणाचार्य धृतराष्ट्र का साथ छोेड़ सकते थे। अपनी जान देे दी लेकिन अन्न का अपमान नहीं होने दिया। बचपन में हम सब संकल्प लिया करते थे। ‘अन्न जहां का हमने खाया, वस्त्र जहां के हमने पहने। उसकी रक्षा कौन करेगा, हम करेंगे, हम करेंगे।’ आज के राजनेता तो बचपन में ली गई प्रतिज्ञा तक कको भूल गए हैं। उनके लिए स्व ही प्रमुख है और इसके लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। व्यक्ति वही हैै जो गलती से भी हाथ पकड़नेे पर उसे दूर तक निभाए। एक शायरी याद आती है- ‘जो लोग जान-बूझकर नादान बन गए।

मेरा ख्याल था कि वो इंसान बन गए।’ यह इंसानियत लगता है नेताओं की जिंदगी से दूर चली गई है। राजनीतिक दलों सेे जुड़े नेताओं को आज जाने क्या हो गया है। स्वार्थपूर्ति की जरा सी अड़चन भी उन्हें बर्दाश्त नहीं होती। जिस पार्टी को मां कहते हैं, उसे ही कैैकेयी कहने में भी पीछे नहीं रहते। ऐसे लोकतंत्र सेे तो राजतंत्र ही बेहतर था जहां सहमति की जगह तो थी। सर्वानुमति और एक दूसरे कोे मान देने के संस्कार तोे जिंदा था लेकिन दलबदलू राजनीति का मौजूदा नवविकसित चरित्र इस देश कोे कहां ले जाएगा, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है।        

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