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अपने-अपने बेटों की खातिर दो बड़ों की जंग

aaज्ञानेन्द्र शर्मा
दोनों तीन-तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। दोनों ने उत्तर प्रदेश की धरती पर कई तरह की राजनीतिक उथल-पुथल देखी है और मोर्चे लिए हैं। एक का राजनीतिक उत्थान दूसरे के प्रदेश में राजनीतिक अवसान के साथ हुआ और अब दोनों को अपने-अपने बेटों की खातिर जीवन के सबसे कठिन फैसले लेने पड़े हैं।

मुलायम सिंह यादव ने अपने बेटे से चार महीने तक जंग की और अंततः अपने बेटे के सामने घुटने टेक दिए जबकि वरिष्ठ कांग्रेसी नेता नारायण दत्त तिवारी ने मामूली सी कश्मकश के बाद अपने घुटने खड़े कर लिए और अपने बेटे को अपनी उपस्थिति में उस भारतीय जनता पार्टी में शामिल करा दिया जो कांग्रेस की धुर विरोधी रही है। बहुतों को अपने बेटे को भाजपा में भेजने का तिवारीजी का फैसला नहीं पचा, खासतौर पर उनको जिन्होंने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के बाद तिवारीजी का कांग्रेस पार्टी में लम्बा दबदबा देखा है।

1984 में कुछ समय के लिए जब उन्होंने अर्जुन सिंह के साथ मिलकर कांग्रेस (टी) बनाई, वे कांग्रेस के सर्वप्रमुख नेताओं में थे और एक बार तो प्रधानमंत्री होते होते रह गए। 1991 के चुनाव में वे नैनीताल लोकसभा क्षेत्र से चुनाव हार गए। चार पर्वतीय विधानसभाई क्षेत्रों में जीतने के बाद भी वे हार गए क्योंकि नैनीताल संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत आने वाली मैदानी बरेली जिले की बहेड़ी विधानसभा सीट पर वे इतने पिछड़े कि सीट ही खो बैठे। इस हार के साथ वे प्रधानमंत्री बनते बनते रह गए। उनकी जगह नरसिंह राव आ गए। प्रेक्षकों को अब अपने बेटे को भाजपा में भेजने का उनका फैसला चौंकाने वाला लग रहा है।

यह नारायण दत्त तिवारी ही थे जिन्हें मुख्यमंत्री रहते हुए अपनी गद्दी मुलायम सिंह यादव को 1989 में उस समय सौंपनी पड़ी थी जब कांग्रेस को जनता दल ने विधानसभा चुनाव में हरा दिया था और श्री यादव विधानमण्डल दल के नेता पद के चुनाव में अजित सिंह पर जीत दर्ज करके मुख्यमंत्री बन गए थे। तिवारीजी तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहने के अलावा केन्द्र में कई महत्वपूर्ण विभागों के मंत्री रहे।

तिवारीजी एकमात्र ऐसे नेता हैं जो दो राज्यों – उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री रहे हैं। वे लगभग दो वर्ष तक आन्ध्र प्रदेश के राज्यपाल रहे।
मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी में कई महीने वर्चस्व की लड़ाई लड़ी जो चार महीने चरम पर रही। अंततः उन्होंने अपने बेटे के सामने हार मान ली और चुनाव आयोग द्वारा अखिलेश को पूरी पार्टी सौंप देने के उसके फैसले के बाद उसे स्वीकार कर लिया।

वे न तो कोर्ट गए ओर न ही उन्होंने अखिलेश के खिलाफ चुनाव मैदान में उतरकर ताल ठोंकने का बीड़ा उठाया। आज की तारीख में उनका बेटा ही पार्टी का सर्वेसर्वा है। उधर तिवारीजी अपने बेटे की खातिर भाजपा से उसकी दोस्ती करा दी। कहा जाता है कि जो डील हुई है, उसके तहत उनके बेटे रोहित शेखर को भाजपा उत्तराखण्ड विधानसभा चुनाव लड़ाएगी।

श्री यादव और तिवारीजी में दो भारी असमानताएं दिखीं। 78 वर्षीय मुलायम सिंह ने अपने बेटे के साथ हुए शीतयुद्ध में अखिलेश को एक बार पार्टी से निकाला तो लेकिन जल्दी ही निष्कासन आदेश वापस ले लिया। लेकिन उन्होंने अखिलेश के मुकाबले न तो कोई समानांतर पार्टी खड़ी की और ही पार्टी के अंदर उनके वर्चस्व को चुनौती दी। परन्तु 91 साल के तिवारीजी ने अपने राजनीतिक सितारों को पुनर्जीवित करते हुए अपने बेटे को टिकट दिलाने के लिए भाजपा में भेज दिया।

तिवारीजी पिछले कुछ सालों से राजनीति में सक्रिय नहीं रहे हैं, हालांकि मुलायम सिंह और अखिलेश ने समय समय पर उन्हें कई मंच हासिल कराए। यहां तक कि कुछ समारोहों में मुख्य अतिथि बनाकर उनका सम्मान किया। अखिलेश सरकार ने उनके बेटे रोहित शेखर को कैबिनेट मंत्री का दर्जा भी दिया। लेकिन इससे रोहित संतुष्ट नहीं थे और उत्तराखण्ड से विधायक बनने की चाहत में वे अपने पिता के सामने भाजपा में चले गए।
तिवारीजी की पहली पत्नी सुशीला थीं जो पेशे से एक कुशल डॉक्टर थीं। उनके निधन के बाद उज्जवला शर्मा और उनके बेटे ने तिवारीजी के खिलाफ लम्बी कानूनी लड़ाई लड़ी। कोर्ट के आदेश पर तिवारीजी का डीएनए टेस्ट कराया गया और 22 जुलाई 2012 को उसका परिणाम घोषित करते हुए रोहित को उनका ‘बॉयोलॉजिकल’ बेटा करार दिया गया। तिवारीजी ने अंततः 3 मार्च, 2014 को रोहित को अपना बेटा मान लिया और उनकी मां उज्जवला शर्मा से 2014 में ही विवाह रचाया।

अब नारायण दत्त तिवारी के पुत्र भाजपा के टिकट पर उत्तराखण्ड विधानसभा का चुनाव लड़ेंगे जबकि मुलायम सिंह के बेटे पूरे दमखम से समाजवादी पार्टी के चुनावी अभियान का संचालन करेंगे और उनके पिताश्री इसमें कोई बाधा खड़ी नहीं करेंगे।

 

उधर, आरएलडी सूत्रों के मुताबिक, सपा ने कांग्रेस और आरएलडी के लिए एकमुश्त सीटें छोड़ दी हैं। सपा ने दोनों से कहा है कि वह आपस में तय कर लें कि कितनी सीट किसको रखनी है। बताया जा रहा है कि गुलाम नबी आजाद और अजित सिंह के बीच हुई वार्ता में कोई फैसला नहीं हो सका इसलिए ऐलान अटका हुआ है। आरएलडी की तरफ से जानकारी मिल रही है कि सिवालखास और शामली उनको मिले। शामली से कांग्रेस के पंकज मलिक और सिवालखास से एसपी के गुलाम मौहम्मद विधायक हैं। ऐसे में दोनों दलों में अभी एक राय नहीं बन सकी है। माना जा रहा है कि अगले 24 घंटे में सबकुछ फाइनल हो जाएगा।

दावेदारों का दिल्ली में डेरा :
आरएलडी की तरफ से टिकट के दावेदार दिल्ली में डेरा डाले हुए हैं। वह जल्द से जल्द गठबंधन फाइनल होने और टिकट की लिस्ट जारी करने के पक्षधर हैं। उनका मत है कि नामांकन करने का दूसरा दिन भी खत्म हो गया। अकेले या गठबंधन से चुनाव में जाना का फैसला अगर देर से होता है तब प्रचार के लिए समय कम ही मिलेगा, जो नुकसानदेह साबित हो सकता है। बुलंदशहर, मेरठ, हापुड़, बागपत, मुजफ्फरनगर, शामली के काफी दावेदार दिल्ली में ही टिके हुए हैं।

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