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चौक यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर थे नागर जी

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सियाराम पाण्डेय ‘शांत’ —–

लखनऊ। साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली एवं संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार के संयुक्त तत्ववधान में आयोजित अमृतलाल नागर जन्म शतवार्षिकी समारोह  का दूसरा दिन  नागर जी के नाटक, रंगमंच, फिल्म एवं रेडियो के क्षेत्र में किए गए अवदानों के नाम रहा। अनेक आत्मीयों, परिवारीजनों की यादों  तथा भारतीय साहित्य में उनकी उपस्थिति का इस दौरान भावपूर्ण स्मरण किया गया। सायंकालीन समापन सत्र के बाद ‘नागर कथा’ शीर्षक से अमृतलाल नागर की दो बहुचर्चित कहानियों ‘शकीला की मां’ और ‘कादिर मियां की भौजी’ पर आधारित नाट्य प्रस्तुति चित्रामोहन के निर्देशन में दी गई।  
अमृतलाल नागर जन्म शतवार्षिकी समारोह के अंतिम दिन का पहला सत्र भारतेंदु हरिश्चंद्र की वंशधर एवं कलकत्ते की नाट्य विदुषी प्रतिभा अग्रवाल की अध्यक्षता में शुरू हुआ।  इसमें उर्मिल कुमार थपलियाल ने नागर जी के नाटक-रंगमंच, रेडियो लेखन एवं प्रस्तुतीकरण से जुड़े संदर्भों का विस्तार से परिचय देते हुए कहा कि नागर जी  न केवल चौक यूनिविर्सिटी के वाइस चांसलर थे बल्कि हमारे समय के लखनवी नाट्य जगत के भरत मुनि भी थे।  अतुल तिवारी ने नागर जी के बंबई के फिल्मोद्योग से जुड़े प्रवास और संघर्षपूर्ण रचनात्मक जीवन पर प्रकाश डाला और बताया कि  वहां सात साल तक फिल्मों के संवाद, गीत एवं पटकथाओं का लिखना अंतत: नागर जी को बालू पर लेखने करने जैसा लगा।  अत: उदयशंकर की अभूतपूर्व फिल्म कल्पना जो नागर जी के अलावा नरेंद्र शर्मा और सुमित्रानंदन पंत के सहयोग से निर्मित हुई थी, उसका मद्रास में काम पूरा करने के बाद नागर जी यह सोचकर लखनऊ आ गए कि अब साहित्य के लिए समर्पित होकर लिखना और मसिजीवी लेखक की ही जिंदगी जीना है।
दूसरा सत्र स्मृति में अमृतलाल नागर शीर्षक से आयोजित था। इसमें प्रख्यात साहित्यकार गिरिराज किशोर ने कहा कि नागर जी लोकजन से जुड़े रहते थे। इसीलिए वे सबसे लोकप्रिय भी हुए। उन्होंने कहा कि नागर जी ने बहुत यात्राएं कीं। विभिन्न भाषाओं पर उनकी पकड़ मजबूत थी। उन्होंने चुनौतियां स्वीकारीं और विभिन्न विषयों पर गहरे शोध और परिश्रम के साथ लिखा। खंजन नयन को  विशेष रूप से इस नाते लिखा कि लोग समझ सकें कि आंखों के बिना भी अंधों का जीवन समाप्त नहीं हो जाता। इसी सत्र में पुरातत्वविद राकेश तिवारी ने उनकी स्मृतियों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि उनका मुझसे पारिवारिक रिश्ता बन गया था। पुरातत्व के संबंध में उनसे मेरी बहुत चर्चाएं हुईं। उनकी सीख थी कि  चार चवन्नी कमाओ तो एक खाओ।कभी भी उधार लेकर मत खाओ।  वे कहते थे कि इस जीवन में तो साहित्यकार बन गया और यही मेरी रोजी-रोटी है लेकिन अगले जन्म में पुरातत्वविद् बनना चाहूंगा।
नागर जी के नवासे संदीपन विमलकीर्ति नागर ने अपने नितांत बचपन से लेकर  नागर जी के निधन तक अनेक सम्ृतियां साझा कीं। आज हमारे अंदर जो पढऩे-लिखने की क्षमता विकसित हुुुई है, वह उन्हें नजदीक से देखते-जानते और उनसे मिली सीख की वजह से ही हुई है। वह चौक से बहुत प्यार करते थे। कहते थे कि सब कुछ छूट जायेगा लेकिन चौक को कभी नहीं छोड़ पाऊंगा। समारोह में ख्यातिप्राप्त साहित्यविद् राम विलास शर्मा के बेटे विजय मोहन शर्मा ने बताया कि मेरे पिता रामविलास शर्मा, निराला जी व नागर जी में गहरी मित्रता थी और अपने लिखे में नागर जी को अगर रातविलास जी से या ज्ञानचंद जैन जी से कोई सुझाव या आलोचना प्राप्त होती तो अपनी पांडुलिपियों में तदनुसार संशोधन करते और उसे अंतिम रूप देते थे।
अगला सत्र भारतीय भाषाओं में नागर की उपस्थिति विषय पर था जिसकी  अध्यक्षता श्रीनिवास उद्गाता ने की।  गुजराती साहित्यकार आलोक गुप्त ने नागर जी की कुछ कृतियों का अनुवाद करने से संबंधित अपने अनुभव साझा किए। सुधांशु चतुर्वेदी ने नागर जी की मलयालम में स्वयं द्वारा अनूदित कृतियों के संबंध में अपने अनुभव बताए और एस शेषारत्नम ने तेलुगु भाषा में नागर जी की कृतियों के अनुवादों पर विस्तार से प्रकाश डाला। शकील सिद्दीकी ने उर्दू में नागर जी के लेखन के अनुवादों की जानकारी दी। पूरे समारोह के समापन सत्र की अध्यक्षता  नरेश सक्सेना ने की और कहा  कि नागर जी के शब्दों में कलाएं आनंद के लिए होती हैं। उनके जैसा कला का धनी होना आज के युग में कठिन है।
अमृतलाल नागर की बेटी अचला नागर ने कहा कि नागर जी के नाम पर डाक टिकट जारी हो और चौक में उनके नाम पर मार्ग का नामकरण किया जाए। जिस कोठी शाह जी में सन 57 से वे रहे और वहीं से उनकी अंतिम यात्रा निकली, सरकार उसका संरक्षण कर चौक क्षेत्र के सांस्कृतिक केंद्र के रूप में विकसित करे और इसके लिए लखनऊ के नागरिक और प्रबुद्ध साहित्यिक इसके लिए आवाज उठाएं। अमृत नागर के पौत्र पारिजात नागर ने भी अपने दादा के साथ गुजारे पलों को साझा किया। साहित्यकार सूर्य प्रसाद दीक्षित ने सभी का आभार व्यक्त किया।
नागर कथा में दिखा लखनवी परिवेश-
समापन के बाद चित्रा मोहन के निर्देशन में कहानी कोलाज नागर कथा का मंचन किया गया। यह उनकी दो कहानियों पर आधारित था। पहली शकीला की मां तथा दूसरी कादिर मियां की भौजी । पहली कहानी शकीला की मां में दिखाया गया कि उस तबके से निकल कर आती है जहां भुखमरी के कगार पर पहुंची हुईं औरतें जिस्मफरोशी के लिए मजबूर होती हैं। दूसरी कहानी कादिर मियां की भौजी जिसमें गरीब रेखा पर जीने वाले वर्ग के स्त्री-पुरुषों के बीच उपजे विभिन्न मानवीय- अमानवीय रिश्तों की विवशता को प्रस्तुत किया गया।
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