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विकास के तेज या मंद स्वरूप पर मंथन

विकास भारत की जरूरत  है लेकिन उसका स्वरूप कैसा हो, विकास धीरे-धीरे हो, क्रमबद्ध तरीके से हो या तीव्र गति से, यह विमर्श का विषय है। प्रसन्नता की बात यह है कि इस मुद्दे पर चिंतन शुरू भी हो गया है। नीति आयोग के तत्वावधान में विकास को लेकर बहस हो रही है।  इस मंथन से जो नवनीत निकलेगा, वह देश के काम का होगा। उससे तरक्की के विविध आयाम खुलेंगे। विकास की कोई सर्वमान्य अवधारणा विकसित हो सकेगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नेे कभी सबका साथ-सबका विकास का नारा दिया था। इस विचारधारा को नेपथ्य में रखकर तीव्र विकास कैसे मुमकिन है, यह अपने आप में बड़ा सवाल है। बूंद-बूंद से समुद्र बनता हैं। अचानक समुद्र या नदी नहीं बनती। छलांग लगाने के लिए भी दौड़ना पड़ता है और यह दौड़ना क्रमिक होता है। विकास इसका अपवाद कैसे हो सकता है। पूरे मंत्रिमंडल के समक्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि  देश को रत्ती-रत्ती विकास की नहीं,  तीव्रतर प्रगति की दरकार है।  इसके लिए वे देश के कानूनों में बदलाव, गैरजरूरी औपचारिकताओं  की समाप्ति और प्रक्रियाओं में तेजी लाने के पक्षधर  हैं। उनके हिसाब से विकास की कछुआ गति बनी रही तो दुनिया के दूसरे देश हमसे बहुत  आगे निकल जाएंगे। प्रधानमंत्री का जोर दरअसल कायाकल्प पर है।  राज-काज में बदलाव पर है। लेकिन यह सब एक अकेले आदमी तो कर नहीं सकता।  प्रधानमंत्री भी इस बात को मानते हैं कि मानसिका में बदलाव आए बगैर राजकाज में बदलाव संभव नहीं  है और मानसिकता में बदलाव क्या इतना आसान है। क्या यह एक झटके में आ सकता है?

प्रधानमंत्री यह भी स्वीकार करते हैं कि विचार परिवर्तनकारी होंगे तो मानसिक बदलाव लाया जा सकता है। 19वीं सदी की प्रशासनिक प्रणाली 21 वीं सदी में कारगर कैसे हो सकती है? देश, काल परिस्थितयों के अनुरूप उसमें परिवर्तन तो करने ही होंगे लेकिन देश में जिस तरह का राजनीतिक माहौल है। षड़यंत्रकारी ताकतें जिस तरह हावी हैं। आतंकवादियों और अलगाववादियों को समर्थन देने वाले तत्व भी भारतीय राजनीतिक समाज में वर्चस्व बनाए हुए हैं, ऐसे में राजकाज में बदलाव एक झटके में संभव होगा भी तो कैसे, विचारणीय तो यह भी है। ‘अनावश्यक औपचारिकताओं की समाप्ति  और प्रक्रियाओं में तेजी क्या उतना ही आसान है जितना कि कहा और समझा जा रहा है।  बदलाव एकतरफा नहीं हो सकता। बाहर-बाहर के बदलाव से काम नहीं चलने वाला। भीतर भी परिवर्तन होना चाहिए। मोदी से बेहतर इस बात को भला कौन जानता है। इस बदलाव की जरूरत क्यों हैं, इसके अपने मायने तो हैं ही लेकिन एक सच यह भी है कि अपने देश में विचार और राजनीति दो ध्रुव हैं। नदी के दो किनारे हैं। पहले राजनीति धर्म हुआ करती थी, जिसे राजधर्म कहा जाता था लेकिन अब हालात जरा बदल गए हैं, अब राजनीति धर्म नहीं है। वह पैसा बनाने और कद बढ़ाने का जरिया बन चुकी है। जिम्मेदारी, बहादुरी, ईमानदारी और कर्मनिष्ठा का स्थान   सुविधा के संतुलन ने लिया है। भ्रष्टाचार का घुन हर किसी संस्थान में लग चुका है। यह सच है कि हर देश के अपने अनुभव, संसाधन और ताकत होती है लेकिन उसका प्रभाव तो तभी नजर आता है जब उनका इस्तेमाल सही तरीके से हो। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस राय में दम है कि हर देश को अपने काम को वैश्विक कसौटियों पर कसना होता है अन्यथा वह पीछे छूट जाएगा।’ प्रधानमंत्री की नजर में युवा मन की आकांक्षाएं भी हैं। युवाओं के साथ चलना है तो आगे बढ़ना ही होगा।  बाब आदम की सोच के साथ इक्कीसवीं सदी में नहीं चला जा सकता।

प्रधानमंत्री यह भी जानते हैं कि प्रशासनिक मानसिकता बहुधा एक ढर्रे पर चला करती है।  सामान्यत: उसमें कोई बुनियादी बदलाव तभी आता है जब कि अचानक कोई झटका लगे या संकट खड़ा हो जाए।  लेकिन इस झटके का स्वरूप क्या होगा, यह भी तो सुस्पष्ट हो। विनाश की बुनियाद पर ही विकास का कंगूरा खड़ा होता है। विकास की प्रसवपीड़ा तो झेलनी ही पड़ती है।

अब पूंजी और श्रम की उपलब्धता पर निर्भर रहने वाले विकास का दौर बीत चुका है। संस्थानों और विचारों की गुणवत्ता भी विकास के लिए सर्वथा अहम हो गई है। नीति आयोग बना देना ही काफी नहीं है। विचारणीय तो यह है कि नीति आयोग से जुड़ा कौन है? उसकी सामाजिक, आर्थिक और वैचारिक ‘पकड़ कैसी है? वह वातानुकूलित कमरे का चिंतक है या उसने गांवों की बेवशी देखी है। एटलस देखकर भारत का भविष्य तय करना और भारत को नजदीक से समझना  अलग-अलग बातें हैं। प्रधानमंत्री सामूहिक तौर पर अपने अपने मस्तिष्क के द्वार खोलने, उसमें नई वैश्विक सोच को जगह देने पर बल दे रहे हैं लेिकन इसके लिए तो सामूहिक प्रयास की जरूरत होगी जो अभी तक तो नजर आती नहीं।  व्यक्तिगत रूप से नए विचार तो सभी ग्रहण करते हैं। जीवन विचारों का ही दूसरा नाम है।

 हर व्यक्ति की जिंदगी में विचार आते रहते हैं लेकिन उनका कोई तारतम्य नहीं होता। वे सर्वथा असंगत होते हैं और असंगत से संगति बिठाए बगैर तो विकास की बात बनती नहीं।

बकौल प्रधानमंत्री, केंद्र और राज्य सरकारों की लंबी प्रशासनिक परंपरा है जो अनेक प्रकार से भारत के लिए अच्छे काम की रही है। सबसे बढ़ कर इसने वैभवपूर्ण विविधता वाले इस देश में लोकतंत्र, संघीय व्यवस्था, एकता और अखंडता की रक्षा की है। यह कोई छोटी उपलब्धियां नहीं हैं। सवाल यह है कि केंद्र और राज्य सरकारों के बीच तालमेल क्यों नहीं बन रहा  है। गैर भाजपा शासित राज्यों का केंद्र पर भेदभाव का आरोप सरेआम रहता है, यह किस तरह का सबका साथ है।  नीति बनाना कठन काम नहीं है लेकिन इसके लिए देश के नीति नियंताओं को यह तो सोचना ही होगा कि वे नीति किसके लिए बना रहे हैं। समाज के जिस वर्ग के लिए योजना बने, उसकी समस्याओं का ज्ञान तो होना चाहिए। जब समस्या ही पता नहीं है, उसका कारण ही पता नहीं है तो समाधान का आधार क्या होगा? नीति निर्धारण का स्वरूप क्या होगा?

कौटिल्य के अर्थशास्त्र से आगे की बात भारत क्या, विश्व का कोई भी अर्थशास्त्री क्यों नहीं कर पाया? इसकी मूल वजह उसका किताबी दुनिया में भटकते रहना और व्यावहारिक धरातल से दूर रहना भी है। बंद कमरों में बनाई गई योजना  आम आदमी के लिए कारगर नहीं हो सकी।   देश को नए चाणक्य की जरूरत है। समाज काे एक करने और आधुनिक भारत के स्वप्नदृष्टा की जरूरत है।

केवल योजनाओं का नाम बदल देने भर से काम नहीं चलने वाला। इसके लिए जमीनी स्तर पर काम करना होगा?

                                                                                                                                  —— सियाराम पांडेय शांत

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