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वैदिक मूल्यों के संवाहक श्रीकृष्ण

downloadभगवान श्रीकृष्ण के स्वरूप एवं उनके आविर्भाव, चरित्र, गुण, प्रभाव और वचन की महिमा अनंत और अपार है। आज अविनाशी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, पूर्ण ब्रह्म परमात्मा ही स्वयं दिव्य अवतार धारण करके प्रकट होते हैं। उनके दर्शन,भाषण श्रवण, िचंतन और वंदन कर पापी भी परम पवित्र हो जाते हैं। यह उनके विलक्षण स्वरूप का अलौकिक रहस्य है। भगवान श्रीकृष्ण का विग्रह उपासकों के ध्यान और धारणा का मंगलमय आधार  और संपूर्ण लोकों के लिए परम रमणीय आश्रय है, इसलिए उन्होंने योगियों के समान अग्नि देवता संबंधी योग धारणा द्वारा उसको जलाया नहीं बल्कि सशरीर  अपने धाम चले गए क्योंकि वे यागियों के भी ईश्वर हैं। इससे यही सिद्ध हुआ कि भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हुए और अंतर्धान हो गए। उनकी न तो उत्पत्ति हुई और न ही विनाश हुआ। भगवान अपने भक्त को उसी रूप में भजते हैं, जिस रूप में भक्त उन्हें भजता है।  मनुष्यों में जहां जो भी गुण िदखलाई पड़ते हैं, वेपरिमित, एकदेशीय, प्राकृत, लौकिक,अल्प और जड़ हैं, किंतु भगवान के गुण अपरिमित, अनंत, अप्राकृत, महान, दिव्य और चिन्मय हैं

  भारतीय संस्कृति की यह मान्यता है कि वेद से ही धर्म निकला है- ‘वेदोद्धर्मोहि निर्बभौ।’ एक प्रश्न उठता है कि वेद की नित्यता को प्रत्यक्ष प्रमाण या अनुमान प्रमाण से सिद्ध किया जा सकता है क्या? परंतु इस संबंध में शंकराचार्य आदि महानुभावों ने  प्रत्यक्ष एवं अनुमान प्रमाण का खंडन कर शब्द प्रमाण को ही स्थापित किया है। मानव बुद्धि सीमित है। रूाुद्रतम मानव मस्तिष्क अज्ञेय काल के तत्वों को कैसे प्रत्यक्ष कर सकता है और अनंत  समय की बातों का अनुमान ही कैसे लगा सकता है? इसीलिए भगवान ने स्वयं गीता में कहा – ‘तस्ताच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्य व्यवस्थितौ।’ कार्य एवं अकार्य की व्यवस्थिति अर्थात कर्तव्य एवं अकर्तव्य का निर्णय करने में शास्त्र ही एक मात्र प्रमाण है।

 आर्यों के सभी शास्त्र वेद को िनत्य, शाश्वत और अपौरुषेय मानते हैं। अर्थात वेदों को किसी पुरुष के द्वारा निर्मित नहीं मानते। इसीलिए वेद के शब्दों को हमारे धर्म, कर्म और जीवन के मार्गदर्शन का प्रमाण माना गया है।

 नारदीय सूक्त सृष्टि के मूलतत्व, गूढ़ रहस्य का वर्णन किया गया है। सृष्टि रचना जैसा महान गंभीर विषय ऋषिक के चंतन में किस तरह प्रस्फुटित होता है, यह नारदीय सूक्त में देखने को मिलता है। सृष्टि की उत्पत्ति के सूक्ष्म वर्णन की वजह से ही इस सूक्त को सृष्टि सूक्त भी कहा जाता है। संसार सृष्ट के परम गूढ़       रहस्य को समस्त सृष्टि के अधिष्ठाता ही जानते हैं।  उसके अतिरिक्त इस गूढ़ तत्व को कोई भी नहीं जानता।

 आज से करीब पांच हजार वर्ष पूर्व द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण अवतरित हुए। वेदों का अवतरण श्रीकृष्ण के जन्म से भी  हजारों वर्ष पूर्व हुआ है। ऋग्वेद में श्रीकृष्ण पूर्ण ब्रह्म के रूप में स्वीकृत हैं। यद्यपि अन्य वैष्णव पुराणों में विष्णु को ही सर्वोपरि स्थान दिया गया है तथापि भागवत पुराण में हरि अथवा श्रीकृष्ण को ही भगवान माना गया है।  भक्ति  संप्रदाय में यह भगवान शब्द ही परम तत्व का द्योतक है। पृथ्वी का भार हरण करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने वृष्णि वंश में बलराम-कृष्ण के रूप में अवतार लिया था। इसी अवतार में भगवान ने ऐसी लीलाएं कीं, जिनको समझना सामान्य जन के लिए कठिन है।  श्रीकृष्ण स्वयं साक्षात भगवान हैं। भगवान श्रीकृष्ण की कृपा अनुग्रह मार्ग की स्थापना महाकरुणामय प्रभु ही करते हैं।  क्योंकि भगवान के अनुग्रह ही साधन हैं। भगवान की कृपा काल,कर्म और स्वभाव जन्य बाधाओं को मिटा देती है। पुष्टि मार्ग में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं भक्तों  के हृदय में प्रादुर्भूत होकर हृदय को स्वचरित लीलाकृत से सदा के लिए संयोजित कर देते हैं जिस व्यक्ति के हृदय में भगवान इस तरह स्थिर हो जाते हैं, वह स्वतंत्र भक्त कहलाता है। ऐसा वैष्णव संप्रदाय के विद्वानों का अभिमत है।

 भगवान श्रीकृष्ण ने जन्म लेने के बाद ही ब्रज की विपत्तियों का एक-एक कर सामना किया। पूतना वध, यमुलार्जुन उद्धार,शकटासुर वध,अघासुर वध, कालिया दमन,कंस-चाणूर वध आदि उनकी लीलाएं कुरीतियों को मिटाने के लिए ही नर रूप में की गईं। द्रौपदी के चीर हरण में भरी सभा में साड़ी बढ़ाकर उसकी लाज बचाई। नारी सम्मान का समाज में इससे बढ़कर कोई अन्य उदाहरण सामने नहीं है। शांतिदूत बनकर महाभारत युद्ध को रोकने का उनका प्रयास नसंार को रोकने की बड़ी कोशिश थी।  सत्य का पक्ष लेने के लिए ही वे अर्जुन के सारथि बने।  गीता का उपदेश समस्त विश्व की अमूल्य निधि है जिसका दर्शन, ज्ञान, उस समय जितना सार्थक था, आज उसकी आवश्यकता उस समय से कहीं अधिक है। आज सारा विश्व युद्ध की विभीषिका से आक्रांत है। कब सृष्ट का विनाश हो जाए, सारा विश्व सशंकित है।

                                                                                                                                                       ——डॉ. जयश्री शुक्ल

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