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हिंदुत्व के पुरोधा पं दीनदयाल उपाध्याय

p-d-d-uसियाराम पांडेय ‘शांत’
पं. दीनदयाल उपाध्याय बहुमुखी प्रतिभा के धनी थी। पत्रकार, साहित्यकार और चिंतक तो वे थे ही, एक कुशल संगठक और समाज सुधारक भी थे। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व इस देश के लिए किसी धरोहर से कम नहीं है। बेहद सरल और सहज व्यक्तित्व। मिलनसार इतने कि जो भी उनसे मिला, उन्हीं का होकर रह गया। मथुरा के एक छोटे से गांव नगला चंद्रभान से निकल कर उन्होंने सकल भारत को दिशा देने की कोशिश की। यही वजह थी कि भारतीय जनसंघ ने उन्हें अपना अध्यक्ष बनाया। यह अलग बात है कि अध्यक्ष के रूप में उनका कार्यकाल तीन माह से भी कम रहा। मुगलसराय में एक षड़यंत्र के तहत उनकी हत्या कर दी गई थी। भले ही उनका जीवन 32 साल का रहा हो लेकिन उनके काम युगो-युगों तक हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे।

उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल स्वरूप में प्रस्तुत किया। देश को एकात्म मानववाद जैसी प्रगतिशील विचारधारा दी। हवा का रुख देखकर तो सभी चलते हैं। धारा के अनुरूप बहना तो सभी पसंद करते हैं लेकिन पं. दीनदयाल उपाध्याय कभी सुविधा का संतुलन नहीं देखते थे। धारा के प्रतिकूल चलने में अगर गंभीर कठिनाइयां भी आएं तो उन्हें कोई गुरेज नहीं होता था। समतामूलक राजनीतिक विचारधारा के प्रचार-प्रसार को उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया था और कहना न होगा कि अपनी इस मुहिम में वे बहुत हद तक सफल भी हुए। दीनदयालजी उच्च-कोटि के दार्शनिक और विद्वान थे। सांसारिक राग द्वेष और भौतिकता के प्रति माया-मोह से कोसों दूर। राष्ट्र सेवा ही उनका अभीष्ठ था। वह कभी भी स्व तक सीमित नहीं रहे।

राजनीति ही नहीं, साहित्य में भी उनकी गहन अभिरुचि थी। हिंदी और अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं पर उनका समान अधिकार था। उनके आलेख दोनों ही भाषाओं के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे। एक बैठक में ही उन्होंने चन्द्रगुप्त नाटक लिखकर देश को अपनी नाटक लेखन क्षमता का परिचय दे दिया था। यह उनके साहित्येतहास के प्रति प्रेम और लगाव का भी द्योतक है। जिस बच्चे के माता-पिता केवल सात साल की उम्र में ही कालकवलित हो गए हों, उसका जीवन कितना कष्टप्रद रहा होगा। इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। बीएससी, बीटी करने के बाद वे चाहते तो सरकारी नौकरी करके सुखमय जीवन जी सकते थे लेकिन उन्होंने समाज सेवा का जीवन जीना पसंद किया।

उन्हें लगता था कि अपने लिए तो सभी जीते हैं। इस तरह का जीवन जीकर भी क्या करना। छात्र जीवन से ही वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से सक्रिय रूप से जुड़ गए थे। कालेज छोड़ने के तुरन्त बाद वे संघ के प्रचारक बन गए। सन 1951 में अखिल भारतीय जनसंघ का निर्माण होने पर वे उसके संगठन मन्त्री बनाए गए। दो वर्ष बाद सन् 1953 में उपाध्यायजी अखिल भारतीय जनसंघ के महामन्त्री निर्वाचित हुए और 15 साल तक इस पद पर रहकर उन्होंने अपने दल की अमूल्य सेवा की। कालीकट अधिवेशन (दिसम्बर 1967) में वे अखिल भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। 11 फरवरी 1968 की रात में रेलयात्रा के दौरान मुगलसराय के आसपास उनका शव मिला।

अगर यह कहा जाए कि दीनदयाल जी जनसंघ के राष्ट्रजीवन दर्शन के निर्माता थे तो कदाचित गलत नहीं होगा। उनका उद्देश्य स्वतंत्रता की पुर्नरचना के लिए प्रयासों में अभिवृद्धि तो था ही, विशुद्ध भारतीय तत्व-दृष्टि विकसित करना भी वे तत्कालीन जरूरत समझते थे। जनसंघ के आर्थिक नीति के इस रचनाकार की अवधारणा थी कि आर्थिक विकास का मुख्य उद्देश्य सामान्य मानव का सुख होना चाहिए। विचारों की आजादी के इस युग में मानव कल्याण के लिए यूं तो अनेक विचारधाराएं हैं। इसमें अगर साम्यवाद है, पूंजीवाद है तो अन्त्योदय और सर्वोदय के विचार भी हैं लेकिन अगर चराचर जगत को संतुलित रखना है, उसे स्वस्थ व सुंदर बनाना है। मनुष्य मात्र को पूर्णता की ओर ले जाना है तो यह एक मात्र सनातन धर्म के जरिए ही संभव है। सनातन धर्म दरअसल जीवन जीने का विज्ञान है।

जीवन जीने की कला और आदर्श जीवन दर्शन है। दीनदयाल उपाध्याय का स्पष्ट मत था कि राष्ट्रीय एकता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए राष्ट्र की सांस्कृतिक एकात्मता भी आवश्यक है। अपने विचारों को उन्होंने इन शब्दों में व्यक्त किया था-‘‘भारत में एक ही संस्कृति रह सकती है, एक से अधिक संस्कृति का नारा देश के टुकड़े-टुकड़े करके हमारे जीवन का विनाश कर देगा। अतः आज लीग का द्वि-संस्कृतिवाद, कांग्रेस का प्रच्छन्न द्विसंस्कृतिवाद तथा साम्यवादियों का बहुस्ंस्कृतिवाद नहीं चल सकता। आज तक एक संस्कृतिवाद को संप्रदायवाद कहकर ठुकराया गया किंतु अब कांग्रेस के विद्वान भी अपनी गलती समझकर इस एक संस्कृतिवाद को अपना रहे हैं। इसी भावना और विचार से भारत की एकता तथा अखंडता बनी रह सकती है तथा तभी हम अपनी संपूर्ण समस्याओं को सुलझा सकते हैं।”

(राष्ट्रधर्म, शरद पूर्णिमा, वि. सं 2006)
सच की चोट सबसे बर्दाश्त नहीं होती। इस देश के असहिष्णु समाज को भी बर्दाश्त नहीं हुई। सुकरात ने सच कहा तो उसे जहर दे दिया गया। ईसामसीह ने सच कहा तो उन्हें शूली पर लटका दिया गया। सच बोलने की कीमत चुकानी ही पड़ती है। सच बोलना आसान है लेकिन सत्य की राह पर अड़े रहना, चलते रहना बेहद कठिन। हरिश्चंद्र को सत्यवादी होने की परीक्षा देनी पड़ती है। पत्नी-बेटों तक को बेचना पड़ता है। खुद बिकना पड़ता है। जो बीज गलना नहीं जानता,वह न पौध बन सकता है और न ही पेड़। छोटा होना बड़ा होने की पहली शर्त है।

पं‘ दीन दयाल उपाध्याय का राजनीतिक दर्शन का पहला सूत्र है देश की संस्कृति और सभ्यता के प्रति निष्ठा। इसको उन्होंने कुछ इन शब्दों में निरूपित किया है-‘ भारत में रहनेवाला और इसके प्रति ममत्व की भावना रखने वाला मानव समूह एक जन हैं । उनकी जीवन प्रणाली ,कला, साहित्य, दर्शन सब भारतीय संस्कृति है ।इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद का आधार यह संस्कृति है। इस संस्कृति में निष्ठा रहे तभी भारत एकात्म रहेगा।
‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भावना के विस्तार पर उनका आजीवन जोर रहा। इसमें संदेह नहीं कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता कभी हम और हमारा तक सिमटने की नहीं रही। दुनिया के तमाम देश मिट गए। उनकी संस्कृति मिट गई लेकिन अगर इसके बाद भी हमारा देश, हमारी संस्कृति सुरक्षित हो तो इकबाल जैसे किसी भी चंतक को उस पर जाज्जुब और रस्क होना लाजिमी है। इकबाल ने तो यहां तक लिखा कि सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा, कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।’ यह कुछ बात और कुछ नहीं, भारतीय संस्कृति ही है। दुनिया की किसी भी संस्कृति में देश को मां नहीं माना जाता। धरती को मां नहीं माना जाता।

भारत को अपवाद मानें तो दुनिया में एक भी देश ऐसा नहीं है, जहां नदियों को मां और पर्वतों को देवता माना जाता है। हमारी सभ्यता विश्व की सबसे अधिक उदार सभ्यता है। भारत में सभी धर्मो को समान अधिकार प्राप्त हैं । संस्कृति से किसी व्यक्ति ,वर्ग , राष्ट्र आदि की वे बातें जो उनके मन,रुचि, आचार, विचार, कला-कौशल और सभ्यता का द्योतन करती हैं, पर विचार होता है । संक्षेपण करें तो तो भारतीय संस्कृति, वसुधैव कुटुंबकम् भारतीय जीवन शैली है। भारतीय सरकारी राज्य पत्र (गज़ट) इतिहास व संस्कृति संस्करण मे यह स्पष्ट वर्णन है कि हिन्दुत्व और हिंदूइज़्म एक ही शब्द हैं तथा यह भारत के संस्कृति और सभ्यता का सूचक है। उपाध्यायजी पत्रकार तो थे ही चिन्तक और लेखक भी थे। उनकी असामयिक मृत्यु से एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि जिस धारा में वह भारतीय राजनीति को ले जाना चाहते थे वह धारा हिन्दुत्व की थी जिसका संकेत उन्होंने अपनी कुछ कृतियों में ही दे दिया था। तभी तो कालीकट अधिवेशन के बाद विश्व भर के मीडिया का ध्यान उनकी ओर गया।

उनकी पुस्तकें दो योजनाएं,राजनीतिक डायरी,भारतीय अर्थनीति का अवमूल्यन ,सम्राट चन्द्रगुप्त ,जगद्गुरु शंकराचार्य,एकात्म मानववाद और राष्ट्र जीवन की दिशा किसी राष्ट्रीय धरोहर से कम नहीं है। उनके कृतित्व पर गौर फरमाएं तो पता चलता है कि भारत में पत्रकारिता और राष्ट्रवाद एक ही धारा में प्रवाहित होने वाले जल बिंदु हैं। भारतीय पत्रकारिता ने हमेशा ही राष्ट्रवाद को मजबूती दी है। पं. दीनदयाल उपाध्याय उन पत्रकारों में से एक हैं जिन्होंने पत्रकारिता के इसी राष्ट्रवादी प्रवाह को आजीवन गति दी है। भारत की राजनीति को एक ध्रुव से दो ध्रुवीय करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले दीनदयाल उपाध्याय ने पत्रकारिता को अपने विचारों के प्रसार का माध्यम बनाया था। पत्रकारिता किस प्रकार से जनमत निर्माण करने में सहायक हो सकती है, यह दीनदयाल जी से बेहतर कोई नहीं जानता। अल्पायु में ही माता-पिता और छोटे भाई को खोने के बाद उन्होंने खुद को राष्ट्र देवता को समर्पित कर दिया था।

भारत माता को अपनी मां और यहां रहने वालों को बंधु-बांधव बना लिया था। उनके मामा ने उनसे शादी का कई बार आग्रह किया लेकिन वे बड़ी ही चालाकी से शादी के प्रस्तावों को नकार देते थे। शायद राष्ट्र की सेवा का व्रत लेकर ही वे जन्मे थे, जिस कारण सभी सांसारिक बंधनों से दूर वे केवल भारत माता के बंधन में ही रहे। उन्होंने भारतीय संस्कृति एवं राष्ट्र के लिए अथक कार्य किया। विवाह न करने को लेकर वे बड़े ही तर्कपूर्ण ढंग से अपनी बात कहा करते थे। इस संबंध में उन्होंने अपने विचार ‘जगद्गुरू शंकराचार्य’ पुस्तक में व्यक्त किए हैं- ‘हे मां पितृऋण है और उसी को चुकाने के लिए मैं संन्यास ग्रहण करना चाहता हूं।

पिताजी ने जिस धर्म को जीवन भर निभाया यदि वह धर्म नष्ट हो गया तो बताओ मां! क्या उन्हें दुख नहीं होगा? उस धर्म की रक्षा से ही उन्हें शांति मिल सकती है और फिर अपने बाबा उनके बाबा और उनके भी बाबा की ओर देखो। हजारों वर्ष का चित्र आंखों के समक्ष उपस्थित हो जाता है। भगवान श्रीकृष्ण ने धर्म की रक्षा के लिए स्वयं के जीवन को दांव पर लगा दिया, कौरव-पांडवों में युद्ध करवाया। अपने जीवन में वे धर्म की स्थापना कर गए, पर लोग धीरे-धीरे भूलने लगे। शाक्यमुनि के काल तक फिर धर्म में बुराइयां आ गईं। उन्होंने भी बुराइयों को दूर करने का प्रयत्न किया, पर अब आज उनके सच्चे अभिप्राय को भी लोग भूल गए हैं। मां! इन सब पूर्वजों का हम सब पर ऋण है अथवा नहीं? यदि हिन्दू समाज नष्ट हो गया, हिन्दू धर्म नष्ट हो गया तो फिर तू ही बता मां, कोई दो हाथ दो पैर वाला तेरे वश में हुआ तो क्या तुझे पानी देगा ? कभी तेरा नाम लेगा ?’ उनकी यह प्रार्थना ही उनके हृदय की आवाज बन गई। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का पर्याय बन गई। उन्होंने देश को एक सशक्त विपक्ष दिया। ऐसे समय में जब देश को सशक्त राजनीतिक विकल्प एवं विपक्ष की आवश्यकता थी, तब दीनदयाल उपाध्याय ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ मिलकर देश की राजनीति को दो ध्रुवीय करने का कार्य किया। उन्होंने राजनीति को समाज कल्याण के मार्ग के रूप में चुना था। एकात्म मानववाद के रचयिता दीनदयाल उपाध्याय ने गांधी के विचारों को पुनव्यार्ख्यायित किया। अंत्योदय की बात की।
दीनदयाल जी ने अपने विचारों को पत्रकारिता के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाने का कार्य किया था। वह पत्रकारिता जो आजादी के उपरांत अपने लिए किसी लक्ष्य अथवा सन्मार्ग की तलाश में थी। उसे दीनदयाल उपाध्याय ने अपनी पत्रकारिता के माध्यम से राह दिखाने का कार्य किया था।

सन् 1947 में दीनदयाल जी ने राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड की स्थापना की थी। जिसके अंतर्गत स्वदेश, राष्ट्रधर्म एवं पांचजन्य नामक पत्र प्रकाशित होते थे। राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड ने वचनेश त्रिपाठी, महेन्द्र कुलश्रेष्ठ, गिरीश चन्द्र मिश्र, अटल बिहारी वाजपेयी, राजीव लोचन अग्निहोत्री जैसे श्रेष्ठ पत्रकारों को तैयार किया था। पं. दीनदयाल ने ‘पांचजन्य‘, ‘राष्ट्रधर्म‘ एवं ‘स्वदेश‘ के माध्यम से राष्ट्रवादी जनमत निर्माण करने का महत्वपूर्ण कार्य किया था। उनके लेख पांचजन्य के घोष वाक्य के अनुरूप ही राष्ट्र जागरण का शंखनाद करते थे। राष्ट्रीय एकता के मर्म को समझाते हुए उन्होंने लिखा था-‘यदि हम एकता चाहते हैं तो भारतीय राष्ट्रीयता जो हिंदू राष्ट्रीयता है तथा भारतीय संस्कृति जो हिंदू संस्कृति है उसका दर्शन करें। उसे मानदंड बनाकर चलें। भागीरथी की पुण्यधाराओं में सभी प्रवाहों का संगम होने दें। यमुना भी मिलेगी और अपनी सभी कालिमा खोकर गंगा में एकरूप हो जाएगी।’

(पांचजन्य, 24 अगस्त, 1953)
दीनदयाल उपाध्याय ने देश में बदलाव के लिए नारे एवं बेवजह प्रदर्शनों को कभी प्राथमिकता नहीं दी। देश की समस्याओं के निवारण के लिए वह पुरुषार्थ को ही महत्वपूर्ण मानते रहे। उन्होंने एक जगह लिखा है कि आज देश के व्याप्त अभावों की पूर्ति के लिए हम सब व्यग्र हैं। अधिकाधिक परिश्रम आदि करने के नारे भी सभी लगाते हैं। परंतु नारों के अतिरिक्त वस्तुतः अपनी इच्छानुसार सुनहले स्वप्नों, योजनाओं तथा महत्वाकांक्षाओं के अनुकूल देश का चित्र बनाने, उचित परिश्रम और पुरुषार्थ करने को हममें से 95 प्रतिशत लोग तैयार नहीं है। जिसके अभाव में यह सुंदर-सुंदर चित्र शेखचिल्ली के स्वप्नों के अतिरिक्त कुछ और नहीं”

(पांचजन्य, आश्विन कृष्ण 2, वि. सं. 2007)
सन 1947 में भारत राजनीतिक रूप से स्वतंत्र हो गया था। किंतु, अंग्रेजों के जाने के पश्चात भी औपनिवेशिक संस्कृति के अवशेष भारत के तथाकथित बुर्जुआ वर्ग पर हावी रहे। इस मानसिकता को राष्ट्र के सांस्कृतिक उत्थन में बाधक बताते हुए दीनदयाल उपाध्याय ने लिखा था-‘राष्ट्रभक्ति की भावना को निर्माण करने और उसको साकार स्वरूप देने का श्रेय भी राष्ट्र की संस्कृति का ही है तथा वही राष्ट्र की संकुचित सीमाओं को तोड़कर मानव की एकात्मता का अनुभव कराती है। अतः संस्कृति की स्वतंत्रता परमावश्यक है। बिना उसके राष्ट्र की स्वतंत्रता निरर्थक ही नहीं, टिकाऊ भी नहीं रह सकेगी।‘

(पांचजन्य, भाद्रपद कृष्ण 9, वि. सं. 2006)
पं. दीनदयाल उपाध्याय ने राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रचार-प्रसार हेतु राष्ट्रधर्म प्रकाशन की स्थापना की थी। अपने इस ध्येय पथ पर वे संपूर्ण जीवन अनवरत चलते रहे। जीवन में अनेकों दायित्वों का निर्वाह करते हुए भी दीनदयाल जी ने अपने पत्रकारीय जीवन के प्रवाह को कहीं रूकने नहीं दिया था। स्वतंत्रता के पश्चात जब भारत का पत्रकारिता जगत लक्ष्यविहीन अनुभव कर रहा था, तब दीनदयाल उपाध्याय ने पत्रकारिता को उसका ध्येय मार्ग दिखलाने का कार्य किया था। हिंदुत्व, भारतीयता, अर्थनीति, राजनीति, समाज-संस्कृति आदि अनेकों महत्वपूर्ण विषयों पर उनका गहरा अध्ययन था। उन्होंने पत्रकारिता के अलावा अनेकों पुस्तकें भी लिखीं जैसे- राष्ट्र चिंतन, सम्राट चन्द्रगुप्त, भारतीय अर्थनीति- विकास की एक दिशा, एकात्म मानववाद आदि।

यह पुस्तकें राष्ट्रहित में जीवन जीने की प्रेरणा देती हैं। राष्ट्रवादी पत्रकारिता के प्रवाह को जिस प्रकार आगे बढ़ाया था वह अनुकरणीय है। उपाध्याय. पंडित दीनदयाल उपाध्याय की गणना भारतीय महापुरुषों में इसलिए नहीं होती है कि वे किसी खास विचारधारा के थे बल्कि उन्होंने किसी विचारधारा या दलगत राजनीति से परे रहकर राष्ट्र को सर्वोपरि माना। राजनीति में उच्च से उच्चतर पद पाने के अनेक अवसर उनके समक्ष थे लेकिन उन्होंने हमेशा अपने को एक राष्ट्रसेवक के रूप में ही स्थापित किया। उन्होंने भारत के लिए चिंता की और कहा कि भारत की सांस्कृतिक विविधता ही उसकी असली ताकत है और इसी के बूते पर वह एक दिन विश्व मंच पर अगुवा राष्ट्र बन सकेगा।

दशकों पहले उनके द्वारा स्थापित यह विचार आज मूर्तरूप ले रहा है। भारत की सांस्कृतिक विरासत पूरी दुनिया को प्रकाशमान कर रही है और शायद वह दिन दूर नहीं जब भारत विश्व मंच पर पूरी दुनिया को राह दिखाने वाला होगा। उनका मानना था कि कर्तव्यपूर्ति के साथ ही अधिकार स्वयं ही मिल जाता है. उन्होंने अपने जीवनकाल में एकात्म मानववाद का जो सिद्धंत त प्रतिपादित किया, वह आज दशकों बाद भी सामयिक बना हुआ है।

एकात्म मानववाद के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय का मानना था कि भारतवर्ष विश्व में सर्वप्रथम रहेगा तो अपनी सांस्कृतिक संस्कारों के कारण। उनके द्वारा स्थापित एकात्म मानववाद की परिभाषा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ज्यादा सामयिक है। उन्होंने कहा था कि मनुष्य का शरीर,मन, बुद्धि और आत्मा ये चारों अंग ठीक रहेंगे तभी मनुष्य को चरम सुख और वैभव की प्राप्ति हो सकती है। जब किसी मनुष्य के शरीर के किसी अंग में कांटा चुभता है तो मन को कष्ट होता है , बुद्धि हाथ को निर्देशित करती है कि तब हाथ चुभे हुए स्थान पर पल भर में पहुंच जाता है और कांटें को निकालने की चेष्टा करता है। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। सामान्यत: मनुष्य शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा इन चारें की चिंता करता है।

मानव की इसी स्वाभाविक प्रवृत्ति को पं. दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद की संज्ञा दी. उन्होंने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के सिद्धांत पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि संस्कृति-प्रधान जीवन की यह विशेषता है कि इसमें जीवन के मौलिक तत्वों पर तो जोर दिया जाता है पर शेष बाह्य बातों के संबंध में प्रत्येक को स्वतंत्रता रहती है। इसके अनुसार व्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रत्येक क्षेत्र में विकास होता है। संस्कृति किसी काल विशेष अथवा व्यक्ति विशेष के बन्धन से जकड़ी हुई नहीं है, अपितु यह तो स्वतंत्र एवं विकासशील जीवन की मौलिक प्रवृत्ति है। इस संस्कृति को ही हमारे देश में धर्म कहा गया है। जब हम कहतें है कि भारतवर्ष धर्म-प्रधान देश है तो इसका अर्थ मजहब, मत या रिलीजन नहीं, अपितु यह संस्कृति ही है। उनका मानना था कि भारत की आत्मा को समझना है तो उसे राजनीति अथवा अर्थ-नीति के चश्मे से न देखकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही देखना होगा। भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति द्वारा ही होगी।

समाज में जो लोग धर्म को बेहद संकुचित दृष्टि से देखते और समझते हैं तथा उसी के अनुकूल व्यवहार करते हैं, उनके लिये पं. दीनदयाल उपाध्याय की दृष्टि को समझना और भी जरूरी हो जाता है। वे कहते हैं कि विश्व को भी यदि हम कुछ सिखा सकते हैं तो उसे अपनी सांस्कृतिक सहिष्णुता एवं कर्तव्य-प्रधान जीवन की भावना की ही शिक्षा दे सकते हैं, राजनीति अथवा अर्थनीति की नहीं। उसमें तो शायद हमको उनसे ही उल्टे कुछ सीखना पड़े। अर्थ, काम और मोक्ष के विपरीत धर्म की प्रमुख भावना ने भोग के स्थान पर त्याग, अधिकार के स्थान पर कर्तव्य तथा संकुचित असहिष्णुता के स्थान पर विशाल एकात्मता प्रकट की है। इनके साथ ही हम विश्व में गौरव के साथ खड़े हो सकते हैं। पं. दीनदयाल उपाध्याय के विचारों को आत्मसात करने में ही इस देश का कल्याण है। उसे मजहबी चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए।

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