लखनऊ। उत्तर प्रदेश जनसंख्या के लिहाज से देश का सबसे बड़ा राज्य है। पिछले 15 वर्षों के दौरान जहां यहां की जनसंख्या में 25 प्रतिशत का इजाफा हुआ है, वहीं दूसरी ओर प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं में 08 प्रतिशत की गिरावट आई है।
अगर हम प्रदेश के गांवों और छोटे शहरों की बात करें तो वहां पिछले 25 वर्षों में जनसंख्या वद्धि की दर 51 प्रतिशत रही, जबकि प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं में महज 02 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है।
ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा (आरएचएस) 2015 के आंकड़ों के मुताबिक पिछले 25 वर्षों में एक के बाद एक आयी सभी सरकारों ने लोगों को सस्ता और सुलभ इलाज प्रदान कराने की प्राथमिक आवश्यकता को बेहद नजरअन्दाज किया है।
यही वजह है कि देश में बीमारियों से हुई मौतों के मामलों में उत्तर प्रदेश बाकी राज्यों से कहीं आगे है। देश में टाइफाइड से हुई मौतों में से 48 प्रतिशत मौतें उत्तर प्रदेश में होती हैं।
इसी तरह कैंसर से मरने वाले लोगों में यूपी की भागीदारी 17 प्रतिशत है, जबकि टीबी से मारने वाले कुल लोगों में 18 प्रतिशत लोग उत्तर प्रदेश से होते हैं। इसके साथ ही उत्तर प्रदेश में नवजात शिशुओं की औसत आयु 4 वर्ष है जबकि बिहार में 5 वर्ष और हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में यह आयु 7 वर्ष है।
प्रसव के समय मरने वाली महिलाओं (एमएमआर) में उत्तर प्रदेश का स्थान असम के बाद दूसरा है। वर्ष 2015 में यहां हर एक लाख महिलाओं में 285 महिलाओं ने बच्चा जनने के दौरान अपनी जान गंवाई।
हैरानी वाली बात है कि केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा चलाई जाने वाली विभिन्न स्वास्थ्य योजनाओं के बावजूद भी 62 प्रतिशत प्रतिशत से अधिक महिलाएं प्रसव से पूर्व मिलने वाली स्वास्थ्य सेवाओं से महरूम हैं।
प्रदेश में गर्भवती महिलाओं की दयनीय स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज़ादी के 72 सालों बाद भी यहां 42 प्रतिशत महिलाओं को प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं है।
इसी तरह नजदीक में स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध नहीं होने के कारण उत्तर प्रदेश में अभी भी 1.5 मिलियन प्रसव घर पर ही होते हैं। 61 प्रतिशत मामलों में प्रसव के समय किसी प्रशिक्षित दाई के अभाव में जच्चा-बच्चा दोनों की जान को खतरा होता है।
इसके साथ ही जन्म से पहले पांच सालों के दौरान शिशु मृत्यु होने के मामले में उत्तर प्रदेश देश में पहले स्थान पर है। यहां जन्मे 1000 बच्चों में से 64 बच्चे पांच साल की आयु पूरी होने से पहले ही मर जाते हैं। प्रति 1000 बच्चों पर जन्म के एक महीने के भीतर 35 बच्चे मरते हैं तो 50 बच्चे एक साल भी पूरा नहीं कर पाते हैं।
वर्ष 2013 की रिपोर्ट के मुताबिक विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ), केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा चलाये जा रही विभिन्न मुफ्त टीकाकरण योजनाओं के बावजूद भी यहां 50 प्रतिशत बच्चों का पूरी तरह से टीकाकरण नहीं हो पाता है।
महत्वपूर्ण बात है कि वर्ष 2006 से लेकर 2014 तक विभिन्न सरकारी और गैर सरकारी संगठनों द्वारा किए गए सर्वेक्षणों में उत्तर प्रदेश की गिनती स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में सबसे पिछड़े 8 राज्यों में होती थी।
इसी वजह से इस राज्य को स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के लिए विशेष पैकेज मिलता रहा है। हालांकि इन सबके बीच सूबे की अखिलेश यादव सरकार स्वास्थ्य सेक्टर में बड़े पैमाने पर सुधार का दावा करती है।
मेडिकल काॅलेजों की संख्या में इजाफे से लेकर एमबीबीएस पाठ्यक्रमों की सीटों में वृद्धि, 102 व 108 एम्बुलेंस सेवा, नए चिकित्सालयों का निर्माण और सुविधाओं में विस्तार को लेकर स्थिति सुधरने की बात कही जाती रही है, लेकिन बड़ी हकीकत यही है कि प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं को अभी भी लम्बा सफर तय करना है।
सिर्फ अस्पताल खोलने से कुछ नहीं होगा, डाॅक्टर मरीजों को सही तरीकें से देखें, दवाई सुविधाजनक तरीके से मिलें, इस पर ध्यान देना जरूरी है।
जब शहरी क्षेत्र में ही आये दिन मरीजों को बेड होने के बावजूद लौटाने की खबरें सुर्खियां बनती हों, तो ग्रामीण इलाकों की भयावह स्थिति का अन्दाजा लगाया जा सकता है।