गायत्री मंत्र सामान्य मंत्र नहीं है। गायत्री मंत्र की साधना से ही साधक संसार में सभी को अपने मनोनुकूल कर सकता है। सारे ग्रह-नक्षत्र उसके अनुकूल हो जाते हैं। गायत्री मंत्र ही सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और संहार का कारक है। जीवन और ब्रह्मांड की उत्पत्ति का आधार है। गायत्री रहस्योपनिषद में गायत्री अर्थात व्याहृति से ही अग्नि, वायु और सूर्य की उत्पत्ति मानी गई है। तीन प्रकार की अग्नियां-आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि की उत्पत्ति भी गायत्री से ही हुई है। तीन वेद- ऋक, यजु और साम, तीन लोक पृथ्वी, आकाश और पाताल की व्युत्पत्ति का आधार भी व्याहृति को ही माना गया है। तीन काल-सुबह, दोपहर, शाम, तीन गुण-सत्व, रज, तम, तीन आदित्य-वसु, रुद्र और आदित्य,तीन अवस्था-जागृति, सुसुप्ति और स्वप्न, तीन छंद- गायत्री, त्रिष्टुप ,जगति,तीन शक्ति- इच्छा, ज्ञान, क्रिया,तीन ब्रह्म- स्वराट, विराट और वषट के प्रादुर्भाव की वजह भी गायत्री ही हैं। त्रिपदा गायत्री यानी जीवन की तीन समिधाएं। ये समिधाएं हैं बचपन, यौवन और बुढ़ापे की। इन तीनों ही समिधाएं गायत्रीमय हो जाएं तो जीवन यज्ञ पूर्ण हो जाता है। इन तीनों अवस्थागत समिधाओं को जानना-समझना जरूरी है। ऋग्वेद में गायत्री के तीन चरणों का जिक्र है। रुद्रयामल तंत्र में भी गायत्री को तीन चरणों वाली कहा गया है। विश्व की स्वामिनी बताया गया है और तीन अक्षर ओम वाली करार दिया गया है। चौबीस अक्षर वाली गायत्री अभीष्ठ फल प्रदात्री निरूपित किया गया है।
‘गायत्री त्रिपदा देवी त्र्यक्षरी भुवनेश्वरी। चतुर्विंशाक्षरा विद्या सा चैवाभीष्ट देवता।’ भगवान की उत्पत्ति शब्द रूप में हुई है। शब्द ही ब्रह्म है। प्रथम शब्द जो इस सृष्टि में झंकृत हुआ, वह ओम है। ओम से जो तीन धाराएं निकलीं, वही त्रिपदा है। इन्हीं से तीन लोकों का प्रादुर्भाव हुआ। तीन गुण सत, चित और आनंद की नि:सृति भी ओम से ही हुई। ईश्वर का भी एक नाम सच्चिदानंद है। ओम की यही तीन धाराएं त्रिदेवियों की उत्पत्ति की कारक हैं। ओंकार से व्याहृति हुई। व्याहृति से गायत्री, गायत्री से सावित्री, सावित्री से सरस्वती , सरस्वती से वेद और वेद से लोकों की उत्पत्ति हुई। ‘ ओंकाराद् व्याहृतिर्भवति, व्याहृतितो गायत्रीर्भवति। गायत्र्या: सावित्री भवति, सावित्र्या: सरस्वती भवति, सरस्वत्या: वेदा भवन्ति, वेदेभ्यो लोका:।’ गंगा, यमुना और सरस्वती जब आपस में मिलती हैं तो पवित्र संगम होता है। जीवन में तीन का बहुत महत्व है। तीन लोक, तीन देव,तीन देवियां, तीन यज्ञाग्नि, तीन गुण। ओंकार में अ, उ,म तीन वर्ग हैं। व्याहृतियों में तीन भाग हैं। भू: भुव: और स्व:। यह त्रिधा प्रक्रिया ही दरअसल गायत्री महाशक्ति है। गायत्री उपासना के जो तीन विशेष फल हैं वे हैं आत्मबल, बुद्धि बल और समृद्धि बल की प्राप्ति। तीनों भुवनों को भगवान विष्णु के तीन चरण कहा गया है। ऋग्वेद में कहा गया है कि ‘ इदं विष्णुविचक्रमे त्रेधा निदधे पदम्। ’ तैत्तरीय आरण्यक में तो यहां तक कहा गया है कि व्याहृतियों का रहस्य जानने वाला देवताओं से सहज ही बलि का पुण्यफल प्राप्त कर लेता है। तांडव ब्राह्मण और शंखायन ब्राह्मण ग्रंथ में व्याहृतियों की उपासना को समस्त कामना और समृद्धियों का प्रदाता ही नहीं, बल्कि शारीरिक व्याधियों का उपशामक भी कहा गया है। गायत्री मंत्र त्रिविध विशेषताओं से युक्त है। वह शक्तिपरक, अर्थपरक तो है ही, प्रार्थनापरक भी है। गायत्री मंत्र के सभी 24 अक्षर अत्यंत पुनीत हैं। अक्षर चौबीस परम पुनीता। तिनमें बसैं शास्त्र, श्रुति, गीता। महामंत्र जितने जग माहीं, कोउ गायत्री सम नाहीं। इस संसार में जितने भी ग्रह, नक्षत्र गतिमान है,सबका बल गायत्री ही है। ग्रह, नक्षत्र ब्रह्मांड घनेरे। सब गतिमान तुम्हारे प्रेरे। सकल सृष्टि की प्राण विधाता। पालक, पोषक, नाशक त्राता। यह इस बात का प्रमाण है कि गायत्री सामान्य मंत्र नहीं है। इससे संपूर्ण विश्व का नियमन होता है। भू: भुव: स्व: अगर बीजमंत्र हैं तो शेष 24 अक्षरों वाले तीन चरणों को अर्थपरक प्रार्थना परक माना गया है। इस मंत्र की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें सदबुद्धि की प्रार्थना की गई है। गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है कि ‘जहां सुमति तंह संपति नाना। जहां कुमति तंह विपति निदाना।’ मतलब गायत्री सुमति प्रदायिनी है। अगर गायत्री मंत्र में वर्णित बीजमंत्र को अपवाद मानें तो उसके तीन चरणों में कर्मयोग, ज्ञान योग और भक्ति योग का प्रतिपादन है। योग चूड़ामणि में तो कुंडलिनी शक्ति से उत्पन्न हुई गायत्री को प्राणधारिणी शक्ति कहा गया है। इस महाविद्या को जो जानता है,वही ज्ञानी है। ‘कुडलिन्यां समुद्भूता प्राण धारिणी। प्राणविद्या महाविद्या यस्तां वेत्तिस वेदमृत। ’भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को महाभारत के युद्ध में दिव्य नेत्र प्रदान किए थे, वे दिव्य नेत्र और कुछ नहीं, मां गायत्री की शक्ति थी। गायत्री साधक के लिए इस संसार में दुर्लभ कुछ भी नहीं होता। इसलिए योग्य गुरु के निर्देशन में गायत्री उपासना से साधक का दसों दिशाओं में मंगल होता है।
———–सियाराम पांडेय”शांत’