ऐसी कोई चौखट नहीं बनी जहाँ वर्दीधारी अपना दर्द रख सके।
ना कोई ऐसा कंधा जहाँ वो अपने आँसू टिका सके।
आप सोचिए —
अगर एक मच्छर आपको काट ले तो आप रात भर बेचैनी में करवटें बदलते हैं।
यहाँ एक पुलिसकर्मी 24 से 48 घंटे तक, बिना नींद, बिना आराम, बस ड्यूटी पर खड़ा रहता है।
क्या आपने कभी किसी पुलिसकर्मी की आँखों में झाँक कर देखा है?
वो आँखें बहुत कुछ कहती हैं।
थकान से लथपथ, सूनी-सूनी आँखें…
ना शिकायत, ना उम्मीद।
यह तस्वीर उसी दर्द की गवाही देती है —
बांह पर बैठे मच्छर उसका खून चूसते हैं,
फिर भी वो मुस्कराता है।
क्या इसके जिस्म में जान नहीं?
क्या ये लोहे का बना है?
नहीं, साहब।
ये भी एक इंसान है।
मगर इसे इंसान समझने वाला कोई नहीं।
सिस्टम ने, समाज ने, मच्छरों ने और कभी-कभी हम सभी ने —
इसका खून पी लिया है।
कड़वा सच यही है —
इसके जिस्म में खून से ज़्यादा “कर्तव्य” बहता है।
हर मौसम में सड़क पर खड़ा ये सिपाही —
आपकी सुरक्षा के लिए अपनी नींद, भूख और यहाँ तक कि अपने जज़्बात तक कुर्बान कर देता है।
फिर भी बदले में —
मिलती है दुत्कार, शिकायतें और झूठे आरोप।
क्या आपने कभी उसे धन्यवाद कहा?
क्या किसी ने उसकी पीठ थपथपाई?
शायद नहीं…
लेकिन फिर भी वो अगली सुबह आपकी सुरक्षा में तैनात मिलेगा।
क्योंकि ये वर्दी पहनने वाला इंसान नहीं,
एक “निस्वार्थ कर्मयोगी” है।
उसके भी सपने हैं,
एक माँ है जो दरवाजे पर खड़ी राह देखती है।
एक पत्नी है जो हर फोन कॉल पर सिहर जाती है।
एक बच्चा है जो रात को सवाल करता है —
“पापा कब आएंगे?”
लेकिन किसी को फर्क नहीं पड़ता।
वर्दी पहन लेने के बाद दुनिया भूल जाती है कि उसके पीछे एक दिल भी धड़कता है।
वो रोता भी है,
थकता भी है,
चुपचाप अपने आंसू निगलता भी है।
क्योंकि उसे सिखाया गया है —
“वर्दीवाले रोते नहीं हैं।”
लेकिन सच ये है —
उसकी आँखों में भी एक समुंदर होता है,
जो हर रोज़ भीतर ही भीतर बहता है।
और एक दिन वो थक कर इतना चुप हो जाता है,
कि उसका दिल भी धड़कना छोड़ देता है।
समाचार में बस एक लाइन बनती है —
“एक और पुलिसकर्मी ड्यूटी के दौरान शहीद हो गया।”
बस।
इतनी सी पहचान, इतने बड़े जीवन की।
अगली बार किसी पुलिसवाले को देखें,
तो एक बार उसकी आँखों में झाँक कर देखिए।
शायद वहाँ कोई आंसू मिल जाए,
जो रोना चाहता है…
मगर रो नहीं सकता।
क्योंकि वो इंसान है,
जो इंसान कहलाने से भी वंचित है।
✍️ लेखक — अभिषेक कुमार, पत्रकार | लखनऊ, मलीहाबाद