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जर्रा-जर्रा कहता है ‘कटरों’ की कहानी, यहां दफ्न हैं इतिहास के कई राज

गूगल किया तो कटरा शब्द मुझे सीधे वैष्णो देवी ले गया। कई बार कोशिश की लेकिन सर्चिंग स्टेशन वैष्णो देवी से दिल्ली के कटरों तक नहीं पहुंच सका। तलाश थी दिल्ली में उन कम जाने से ऐतिहासिक विरासत में लिपटे शाहाजहांनाबाद के कटरों की। बहरहाल दैनिक जागरण के रिपोर्टर की तलाश उन्हें कटरों तक ले गई। जहां उन्हें कई रोचक किस्से-कहानियां और जानकारियां मिलीं। और हमारा सफर गली-कूचों से आगे बढ़ते हुए कटरा तक पहुंच गया।

कुछ ऐसी हैं कटरा की गलियां

पीली चटख रोशनी में आड़ी तिरछी गलियां रोशन नजर आ रही हैं। गलियों के दोनों तरफ खुली दुकानें जो रोशन हैं पीली-सफेद रोशनी से। आते-जाते लोगों का रेला जो कभी कंधे टकराने तो कभी पांव एक-दूसरे से छू जाने पर देखते हैं और फिर चंद सेकेंड की बेतरतीब सी खामोशी चेहरे पर मुस्कान के साथ विदा ले लेती है। कदम खुद-ब-खुद चल पड़ते हैं पुरानी दिल्ली की गलियों में शान से खड़ी स्मारकों, ऐतिहासिक इमारतों एवं जिंदगी संग कदमताल मिलाकर चलती गलियों, कूचों एवं कटरों की तरफ…। इतिहासकार आरवी स्मिथ कहते हैं कि कटरा दरअसल कुछ मकानों एवं दुकानों का समूह होता है। यह हवेलियों का ही हिस्सा होता है। पहले हवेलियां बहुत बड़ी होती थीं, वर्तमान में यही हवेलियां धीरे-धीरे कटरे में तब्दील होती चली गईं। यहां लेन और सर्विस लेन भी एक हवेली से दूसरी हवेली जाने के लिए बने थे। जो बाद में हवेलियों में थोड़ी बहुत बदलाव के साथ रास्तों में तब्दील होते चले गए।

हर किसी का यहां आशियाना

कटरा नील स्थानीय निवासी राहुल कहते हैं कि यहां कटरे के नाम को लेकर कई कहानियां प्रचलित है। प्रमुख यह है कि जब शाहजहां ने अपनी राजधानी आगरा से दिल्ली स्थानांतरित की तो सिर्फ शाही महल के पदाधिकारी, सेना के जवान ही नहीं आए बल्कि उनके साथ समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों ने भी शाहजहांनाबाद को अपना आशियाना बनाया। बनिया समाज के लोग बड़ी संख्या में यहां आए और कटरा नील में बसे। इसका नाम भी उनके आराध्य नील कंठ महादेव के नाम पर ही रखा गया है। यह पहले भी कारोबारी हब रहा। वर्तमान में कटरा नील कपड़े के होलसेल मार्केट के रूप में जाना जाता है। यहां दुकानों की बनावट, नक्काशी मुगल एरा की ही बनी हुई है। दिल्ली में रेमंड की पहली फ्रेंचाइजी भी इसी कटरे में खुली थी। आज यह लहंगा, चुन्नी, सलवार, सूट की खरीदारी के लिए जाना जाता है। यहां काली मां का मंदिर भी बहुत प्रसिद्ध है। लेकिन बाजार से इतर इसकी एक पहचान आजादी के मतवालों की वीरता भरी कहानियों से भी है। 9 अगस्त सन् 1942 के दिन कटरा नील के बाहर एक प्रदर्शन हुआ था। जिसकी अगुवाई नानक चंद मिश्र एवं इनके सहयोगी कर रहे थे। ब्रितानिया हुकूमत ने गोली के दम पर विरोध प्रदर्शन को दबाने की कोशिश की। नानक चंद को गोली लग गई। आजादी के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने स्वर्गीय नानक चंद मिश्र को मरणोपरांत स्वतंत्रता संग्राम में योगदान के लिए ताम्रपत्र से सम्मानित भी किया।

अशर्फी मिलती थी यहां

बाजार में ही कुछ दुकानदा बताते हैं कि कटरा अशर्फी का नाम 18वीं सदी के नवाब की एक बेगम पर रखा गया है। यही नहीं बेगम के नाम पर एक मस्जिद भी यहीं बनी हुई है। जबकि दूसरी कहानी नाम पर आधारित है। कई दुकानदारों का कहना है कि कटरा अशर्फी दरअसल अशरफियों के बेचने की वजह से नाम पड़ा। मतलब साफ है यहां पहले अशर्फी भी मिलती थीं।

शाहजहां के गार्ड से पड़ गया ये नाम

आरवी स्मिथ कहते हैं कि पहले इसे कटरा चौबदार बुलाया जाता था। ये नाम शाहजहां के सिक्योरिटी गार्ड की वजह से पड़ा था जो यहीं कटरे में ही रहते थे। बाद में यहां कारोबारी गतिविधियां बढ़ी और नाखून (चोबस) वालों की अधिकता हो गई। फिर स्वाभाविक था कि बोलचाल में नाम भी बदलता चला गया और इस तरह कटरा चौबान अस्तित्व में आया। यहां हार्डवेयर की कई और दुकानें भी है। इसी तरह कटरा नबाव, निजाम के नाम पर पड़ा है।

कटरा निजाम उल-मुल्क

यह जामा मस्जिद के पास स्थित है। पास ही चिकन मार्केट है। यहां एक मस्जिद भी है, जिसे मछली वालों की मस्जिद कहकर भी पुकारा जाता है। कटरा निजाम उल मुल्क इसी मस्जिद के पीछे हैं। स्थानीय दुकानदार अकरम कहते हैं कि कटरे का नाम हैदराबाद निजाम के परिवार के लोगों के यहां रहने के कारण पड़ा। कटरे को मुंशी जहूरउल-हसन (कौमी प्रेस) नाम से भी पुकारा जाता है। कौमी प्रेस नाम के पीछे की कहानी यह है कि यहां धार्मिक किताबें छपती थीं। जिस इमारत में कभी किताबें छपती थीं वो इमारत प्रिंटिंग प्रेस के उर्दू बाजार में स्थानांतरित होने के बाद अब गेस्ट हाउस में तब्दील हो चुकी है। आजादी के बाद ये कटरा मछली मार्केट में तब्दील हो गया।

जिमनास्ट रहते थे यहां

रोड साइड जिमनास्टों के लिए कभी यह शब्द प्रयोग किया जाता था। चांदनी चौक में श्रीवालान के पीछे स्थित इस कटरे में मुगलिया दौर में जिमनास्ट रहते थे। यहां एक बड़ी दिलचस्प कहानी चर्चित है। कहते हैं एक बार एक नट का भूत इलाके में खूब सक्रिय था। वह लोगों को तो नुकसान नहीं पहुंचाता था, लेकिन फलों के पत्ते खा जाता था। कई फल के पत्ते तो बचते भी नहीं थे। यह भी संयोग है कि रस्किन बांड ने एक युवा ब्राम्हण लड़के की कहानी लिखी है जो पीपल के पत्ते खाता है।

गौरी शंकर के नाम पर पड़ा ये नाम

चांदनी चौक में प्रसिद्ध गौरी शंकर मंदिर के नाम पर इस कटरे का नाम पड़ा है। इस मंदिर को मराठा शासक अप्पन ने बनवाया था। ऐसी कहानी जनसामान्य में प्रचलित है कि एक बार शासक के सपने में एक लड़की ने दर्शन दिया। उसके पास शिवलिंग था। उसने कहा कि यदि जिंदगी एवं मरने के बाद वो शांति चाहता है तो एक मंदिर बनवाना चाहिए। मंदिर में स्थापित शिवलिंग 800 साल पुराना माना जाता है। कटरा सुभाष भी स्थानीय लोग सुभाष चंद्र बोस के कभी यहां आने की वजह से नामकरण बताते हैं। 

कटरा मल्लाह

नाम के अनुरूप ही इस कटरे में कभी मल्लाह रहते थे। इन मल्लाहों के कंधे पर ही मुगल बादशाहों को नदी पार कराने की जिम्मेदारी थी। लिहाजा, कटरा ही मल्लाह के नाम से प्रसिद्ध हो गया। यह लाल किले के भी बहुत पास है। इस कटरे से गुजरते हुए आज भी मुगल काल की भव्यता का एहसास होता है। इमारतों की डिजाइन, खिड़कियां, संकरी गलियां पुराने दिनों की यादें ताजा कर देती है। आजादी के दरम्यान सन 1947 में यहां बड़े पैमाने पर लोगों का स्थानांतरण हुआ। यहां लोगों ने खुले दिल से शरणार्थियों का स्वागत किया था। स्थानीय निवासी बताते हैं कि पहले यहां एक मियां साहब होते थे जो कटरे के प्रमुख थे। आज भी उन्हीं के सबसे ज्यादा कटरे यहां है।

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