बंधु कुशावर्ती
अमृतलाल नागर का जन्म यूं तो आगरा के गोकुलपुरा में 17 अगस्त, 1916 को हुआ था किंतु उनका लालन-पालन ही नहीं, पूरा मानस लखनऊ के वातावरण में बना और विकसित हुआ। लखनऊ के चौक में ही उनका बचपन बीता। कालीचरन हाईस्कूल में उन्होंने हाईस्कूल तक पढ़ाई की। 11वीं से आगे की पढ़ाई के लिए लखनऊ के क्रिश्चियन कॉलेज में दाखिला लिया किंतु, परिस्थितिवश यहां से उनकी पढ़ाई जो छूटी तो लखनऊ का चौक और उसके आस-पास का जन-जीवन, लखनवी तहजीब के बीच रहते हुए उन्होंने भविष्य में लेखक ही बनने का निश्चय किया। सर्वविदित है कि अमृतलाल नागर हिंदी में अपनी तरह के अकेले और अलबेले लेखक के रूप में पहचाने जाकर विख्यात हुए।
अमृतलाल नागर की जन्मशताब्दी का आरंभ 17 अगस्त, 2015 को उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में आयोजित हिंदी संस्थान के कार्यक्रम से हुआ था। यह सुखद है कि साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली 20-21 अगस्त 2016 में अमृतलाल नागर शतवार्षिकी शीर्षक से लखनऊ में दो दिनों का बहुविध आयोजन कर रही है। इसमें लखनऊ समेत देश से हिंदी और हिंदीतर भाषी अधिसंख्य लेखक भागीदारी कर रहे हैं। नागर जी के निधन के बाद उनके कनिष्ठ पुत्र शरद नागर की हार्दिक इच्छा रही है कि वे अपने जीवन में नागर जी की जन्मशती के आयोजनों को होता हुआ देखें। इसके लिए शरद जी ने 2013-14 के दौरान नागर जी की जन्म शताब्दी के आयोजनों की बहुत सुचिंतित रूपरेखा भी बनाई थी और उससे साहित्य अकादेमी, हिंदी संस्थान आदि अनेक संस्थाओं तथा साहित्यकारों को अवगत भी कराया था किंतु दुर्भाग्य कि मई 2014 में निधन हो जाने से शरद जी की आकांक्षा पूरी नहीं हो सकी। साहित्य अकादेमी के दो दिवसीय आयोजन भले ही नागर जी के सौवें और 101वें वर्ष के प्रथम चरण में लखनऊ में ही आयोजित हो रहे हैं जो नागर जी की जन्म शताब्दी के अन्यान्य आयोजनों के उत्प्रेरक बनकर उन्हें अग्रगामिता प्रदान करेंगे। इस आयोजन की रूपरेखा प्रथम दृष्टया नागर जी के लेखकीय अवदान के हर पक्ष को छह सत्रों में समेटने की लगती है। परंतु नागर जी का संपूर्ण जीवन और लेखन इन संगोष्ठियों के जरिये कितना उभर कर और समुचित रूप से सामने आ पाएगा,यह तो वक्ताओं की चर्चाओं तथा उनके विमर्शों से ही सामने आएगा। पर हां, नागर जी के शब्दों में साहित्य अकादेमी लखनऊ की सरजमीं पर ढैय्या झू लेने का काम तो कर ही रही है।
अमृतलाल नागर सन् 1928 में साइमन गो बैक के विरोध जुलूस में घर में किसी को बताए बिना चारबाग में आकर शामिल हो गए। जुलूस के जनसैलाब में पड़कर पुलिस की बेरहम लाठियों और घोड़ों की टापों से बचकर वे कैसे निकले और वापस घर पहुंचे, इसे उन्होंने अपने एक आत्मकथात्मक लेख में दर्ज किया है। महत्वपूर्ण यह है कि बारह वर्ष की बाल्यावस्था में यहीं से उनकी कविता नि:सृत हुई और उस समय चौक से छपते आनंद साप्ताहिक में प्रकाशित हुई। यह कविता ब्रज भाषा के एक छंद में थी जिसकी निम्नांकित पंक्तियां ही नागर जी को याद रह गई थीं-
कब लौं कहौ लाठी खाया करैं,
कब लौ कहौ जेल भरा करिये..
अमरित पर ईश दया करिये।
इससे पहले का अमृतलाल नागर का बचपन, बड़ों के बेहद कसे-बंधे अनुशासन के बीच विकसित हुआ था। चार-पांच वर्ष की उम्र तक तो वह घर से बाहर अकेले निकलकर पास-पड़ोस के बच्चों से हिलने-मिलने और उनके साथ बोलने-खेलने को तरस कर रह गए। हां, दादी और दादा का अकूत लाड़-प्यार उन्हें जरूर मिलता रहता था पर बगैर नौकर को साथ लिए घर से बाहर वे कतई नहीं जा सकते थे।
चौक के मुख्यमार्ग की जिस कोठी में उनके परिवार की रिहाइश थी, उसके नीचे आवाजाही की चहल-पहल तो रहती ही थी, इक्के-तांगे भी अपनी रफ्तार से चला करते थे और कुजड़ों- सब्जी वालों की दुकानदारी के नाते उनकी आम बोलचाल की गाली-गलौज भी खूब होती थी। घर के ऊपरी मंजिल के बरामदे से बालक अमृत यह सब बहुत एकाग्रता से देखता-सुनता था।
एक दिन पिता के सामने अपनी अबोधता में उसने वहीं फोहश- भदेस गालियां बोल गया। तड़ाक से तमाचा जमाते हुए पिता गुस्से से बोले- गालियां बकता है। खबरदार, फिर अगर यह सब जबान से निकला तो बेतरह तमाचे पड़ेंगे। उस दिन बालक अमृत को पता चला कि अभी जो कुछ वह बोल गया था, उसे गालियां कहा जाता है।
इन कुछ प्रसंगों से पता चलता है कि बालक अमृतलाल नागर बचपन से ही किन परिस्थितियों में रहा। क्या जाना और क्या सीख पाई और- आजादी के आंदोलन की बहुत समझदारी न होने पर भी यही बालक अमृत 12 वर्ष की उम्र में साइमन गो बैक के जुलूस में शामिल होकर जीवन की पहली कविता लिख गया था। परंतु बात इतनी ही नहीं है। बचपन से ही बालक अमृत को एक तो आचार्य श्यामसुंदर दास जो उस समय कालीचरन हाईस्कूल के हेडमास्टर थे, समेत अनेक साहित्यिक जनों और मनीषियों का सान्निध्य मिला।
बचपन में ही उसने सरस्वती पत्रिका के अलावा कई मशहूर अखबार अपने घर में ही पढ़े। इसके साथ ही बालक अमृत ने गहरी पर्यवेक्षण दृष्टि भी विकसित की। अमृतलाल नागर प्रारंभिक लेखन के समय के बांग्ला लेखक शरतचंद्र चटर्जी से बहुत प्रभावित थे, इस हद तक कि वे तीन बार कलकत्ते और शरत बाबू के गांव तक जाकर उनसे मिल आए थे। तब शरत बाबू ने कहा था जो भी लिखो, अपने अनुभव से लिखो।
यह वाक्य युवा लेखक अमृतलाल नागर के लिए गुरुमंत्र बन गया। इसी तरह सन 35 में अमृतलाल नागर ने अपना पहला कहानी संकलन वाटिका खुद छपवाकर पे्रमचंद को भेजा तो पत्र की प्रतिक्रिया में प्रेमचंद ने लिखा – मैं तुमसे रियलिस्टिक चाहता हूं। इस वाक्य को नागर जी ने अपने लेखन का दूसरा गुरुमंत्र माना कि अनुभव किए हुए के साथ जो लिखो, वह यथार्थ भी हो। अमृतलाल नागर का, आगे का पूरा लेखन इन्हीं दो गुरु मंत्रों का अपने तरह से किया हुआ विकास और विस्तार है।
—- बंधु कुशावर्ती