सिर्फ नारों से ही विकास नहीं होते। उसके लिए श्रम सीकरों, इच्छा शक्ति, प्रभावी योजना और उसके सफल क्रियान्वयन की भी जरूरत होती है। नारों से अगर देश का विकास होना होता तो कब का हो चुका होता। जिन दिनों देश में साक्षरता अभियान की शुरुआत हुई थी। उस समय खूब कार्यशालाएं हुई। साक्षरता की हर प्रदेश में अलग विंग खोली गई। उसमें बहुविध प्रशिक्षण दिए गए। देश भर में साक्षरता को प्रमोट करने वाले नारे गढ़े गए। इनमें से चालीस नारे बेहद पसंद किए। उनमें पहला नारा था।‘ बापू जी का था यह कहना, अनपढ़ बनकर कभी न रहना। क्या इस देश ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की बातें मान लीं। पूरा देश पढ़-लिख गया। स्वाधीन भारत में केंद्र और राज्य सरकारों के स्तर पर सभी को पढ़ने-लिखने की सुविधा उपलब्ध
हो गई, यह अपने आप में बेहद अहम सवाल है।
हो गई, यह अपने आप में बेहद अहम सवाल है।
डॉ. भीमराव अंबेडकर भी कहा करते थे कि शिक्षा विकास की कुंजी है तो क्या यह कुंजी हर आम और खास के पास आ गई है, इस सवाल का जवाब इस देश के नेताओं के पास नहीं है। कोई भी राजनीतिक दल ऐसा नहीं है जो शिक्षा की बेहतरी की वकालत न करता हो लेकिन इसके बावजूद देश में निरक्षरों की तादाद सकल आबादी की एक चौथाई है। सब पढ़े-सब बढ़े और शिक्षित परिवार-सुखी परिवार का नारा तो खूब लगाया गया लेकिन इसे अमली जामा पहनाने की दिशा में काम नहीं किया गया। उत्तर प्रदेश सरकार का दावा है कि उसके पास 35 हजार से अधिक प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालय हैं लेकिन क्या यह उत्तर प्रदेश के आबादी मानकों पर खरे उतरते हैं। कहीं विद्यालय हैं तो भवन नहीं और कहीं भवन हैं भी तो इतने जर्जर कि उनमें बैठने में भी डर लगता है। न छात्र पढ़ सकते हैं और न अध्यापक पढ़ा सकते हैं। उनका ध्यान तो जर्जर छत पर रहता है कि कहीं गिर-गिरा न जाए। कहीं पांच कक्षाओं में पढ़ाने के लिए बस एक शिक्षक है तो कहीं दो या तीन शिक्षक। अध्यापकों की कमी पूरी करने के लिए शिक्षामित्र रखे गए लेकिन उनकी योग्यता पर ही सवाल खड़े हो गए। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने गत दिनों अखिलेश सरकार को आदेश दिया था कि सभी मंत्रियों, विधायकों, सांसदों और नौकरशाहों के बच्चों का शासकीय प्राथमिक स्कूलों में ही दाखिला सुनिश्चत किया जाए लेकिन इस आदेश के अनुपालन को लेकर न सरकार गंभीर नजर आई और न ही नौकरशाह। ऐसे में प्राथमिक शिक्षा का भविष्य क्या होगा, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है।
शहर से सटे ग्रामीण स्कूलों में छात्र संख्या कम होती है और शिक्षक ज्यादा। इसमें मंत्रियों, विधायकों और नौकरशाहों के संबंधित शिक्षकों की तादाद ज्यादा होती है। दूसरी ओर ऐसे भी स्कूल हैं जहां छात्र संख्या हजारों में होती है लेकिन पढ़ाने वाले शिक्षक एक या दो। इस हालात में विकसित राष्ट्र की यही कल्पना, शिक्षित पूरे देश को करना की अवधारणा को किस कदर अंतिम रूप दिया जा सकेगा? उत्तर प्रदेश सरकार अपनी शिक्षा नियमावली पर ही अमल करती तो भी प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा के हालात इतने खराब न होते। नियमानुसार 300 की आबादी और एक किलोमीटर की दूरी पर एक प्राथमिक स्कूल होना चाहिए जबकि 800 की आबादी और तीन किमी. की दूरी पर उच्च प्राथमिक विद्यालय की अवस्थापना होनी चाहिए।क्या यह आदर्श स्थिति उत्तर प्रदेश में बन पाई है। प्रदेश में ऐसे हजारों स्कूल हैं जो बाढ़ के दौरान महीनों बंद रहते हैं। ऐसे में क्या बच्चे सही मायने में शिक्षत हो सकेंगे। सरकार ने उनकी लिए क्या रणनीति बनाई है?
एक अक्टूबर 2009 को भारत में साक्षर भारत मिशन लागू किया गया था। इसके तहत देश के उन 365 जिलों का चयन किया गया था जिनकी साक्षरता वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक 50 प्रतिशत से भी कम थी। 182 लाख निरक्षरों को साक्षर बनाने का लक्ष्य रखा गया था। इसमें कितना पूरा हुआ, यह तो संबंधित राज्यों और केंद्र सरकार के मुखिया ही बेहतर बता सकते हैं। इस कड़ी में लखनऊ, कानपुर, औरैया और गाजियाबाद को छोड़कर उत्तर प्रदेश के 16 जिले भी साक्षर भारत मिशन के तहत चुने गए थे लेकिन उनका हस्र ढाक के तीन पात जैसा ही रहा। इसमें शक नहीं कि केंद्र सरकार के सहयोग से प्रदेश सरकार सर्वशिक्षा अिभयान भी चला रही है। इसका 40 प्रतिशत राज्य सरकार और 60 प्रतिशत खर्च केंद्र सरकार वहन करती है। इसके बावजूद सर्व शिक्षा अभियान के हालात किसी से छिपे नहीं हैं। रोटी, कपड़ा और मकान, पर शिक्षा से बनेगा देश महान, अज्ञानता का अंधकार मिटेगा, शिक्षा से सुधार होगा, शिक्षित, उन्नत, समझदार, शिक्षा है सुख का आधार, दीप से दीप जलाएंगे, देश को साक्षर बनाएंगे, शिक्षा वह मजबूत है सीढ़ी, जिससे बढ़ती जाए पीढ़ी जैसे नारे उम्मीद भी जागते हैं, पढ़ने-लिखने की ललक भी जगाते हैं लेकिन केवल ललक से तो बात बनती नहीं। शिक्षा के प्राथमिक इंतजाम करने की जिम्मेदारी तो राज्य और केंद्र सरकार की है। एक दूसरे पर नाकामी का ठीकरा फोड़ना आसान है लेकिन अपनी जिम्मेदारी से वे बच नहीं सकते। लड़कियों की शिक्षा को प्रोत्साहित करने के भी उन दिनों खूब नारे दिए गए। पढ़ी लिखी जब होगी माता, घर की बनेगी भाग्य विधाता और बहुत हुआ अब चूल्हा–चौका, लड़कियों को दो पढ़ने का मौका। ये नारे लोकलुभावन भी लगते हैं लेकिन आज भी बहुतेरी लड़कियां पांचवीं से आगे नहीं बढ़ पा रही है। सरकार सभी लड़कियों के विद्याधन की बात करती है लेकिन उच्च शिक्षा ग्रहण कर रही लड़कियों को छात्रवृत्ति तक नहीं मिल रही। इसे तंत्र की कमजोरी नहीं तो और क्या कहा जाएगा। व्यवस्था के कुएं में भांग पड़ी है। सच तो यह है कि इस देश में दोहरी शिक्षा का वातावरण है और जब तक यह वातावरण रहेगा तब तक गरीब-अमीर की खाईं बनी रहेगी।
तब तक समान विकास संभव नहीं है। जब तक मंत्रियों और नौकरशाहों के बच्चे शासकीय प्राथमिक स्कूलों में नहीं पढ़ेंगे, तब तक सरकारी स्कूलों की दशा-दिशा में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं आने वाला। चाहे जितना नारा लगा लो,अंग्रेजों के मतानुरूप यह देश कभी पूरी तरह शिक्षित नहीं हो सकेगा। विकसित होने का तो सवाल ही नहीं उठता। क्या हम अंग्रेजों की इस चुनौती को स्वीकार कर पाने की स्थिति में है। जाग उठे हैं नर और नारी, शिक्षित होने की सबकी तैयारी का नारा देने वाला भारतीय जनमानस क्या वाकई तैयार हो सका है और अगर नहीं तो क्यों? देश में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की साक्षरता दर 7 प्रतिशत कम है। ग्रामीण भारत और शहरी भारत की साक्षरता का प्रतिशत भी क्रमशः 71 और 86 है । ग्रामीण इलाकों में सिर्फ 4.5 प्रतिशत पुरुष और 2.2 प्रतिशत महिलाऐं ही स्नातक है, जबकि शहर में 17 प्रतिशत पुरुष और 13 प्रतिशत महिलाऐं ही स्नातक है। इतनी विसंगतियों के बीच यह देश आगे कैसे जाएगा।
———- सियाराम पांडेय ‘शांत’