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दिक्कत है भी तो कहें कैसे

aaसियाराम पांडेय ‘शांत’

एक बेहद लोकप्रिय भोजपुरी गीत है कि ‘दुखवा मैं कासे कहूं। खुद ही सहूं या कि रोता रहूं।’ दुख सबसे कहने की चीज भी तो नहीं। कविवर रहीम तो इस बारे में पहले ही मार्गदर्शन कर गए हैं कि अपने दुखों को सार्वजनिक मत होने दो क्योंकि इससे सहानुभूति कम, लोगों को हंसने का अवसर अधिक मिलता है। ‘रहिमन निज मन की व्यथा मन ही राखो गोय। सुनि इठलैंहे लोग सब बांट न लैंहे कोय।’ जब दुख को कोई बांट नहीं सकता तो उसे व्यक्त करने का मतलब क्या है? अखिलेश यादव, मुलायम सिंह यादव और शिवपाल यादव के साथ भी कुछ ऐसा ही है। तीनों के अपने-अपने दुख हैं। ऐसे दुख जो अकथनीय हैं। इन दुखों ने संबंधों की राह में कड़वाहट की दीवार भी खड़ी कर दी है। पानी सिर से ऊपर बह रहा है। हालांकि इस त्रिमूर्ति का एक ही तर्क है कि उनके परिवार में सब कुछ ठीक है लेकिन चेहरा तो झूठ नहीं बोलता और दुख चाहे शारीरिक हो या मानसिक, अनकहे व्यक्त हो जाता है। न कहने की जरूरत होती है और न ही सुनने की, लोग समझ जाते हैं कि कुछ तो ऐसा जरूर है जिसकी पर्देदारी की जा रही है। मनोवैज्ञानिकों का इसके विपरीत कुछ दूसरा ही तर्क है और वह यह  कि दुख है तो उसे हृदय में मत रखो। हृदय में रखने से दुख नासूर बन जाता है। मानसिक अवसाद का सबब बन जाता है।

  अब यह दुखी व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह दुख को व्यक्त कर हल्का करना चाहता है या अपने अंदर रखकर हर क्षण घुटना अथवा तिल-तिलकर जलना। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव के घर की कलह अब चहारदीवारी में कैद नहीं रही। वह सार्वजनिक हो गई है। विधान परिषद सदस्य उदयवीर सिंह ने तो एक तरह से इस कलह की वजह भी बता दी है। अब शिवपाल और मुलायम लाख सफाई देते रहें, क्या होता है? कपड़े की मैल तो डिटरजेंट से साफ हो सकती है लेकिन मनोमालिन्य को दुनिया का कोई भी डिटरजेंट धो नहीं सकता। इतिहास गवाह है कि बहुपत्नीवाद का दंश इस देश ने खूब झेला है। देवासुर संग्राम के मूल में भी ऋषि अगस्त्य की दो पत्नियां ही रहीं। एक ही पिता की संतानें देव और दैत्य के रूप में लड़ीं तो अपनी माताओं की वजह से। गरुण और सर्पों की बीच कटुता की वजह भी कोई अन्य नहीं हैं। कद्रू और विनता सगी बहनें भी हैं और ऋषि अगस्त्य की पत्नी भी लेकिन माताओं का संघर्ष ही उनके बेटों के बीच के संघर्ष की मूल वजह रहा है। पुराणों और इतिहास की पुस्तकों में ऐसे अनेक प्रसंग हैं जो बहुविवाह के खतरों का वर्णन करते हैं लेकिन जब जान बूझकर कोई एक से अधिक पत्नियां रखता है तो उसका खामियाजा तो उसे भुगतना ही पड़ता है। अखिलेश का दर्द यह है कि उनकी मां नहीं हैं और जो हैं भी वह विमाता है और हर विमाता माता नहीं होती।

  सपा प्रदेश अध्यक्ष शिवपाल यादव के आमंत्रण के बाद भी मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का जिलाध्यक्षों के सम्मेलन में शामिल न होना इस बात का इंगित है कि नाराजगी का ज्वार अभी उतरा नहीं है। सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव सार्वजनिक मंच से यह बात कह चुके हैं कि अखिलेश और शिवपाल के बीच कोई विवाद नहीं है। अब सवाल यह उठता है कि अगर विवाद नहीं है तो पत्र  वार क्यों चल रहा है। आपसदारी में संवादहीनता का आलम हो तभी तो मिल-बैठकर बात करने या अपनी स्थिति स्पष्ट करने की बजाय व्यक्ति माध्यम की तलाश करता है और जब कोई माध्यम के जरिए बात करे तो इसका मतलब यह है कि सब कुछ ठीक नहीं है। पतीली में नफरत की फसल पक रही है। पार्टी मुख्यालय पर मंथन बैठक के पहले दिन जिलाध्यक्षों से पूछा कि अगर किसी को उनसे दिक्कत है तो वह अध्यक्ष पद छोड़ने को तैयार हैं। अब उनसे कौन कहेगा कि किसी को भी उनसे  दिक्कत है। जिलाध्यक्षों ने शिवपाल में विश्वास जता भी दिया। मतलब उनकी अध्यक्षी तो सलामत है लेकिन कार्यकर्ताओं को यह विश्वास भी तो होना चाहिए कि परिवार में सब कुछ ठीक है। सो लगे हाथ उन्होंने जिलाध्यक्षों और महानगर अध्यक्षों को इस बात का भी भरोसा दिया कि अगर 2017 के चुनाव में सपा को बहुमत मिलती है तो अखिलेश यादव ही मुख्यमंत्री होंगे। वही चुनाव में सीएम का चेहरा होंगे। यह बात वे स्टाम्प पर लिखकर देने को भी तैयार हैं। स्टांप पर लिखने की जरूरत क्यों हैं। इसका सीधा सा मतलब है कि अविश्वास चरम पर है। कुछ नहीं है की आधार भूमि तो कुछ है ही होती है। झूठ है तभी तो सत्य की तलाश है। जिलाध्यक्षों के सम्मेलन की बजाय विधायकों  की बैठक को तरजीह देकर अखिलेश यादव ने एक तरह से अपना विरोध जाहिर कर दिया है।

 उनके समर्थकों ने तो पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि जब  तक अखिलेश यादव को पूरा सम्मान नहीं मिलेगा, वे रजत जयंती समारोह में भाग नहीं लेंगे। खुद मुख्यमंत्री ने भी पत्र लिखकर रथयात्रा में जाने और रजत जयंती समारोह में उपस्थित न रह पाने की अपनी विवशता जाहिर कर दी है। सपा प्रमुख को लिखा गया उनका पत्र तो यही संदेश देता है कि वे रजत जयंती समारोह में भाग नहीं लेने जा रहे।  अगर अखिलेश यादव इसी तरह जिद पर अड़े रहे तो समाजवादी साइकिल का पंक्चर होना तो तय है ही। ‘एकला चलो रे ’का उनका यह प्रयोग और पारिवारिक कलह की बड़ी कीमत चुनाव में सपा को चुकानी पड़ सकती है। मुख्यमंत्री का पद तो एक ही है और मिलना भी किसी एक ही को है, ऐसे में आपसदारी में इतना तो तय होना ही चाहिए कि अगला मुख्यमंत्री कौन? असमंजस दुख देता है। शिवपाल का दुख यह है कि प्रदेश अध्यक्ष पद तो मिल गया लेिकन मुख्यमंत्री की कुर्सी आसान नहीं है इसके लिए परिवार में एकता होनी चाहिए लेकिन पारिवारिक एकता को घुन लग गया है। अग्रज मुलायम िसंह को तो उन्होंने पटा भी लिया लेिकन भतीजे को पटाना किसी चुनौती से कम नहीं है। जहां दोनों पैंतरे पर हों, वहां दांव नहीं लगा करते। दांव लगने के लिए सटना जरूरी है लेकिन हालात यह है कि परिवार में सभी  एक दूसरे से कटे हुए हैं। कोई अपना दुख किसी से नहीं कहता। सब घुट रहे हैं अंदर ही अंदर। बाप को कोई कुछ कहे तो बेटे को दुख होता है। मुख्यमंत्री की नेताजी को खत न लिखने की अपील इसका उदाहरण है।  वैसे भी  दूर-दूर रहकर साधी गई एकता सपा को कितनी मजबूती देगी, यह तो वक्त ही तय करेगा। जिलाध्यक्षों के सम्मेलन में मुलायम भी नहीं पहुंचे। आखिर वे सपा कार्यकर्ताओं को बताते भी तो क्या?

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