मुकुल मिश्र
लखनऊ। यूपी को ये साथ पसंद है और काम बोलता है का नारा, नारा ही रह गया। जनता को न लड़कों का साथ पसंद आया और न काम। जनता ने गोद लिए बेटे को सर आंखों लिया और एतिहासिक जीत दिलाकर यह बता दिया कि सिर्फ प्रचार या हल्ला मचाने से कुछ नहीं मिलने वाला है।
फौरी तौर पर अगर नतीजों पर नजर डालें तो यह सपा और बसपा दोनों के लिए ही गर्त में ले जाने वाला हैं लेकिन सत्तारूढ़ सपा के लिए यह परिणाम बेहद गंभीर और चौंकाने वाले हैं। नतीजों से पहले शायद किसी को इस बात का एहसास नहीं था कि पार्टी की इतनी दुर्गति होगी। सारे एक्जिट पोल भी भाजपा-सपा में कड़ी टक्कर की बात कर रहे थे। लेकिन एैसा नहीं हुआ। मोदी का करिश्मा और उनके काम पर लोगों ने मुहर लगा दी और बड़ी जीत दिलाई।वहीं अखिलेश अत्याघिक आत्मविश्वास और अंहकार उन्हें ले डूबा।
दरअसल चुनाव के ठीक पहले सपा कुनबे के फैमिली ड्रामें पर लोगों ने खूब मजा लिया, चटकारे लेकर सुना। किसी ने मुलायम को गलत ठहराया तो किसी ने अखिलेश के प्रति अपनी संवेदना व्यक्त की। ड्रामे के अंत में अखिलेश एक फिल्मी हीरो की तरह सबको परास्त कर सपा की बागडोर संभाल लेते हैं। बस अखिलेश यादव से सबसे बड़ी गलती और उनकी उल्टी गिनती शायद यहीं से शुरू हो गई। उन्होंने अपने चाचा को ही दरकिनार नहीं किया बल्कि अपने पिता मुलायम सिंह को भी ठिकाने लगाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। रही सही कसर कांग्रेस के साथ हाथ मिलाकर पूरी कर ली।
एेसे में मुलायम सिंह यादव और चाचा शिवपाल ने चुनव प्रचार से दूरी बना ली। सारा प्रचार अखिलेश और डिम्पल के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा। पारिवारिक कलह से उम्मीदवारों में भी ऊहापोह की स्थिति रही। पारिवारिक कलह और पिता की उपेक्षा को शायद जनता ने बहुत अच्छे रूप में नहीं लिया और ऐसे में परिवार से दूरी बनाने में ही अच्छाई समझी।
इसके अलावा अखिलेश यादव सरकार के पतन का एक बड़ा कारण प्रदेश की कानून व्यवस्था भी रही। पिछले पांच सालों में प्रदेश मुजफ्फरनगर जैसे कई दंगो का गवाह बना। ऐसे में मुस्लिमों के बीच भी असुरक्षा की भावना आई और सपा से उनकी विश्वसनीयता भी कम हुई। यही वजह थी मोदी और अमित शाह ने अपनी सभाओं में कानून व्यवस्था का मुद्दा उठाकर अखिलेश सरकार की जमकर खिंचाई की। चुनाव के एन वक्त तक कुछ न कुछ एेसी घटनाएं भी होती रहीं। महिला सुरक्षा भी एक अहम मुद्दा बना। प्रचार के दौरान मोदी ने तो यहां तक आरोप लगा डाला कि यूपी के थानों में समाजवादी पार्टी के दफ्तर चल रहे हैं। उनका इशारा साफ था कि सभी थानों में एक जाति के लोगों को बैठाना था। पांच साल की भर्तियों के आंकड़े भी इसी ओर इशारा करते हैं। इससे अगड़ी जातियां और अति पिछड़ी जातियों के खिलाफ खासी हवा बनी। यही वजह है कि लगभग सभी एैसी सीटों पर भाजपा ने अपना परचम फहराया है।
अब बात गठबंधन की कर ली जाए, जो अखिलेश ने मुलायम के विरुद्ध जाकर ही नहीं किया बलिक इतनी दरियादिली दिखाई कि 28 सीटों पर जीतने वाली पार्टी को उन्होंने 105 सीटें दे डाली। किस अक्लमंद का दिमाग काम किया ये तो अखिलेश ही बता पाएंगे, लेकिन उन्होंने शायद चुनाव के प्रकरण में दूसरी बड़ी गलती की। कबीरदास का दोहा यहां याद आ रहा है-जाका गुर भी आघंरा,चेरा खरा निरंध,अंधे-अंधा ढेलियो,दोनों कूप पड़ंत।
गठबंधन का हाल तो कुछ ऐसा ही रहा। अखिलेश का अपना दिमाग काम किया या पीके के गणित ने उन्हें मजबूर कर दिया? फिलहाल इस बेमेल साथ को शायद किसी ने पसंद नहीं किया वरना इतने बुरे हाल न होते। 28 वाली कांग्रेस 8 पर आकर अटक गई। अब कांग्रेस के ही राहुल के खिलाफ आवाज उठने लगी है, जैसी कि सपा में अखिलेश के खिलाफ। आगे और भी तूफान मचेगा , इसमें भी कोई दो राय नहीं।
अहंकार ही आदमी को ले डूबता है। अख्ेसालेश के साथ भी कुछ एेसा ही हुआ। यमुना एक्सप्रेस वे और रिवर फ्रंट को उन्होंने प्रदेश के विकास का मॉडल समझ लिया। उन्होंने कभी बलिया, बनारस जाकर सड़कों का हाल नहीं देखा। मोदी के लिए वो चिल्लाते रहे कि कभी यमुना एक्सप्रेस वे पर चलेंगे तो वोट हमें ही देंगे। लेकिन अखिलेश जी यह बताईए कि बलिया और बनारस जाने वाला किसको वोट देगा। सरकारी पैसे से बड़े-बड़े विज्ञापन छापने से प्रदेश का विकास नहीं होता है।