उत्तर प्रदेश सरकार को नंबर देने हों तो इस बार दस में दस। विघ्नसंतोषी भृकुटि चढ़ा सकते हैं, माइक्रोस्कोप लगाकर कमियां निकालने की कोशिश कर सकते हैं, परंतु औद्योगिक निवेश के नजरिये से राज्य सरकार ने निश्चित ही वह कर दिखाया है जो पहले की सरकारें नहीं कर सकी थीं।
हम याद कर सकते हैं नारायण दत्त तिवारी का समय जब उनके मुख्यमंत्री रहते उद्योगों की वास्तविक चिंता की जाती थी। केंद्र के सहयोग से यदि योगी सरकार ने वही समय दोहराने का प्रयास किया है तो उसकी प्रशंसा होनी ही चाहिए।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दो दिन लखनऊ आना उत्तर प्रदेश की झोली भर गया। पहले दिन लगभग 3900 करोड़ रुपये की 99 परियोजनाओं का लोकार्पण व शिलान्यास और अगले दिन 60,000 करोड़ रुपये की उन परियोजनाओं का शिलान्यास जिनके एमओयू पर फरवरी की इन्वेस्टर्स समिट में हस्ताक्षर हुए थे। केवल पांच महीने में वादों को जमीन पर ले आना तभी संभव है जब इच्छाशक्ति भी प्रबल हो। अच्छी बात यह भी है कि सरकार ने केवल बड़ी योजनाओं पर ही नहीं, छोटी पर भी ध्यान लगाया।
अयोध्या में यदि 100 करोड़ की लागत से कोई काम होना है तो उसका भी शिलान्यास प्रधानमंत्री के हाथों करवाया गया। खास बात यह भी है कि इन 60,000 करोड़ रुपये में केवल निजी क्षेत्र का निवेश है।
सार्वजनिक क्षेत्र की रायबरेली में लगने वाली रेल कोच फैक्टरी या 50,000 करोड़ रुपये की लागत से बुंदेलखंड में आने वाला डिफेंस कॉरिडोर इसमें शामिल नहीं है। बेशक यह बड़ा काम हुआ, लेकिन अब यहां से जिम्मेदारी आती है नौकरशाही पर कि वह कितने प्रभावी ढंग से हर योजना को शिलान्यास से आगे ले जाती है।
केंद्र और राज्य में एक ही दल की सरकार होने के कारण उत्तर प्रदेश को मिला यह अवसर यदि इस बार नौकरशाही भुना नहीं सकी तो फिर उत्तर प्रदेश के लिए आगे बढऩा बहुत कठिन हो जाएगा। इसीलिए असल चुनौती अब है। इसी के साथ समग्र विकास के लिए सरकार को उन कताई मिलों, चीनी मिलों की तरफ भी ध्यान देना होगा जो अरसे से बंद पड़ी हैं। बरेली से लेकर मेरठ तक की चावल मिलों की समस्याएं भी देखी जानी चाहिए। राहत की बात यह है कि दस अगस्त को सरकार अपनी महत्वाकांक्षी एक जिला-एक उत्पाद योजना का बड़ा कार्यक्रम लखनऊ में करने जा रही है।