अभी हाल ही में आजमगढ़ में आईटीआई मैदान में आयोजित रैली में मायावती ने कहा कि कमज़ोर आय वर्ग के सवर्णों को भी आरक्षण मिलना चाहिए। यदि हम अतीत में झांकें तो बाबा साहेब भीम राव आंबेडकर ने कहा था कि 26 जनवरी, 1950 से देश विरोधाभासों के दौर में प्रवेश करेगा, जहां एक व्यक्ति-एक वोट के सिद्धांत के आधार पर राजनीतिक समानता तो होगी, पर सामाजिक और आर्थिक जीवन में पसरी विषमता इस राजनीतिक समानता को निरुद्देश्य करती रहेगी। उन्होंने चेतावनी भी दी थी कि हमें इस विषमता को समाप्त करने की जल्दी कोशिश करनी चाहिए, अन्यथा राजनीतिक लोकतंत्र खतरे में पड़ जायेगा, संविधान में उल्लिखित प्रावधानों के अनुरूप आरक्षण की नीति इसी सामाजिक और आर्थिक विषमता को पाटने की प्रक्रिया का अहम हिस्सा है। इधर बाबा रामदेव ने भी जाति की बजाय आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का समर्थन किया है। उनका कहना है कि जातिगत आधार पर आरक्षण देने से बहुत सी जातियों में लोग आरक्षण के लाभ से वंचित हैं, जो आर्थिक रूप से काफी कमजोर हैं।
अकसर यह कहा जाता है कि आरक्षण का सीधा मतलब वंचित समुदायों को विशेष अवसर उपलब्ध कराना है, ताकि वे रोजगार और शिक्षा के क्षेत्र में उन्नति कर सकें। शायद यही वजह है कि पिछले कुछ समय से आरक्षण की माँग करने वाली जातियाँ बढ़ गई है. विभिन्न जातीय समूह इसकी माँग करने लगे हैं। आरक्षण की माँग करने वाली रैलियों में जिस तरह की भारी भीड़ जुटती है इससे साफ है कि आम लोगों में आरक्षण को लेकर व्यापक समर्थन है। वर्ष 2014 के सर्वेक्षण में ये बात सामने आई थी कि भारत में ज्यादा जातीय समूह आरक्षण का समर्थन करते हैं। हालांकि आज भी पिछड़ी जातियों की एक बड़ी आबादी खेती पर निर्भर है, लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि खेती की स्थिति खराब होने की वजह से आरक्षण की माँग लगातार बढ़ रही है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अन्य पिछड़ी जातियों में पेशेवरों की मौजूदगी के बावजूद एक बहुत बड़ी आबादी आजीविका के लिए अभी भी खेती पर निर्भर है, इसीलिए खेती में संकट का मतलब इससे जुड़े सभी लोगों की जिंदगी में मुश्किलों का बढ़ जाना है। जब तक खेती में मुनाफा होता रहता है, अन्य पिछड़ी जातियों से जुड़े इन खेतिहरों को आर्थिक संकट का शायद ही सामना करना पड़ता है, ऐसे में वो आरक्षण की ज्यादा परवाह नहीं करते। लेकिन आज की वस्तुस्थिति देखते हुए खेती की तुलना में सरकारी नौकरियों में होने वाले ज्यादा आर्थिक लाभ के कारण लोग अधिकतर अब खेती छोड़ कर सरकारी नौकरी चाहते हैं। इसीलिए पिछले कुछ समय से आरक्षण की मांग को लेकर होने वाले आंदोलनों में तेजी आई है।
आजादी के उनहत्तर दशकों बाद भी भारत में आरक्षण की नीति को लेकर लगभग सभी जातीय समूहों में समर्थन है। पिछले कुछ दशकों से दलितों, अन्य पिछड़ी जातियों और आदिवासियों के लिए आरक्षण नीति के प्रति समर्थन में कोई कमी नहीं आई है। वर्ष 2014 में सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज ने भारत के सभी वर्गों का एक सर्वेक्षण किया था जिसमें ये बात सामने आई कि अधिकांश भारतीय, शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में आरक्षण का समर्थन करते हैं। सर्वे में शामिल केवल 12 फीसद भारतीय ही ऐसे थे, जिन्होंने आरक्षण का विरोध किया। कुछ ऐसे भी लोग थे जिन्होंने इस मुद्दे पर अपने विचार जाहिर नहीं किए। सर्वे से पता चला कि आरक्षण से फायदा उठाने वाली अन्य पिछड़ी जातियों के मुकाबले इससे वंचित रहने वाली उच्च जातियों के बीच इस नीति को लेकर कम समर्थन है। कुछ दिन पहले राजस्थान में गूजरों ने, हरियाणा में जाटों ने और अब गुजरात में पाटीदार समाज आरक्षण की मांग कर रहा है। इस तरह की मांगों के खिलाफ आमतौर पर एक ही तर्क दिया जाता है कि क्या सचमुच इन समुदायों या जातियों को आरक्षण की जरूरत है क्योंकि ये न केवल शिक्षित और आर्थिक रूप से सम्पन्न हैं बल्कि राजनीतिक रूप से भी मजबूत भी हैं। दूसरी ओर क्रीमी लेयर को अलग रखना, आर्थिक आधार लागू करना, पद्दोन्नति में आरक्षण हटाना, आरक्षण का लाभ एक बार और एक पीढ़ी तक सीमित रखना आदि जैसे तर्क हैं जो आरक्षण को सिरे से नकारते महसूस नहीं होते।
इसके साथ ही यदि आरक्षण को ऐतिहासिकता और संवैधानिकता के आईने में देखें तो एक अलग ही तस्वीर उभरती है आजादी से पहले कोल्हापुर, मद्रास और मैसूर की रियासतों ने अपने क्षेत्र में आरक्षण की नीति लागू करते हुए यह स्पष्ट घोषणा की थी कि इसका उद्देश्य राज्य-प्रशासन पर काबिज जाति-विशेष के एकाधिकार को तोड़ना है। बाबा साहेब ने भी लिखा है कि वंचितों द्वारा मांगा गया आरक्षण असल में शासक वर्गो की सत्ता पर नियंत्रण की मांग है। आखिरकार वास्तविक दुनिया हमेशा से ही असमानताओं से भरी रही है, जहां समाज अलग-अलग स्तरों पर बंटा हुआ है समाज में उच्च और निम्न दो स्तर हैं, जो प्रतियोगिता, सामाजिक आत्मविश्वास, सांस्कृतिक श्रेष्ठता, सामाजिक वातावरण, वास्तविकताओं एवं अवसरों, स्वहित की पहचान और यहां तक की अनुवांशिक पहचान के आधारों पर भी एकदम अलग हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि सद्भावनापूर्ण पक्षपात की अवधारणा पर आधारित आरक्षण की व्यवस्था समाज के सभी तबकों को समानता के स्तर पर लाने के लिए तात्कालिक जरूरत थी लेकिन, यह अभी तक कायम है तो इसकी एकमात्र वजह राजनीति और हमारे राजनीतिक दलों की नाकामयाबी है। यदि आज हमारा समाज कमजोर और अधिकार विहीन तबके को जिंदगी की जरूरी सुविधाएं मुहैया कराने में सफल हुआ होता तो वही लोग आज आरक्षण की इस व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़े हो चुके होते या फिर आरक्षण का मुद्दा आज भारतीय राजनीति में हाशिए पर आ चुका होता। सच्चाई यह है कि हम आज भी सबको उचित शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने में सक्षम नहीं हैं। विशेषकर उन्हें, जो समाज में हाशिए पर हैं।
भारत जैसे बहुलवादी देश में आज गठबंधन की सरकार है क्यों ? क्या इस सच से कोई इन्कार कर सकता है कि समाज के अलग-अलग वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाले राजनीतिक समूहों के सहयोग से ही यह सरकार बनती हैै। गौरतलब है, पिछले कुछ समय से राजनीति का यह अंदाज भारत में लगातार बुलंदियों पर है। आरक्षण की समस्या तब तक नयी – नयी दलीलों, तर्कों और सुझावों के दल – दल में फंसी रहेगी जब तक कोई ऐसा रास्ता नहीं निकाला जाता जो सबको मान्य हो खासकर राजनीतिक दलों को जो आरक्षण का दाना डालकर अपना वोट बैंक मजबूत करते हैं। सच तो यह है कि समानता के नाम पर आरक्षण का सिलसिला ही गलत था बेहतर तो यह होता कि पिछड़े समुदायों को बराबरी में लाने के लिए उन्हें आरक्षित सीटों की नहीं बल्कि आर्थिक मदद दी जाती वह भी गरीबी से जूझ रहे वर्ग को, फिर चाहे वे किसी भी समुदाय, जाति, वर्ग या धर्म के होते। किन्तु फलक पर फिर एक सवाल प्रश्नवाचक मुद्रा में अभी से अपनी तमाम विसंगतियों के साथ झूल रहा है कि यह कैसे सिद्ध होगा कि ‘‘ गरीब कौन ’’
——- पूनम श्रीवास्तव