कुंभ मेला में पूरे माह कल्पवास करने वालों के खानपान की व्यवस्था भी अलग होती है। गंगा किनारे शिविरों, टेंटों में रहकर पूजा-पाठ करने वाले कल्पवासी पूरे माह मिट्टी के चूल्हों पर भोजन तैयार कर खाते हैं। इन चूल्हों पर भोजन बनाने के लिए गोबर के उपलोंं का प्रयोग होता है। कुंभ में चूल्हों और उपलों की काफी मांग होती है सो दारागंज में दशाश्वमेध घाट के आसपास और शास्त्री पुल के नीचे झोपड़पट्टी में रहने वाले लोग इन दिनों मिïट्टी के चूल्हे और उपले बनाने में व्यस्त हैं।
रोजगार का मिल रहा अवसर
कुंभ मेला ऐसे लोगों के लिए रोजगार का अवसर होता है जो संगम के आसपास के इलाकों में रहकर घाटियों, पंडों के यहां काम करके और चायपान आदि की छोटी-छोटी दुकानें खोलकर परिवार का गुजर-बसर करते हैं। दारागंज में दशाश्वमेध घाट से शास्त्री पुल के नीचे तक बड़ी संख्या में ऐसे परिवार रहते हैं, जिनका गुजारा संगम क्षेत्र में काम करके चलता है। इन परिवारों की महिलाएं और पुरुष भी कुंभ को कैश कराने का मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहते, सो इन दिनों मिïट्टी के चूल्हे और गोबर से उपले बनाने में जुटे हैं।
मीरा और दिनेश भी काम हैं तल्लीन
यहां मीरा और उनके पति दिनेश प्रजापति भी पूरी तल्लीनता से काम में जुटे हैं। मीरा ने बताया कि चूल्हे गंगा की चिकनी मिïट्टी से बनाए जाते हैं। इस मिïट्टी से तैयार चूल्हे गरम होने पर चटकते नहीं। गंगा की चिकनी और काली मिïट्टी से चूूल्हों को तैयार करने के बाद उस पर पीली मिïट्टी का लेप लगाकर सुखाया जाता है। बगल में गोबर से उपले बना रही राधा बोलीं, चूल्हे और उपले तैयार करना काफी मेहनत का काम है लेकिन कुंभ के दौरान इससे अच्छी कमाई हो जाती है।
10 से 15 रुपयेे में बिकते हैं चूल्हे
गंगा की मिïट्टी से तैयार चूल्हे 10 से 15 रुपये कीमत पर बिकते हैं। चूल्हे बनाने में जुटे उमेश ने बताया कि माघ मेला में भी इसे तैयार किया जाता है लेकिन कुंभ के मुकाबले उसमें भीड़ कम होती है। कुंभ के दौरान मिïट्टी के चूल्हों और उपलों की मांग ज्यादा होने के कारण अच्छी आमदनी होती है। बताया कि उपले भी सौ से डेढ़ सौ रुपये सैकड़ा की दर से बिकता है।
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