मारीच
थॉट लीडर बनने में अरसे लगते हैं लेकिन अगर कोई नौ साल की लड़की थॉट लीडर बन जाए। उसे थॉट लीडर अवार्ड मिल जाए तो लोगों के सीने पर सांप लोटना तो स्वाभाविक ही है। अब अपने शहाबुद्दीन साहब को ही ले लीजिए। जेल से निकलकर आए तो अपना लीडर लालू प्रसाद यादव को मान बैठे। नीतीश कुमार पर तंज कसने लगे। नेता तो वही होता है जो अच्छा लगे और अच्छा वही लगता है जो खुद के अनुरूप हो। हाल ही में एक सर्वे हुआ है। कुछ चित्र बनाए गए, उसमें लोगों ने वही चित्र पसंद किए जिन चित्रों के कुछ प्रतिशत अंश उनसे मिलते थे। पसंद और नापसंद का संबंध भी अपने से ही होता है। ‘खग जानै खग ही की भाषा।’ जो जैसा होता है। वैसा ही सोचता है। लालू और शहाबुद्दीन की सोच में बहुत फर्क नहीं है। यही वजह है कि शहाबुद्ददीन को लालू में ही अपना नेता नजर आता है। नीतीश लालू के सहयोगी हो सकते हैं लेकिन व्यावहारिक धरातल पर वे लालू प्रसाद नहीं हो सकते। लालू और शहाबुद्दीन जैसे लोग न तो किसी के चेहरे पर मुस्कान ला सकते हैं और न ही इस दिशा में कोई ठोस काम कर सकते हैं। लालू प्रसाद यादव के पास अपना बोल-वचन है। ऐसा बोलेंगे कि लोगों को हंसी आ जाए लेकिन जो बात मुख पर है, वही अंदर भी हो, जरूरी तो नहीं। इन नेताओं को प्रेरणा लेनी चाहिए मध्य प्रदेश की नौ वर्षीय मुस्कान अहिरवार से।
इतनी छोटी सी उम्र में उसने आर्थिक दृष्टि से कमजोर बच्चों के शिक्षण का बीड़ा उठाया है। अपनी बस्ती के लोगों को शिक्षित करने के लिए वह घर में ही पुस्तकालय चलाती है। वह बाकायदा किताबें इश्यू करती है और तय समय पर वापस भी लेती है। नीति आयोग ने न केवल उसके इस काम को सराहा बल्कि इस निमित्त उसे थॉट लीडर अवार्ड भी दिया। एक ओर एक छोटी सी लड़की है जो खेल के मैदान में भी अपने समवयस्कों से बस पढ़ने-लिखने की बात करती है और दूसरी ओर हमारा सभ्य राजनीतिक समाज है जो बस राजनीति-राजनीति खेलने को ही अपना सर्वस्व समझता है। थॉट लीडर तो वह है जो सबकी सोचे। सबके हित में काम करे लेकिन जो खुद तक ही सिमट जाए, वह कुछ भी हो लेकिन थॉट लीडर तो हो नहीं सकता। मैथिलीशरण गुप्त की एक कविता है कि ‘यही पशु प्रवृत्ति है कि आप-आप ही चरे। वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।’ मैंने लिखा कि पक्षी ही पक्षी की भाषा को समझ सकता है। पक्षियों की भाषा महाराज विक्रमादित्य की भी समझ में नहीं आई थी लेकिन भर्तृहरि समझ गया था। इसलिए कि जन्म के बाद के कई साल तक वह पशुओं के बीच में ही रहा था। पशुओं की तरह ही चला था। पला था-बढ़ा था। जौहरि की जगति जौहरि जानै कि जिन जौहर होई। घायल की गति घायल जानै कि जिन घायल होई। नेताओं के पैर में तो बेवाई भी नहीं होती, वे दूसरों की पीड़ा को जाने-समझें भी तो किस तरह?राजनीतिक दलों में थॉट लीडर जैसी कोई चीज नहीं होती है। वहां तो थिंक टैंक होता है। टैंक चल भी सकता हैं। फट भी सकता है। मौके का दस्तूर जैसा हो। एक थिंक टैंक के बारे में सुना कि वह अपनों में ही मुखौटा तलाशने लगा। मुखौटा न उतरा तो अध्ययन पर चला गया। कुछ अन्य दलों में भी थिंक टैंक हैं। उनमें से कुछ प्लॉट से आगे की सोचते ही नहीं। पिछले दिन एक नेता ने एक महापुरुष की उठी अंगुलियों में भी उनकी प्लाटेच्छा जान ली। इसका बड़ा विरोध हुआ। हाल ही में एक नेता ने एक बड़ी नेता के खिलाफ आपत्तिजनक बयान दे दिया। पार्टी के थिंक टैंक ने तय किया कि इसके खिलाफ आंदोलन होना चाहिए। आंदोलन हुआ तो एक महिला के अपमान के एवज में कई महिलाओं का अपमान हो गया। नफरत की जमीन पर प्रेम की फसल थोड़े ही उगती है। कभी ब्राह्मण शिक्षा और भिक्षा के लिए जाना जाता था। वह शिक्षा देता और भिक्षा लेता था। अब वह राजनीति में आ गया है। शिक्षा- भिक्षा से कोसों दूर। वह अतीत की छाया भी खुद पर नहीं पड़ने देना चाहता। जो शिक्षा दे रहे,उनका ध्यान विदेशों से मिलने वाले अनुदान पर है। विदेशी चाहते नहीं कि हिंदुस्तान में नौकरी पैदा करने वाली शिक्षा का अंत हो। रोटी, कपड़ा और मकान बस इतने में ही भारतीय सिमटे रहें, नैतिक उत्थान हो गया। आत्मतत्व का ज्ञान हो गया तो फिर उनके गुरु न हो जाएंगे। गुरु कोई नहीं चाहता। चेला सबको चाहिए। जी हुजुर। बंदा हाजिर है। थॉट लीडर कौन चाहेगा। जब थिंक टैंक से काम चलता हो। कई थॉट लीडर मतलब एक थिंक टैंक। गनीमत है कि नीति आयोग ने अभी किसी थिंक टैंक को अवार्ड नहीं दिया। शायद उसे मुखौटों के बढ़ने का डर हो लेकिन थॉट लीडर तो चलेंगे क्योंकि उनकी सोच में केवल स्वार्थ नहीं है। जो सबकी सोचेगा, वही तो बढ़ेगा।