सियाराम पांडेय ‘शांत’
महादेवी वर्मा हिंदी साहित्य का एक ऐसा नाम जो इस भारत भूमि के कण-कण से परिचित थी। जो यहां के रहवासियों की पीड़ा को, उनके आंसुओं के रंग तक को पहचानती थीं। जिसका निर्माण ही मिट जाने के लिए हुआ था। देश पर अपना सर्वस्व लुटा देने को जो हर क्षण उत्सुक थीं । जो महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और सुमित्रानंदन पंत की मुंहबोली मानस बहन थीं। आधुनिक हिंदी की सबसे सशक्त इस कवयित्री का हमारे बीच न होना खलता तो है ही लेकिन उनकी कविताएं हमारे बीच उनकी गैरमौजूदगी का अहसास नहीं होने देतीं। उन्हें आधुनिक मीरा और “हिन्दी के मन्दिर की सरस्वती” भी कहा गया। इस तरह का गौरव बिरले ही लोगों को मिलता है। आजादी पूर्व और उसके बाद के भारत को देखने वाली महादेवी वर्मा ने व्यापक समाज में न केवल काम किया, बल्कि देश में व्याप्त हाहाकार को देखा, परखा और अन्धकार को दूर करने वाली दृष्टि दी। ऐसा भारत भूमि को सलीके से जानने- पहचानने वाला ही कर सकता है। ‘अलि, मैं कण-कण को जान चली,सबका क्रन्दन पहचान चली। मैं नभ के रज के रस-विष के, आंसू के सब रंग जान चली। मैं सुख से चंचल दुख-बोझिल, क्षण-क्षण का जीवन जान चली। मिटने को कर निर्माण चली।’ खड़ी बोली हिन्दी की कविता में कोमल शब्दावली का विकास करने वाली महीयसी महादेवी वर्मा ने इस मिथक को भी तोड़ा कि बृजभाषा में ही कोमल शब्दावली का विकास मुमकिन है। इसके लिए उन्होंने संस्कृत और बांग्ला के कोमल शब्दों को चुना और उसे हिंदी की मणिमाला में कुछ इस कदर पिरोया कि उनका हर गीत बोल उठा। नाद कर उठा। वे मुरझाने वाले फूलों को मुस्कुराने वाला फूल मानती ही नहीं थीं। बुझने वाले दीपों को तारादीप कहना उन्हें हरगिज गंवारा नहीं था। ‘ वे मुस्काते फूल, नहीं, जिनको आता है मुरझाना। वे तारों के दीप नहीं ,जिनको भाता है बुझ जाना। वे सूने से नयन नहीं , जिनमें बनते आंसू मोती। वह प्राणों की सेज नहीं, जिसमें बेसुध पीड़ा सोती।’
वे सात वर्ष की उम्र से ही काव्य लेखन करने लगी थी और वर्ष 1925 में मैट्रिक पास करने तक तो वे सफल कवयित्री के रूप में अपनी पहचान बना चुकी थीं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनके कविताएं छपने लगी थीं।। कालेज में सुभद्रा कुमारी चौहान उनकी घनिष्ठ मित्र थीं। सुभद्रा कुमारी चौहान महादेवी जी का हाथ पकड़ कर सखियों के बीच में ले जातीं और कहतीं कि सुनो, ये कविता भी लिखती हैं। 1932 में जब उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में एमए पास किया तब तक उनके दो कविता संग्रह ‘नीहार’ तथा ‘रश्मि’ प्रकाशित हो चुके थे। भले ही उनका बाल विवाह हुआ हो लेकिन उन्होंने अवविवाहित जैसा जीवन ही बसर किया। वे एक प्रतिभावान कवयित्री और गद्य लेखिका तो थी ही, साहित्य और संगीत में निपुण भी थीं। कुशल चित्रकार और सृजनात्मक अनुवादक भी थीं। उन्हें हिन्दी साहित्य के सभी महत्त्वपूर्ण पुरस्कार प्राप्त करने का गौरव प्राप्त है। वर्ष 2007 में उनकी जन्म शताब्दी मनाई गई।
महादेवी का जन्म 26मार्च 1907 को फ़र्रुख़ाबाद में हुआ। उनके परिवार में सात पीढ़ियों के बाद कोई लड़की जन्मी थी। उन्हें घर की देवी मानते हुए परिजनों ने उनका नाम महादेवी रख दिया था और उन्होंने अपने इस नाम को प्रमाणित भी किया। उनके पिता गोविंद प्रसाद वर्मा भागलपुर के एक कॉलेज में प्राध्यापक थे। उनकी माता का नाम हेमरानी देवी था। महादेवी जी की शिक्षा इंदौर में मिशन स्कूल से प्रारम्भ हुई साथ ही संस्कृत, अंग्रेज़ी, संगीत तथा चित्रकला की शिक्षा अध्यापकों द्वारा घर पर ही दी जाती रही। बीच में विवाह जैसी बाधा पड़ जाने के कारण कुछ दिन शिक्षा स्थगित रही। विवाहोपरान्त महादेवी जी ने 1919 में क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद में प्रवेश लिया और कॉलेज के छात्रावास में रहने लगीं। 1921 में महादेवी जी ने आठवीं कक्षा में प्रान्त भर में प्रथम स्थान प्राप्त किया। यहीं पर उन्होंने अपने काव्य जीवन की शुरुआत की। उनकी नीर भरी दुख की बदली कविता को कुछ लोगों ने उनकी निजी जिंदगी का हिंसा माना। संभव है, यह कुछ हद तक सच भी हो क्योंकि पीड़ा के अभाव में , बिना किसी वियोग के कविता का जन्म तो होता ही नहीं। जाकै पैर न फटी बेवाई, सो का जानै पीर पराई। महादेवी वर्मा के साथ भी कुछ ऐसा ही था। उनके शब्द उनके भावनाओं के साथ चलते थे। न एक इंच इधर, न एक इंच उधर।
‘विस्तृत नभ का कोई कोना,मेरा न कभी अपना होना। परिचय इतना इतिहास यही ,उमड़ी कल थी मिट आज चली। मैं नीर भरी दुख की बदली। ’
बच्चों के प्रति उनका स्नेह असीम था। उन्होंने बच्चों के लिए भी खूब कवितजाएं लिखीं। पशु-पक्षियों के संरक्षण को लेकर उनकी आकुलता- व्याकुलता का ग्राफ बताने के लिए उक्त कविता न केवल काफी है, बल्कि संजीदगी के धरातल पर उनके पक्षी प्रेम का भी परिचय देती है।
‘तिनके लाकर महल बनाती, ऊँची डाली पर लटकाती। खेतों से फिर दाना लाती, नदियों से भर लाती पानी। बया हमारी चिड़िया रानी।
तुझको दूर न जाने देंगे,दानों से आँगन भर देंगे। और हौज़ में भर देंगे हम, मीठा-मीठा ठंडा पानी। बया हमारी चिड़िया रानी।’
केवल बया ही नहीं, प्रियवादिनी कोयल की प्रशंसा में भी उन्होंने गीत लिखे। लोक जीवन का ध्यान कोयलों के संरक्षण और संवर्द्धन की ओर खींचा। वह उसे किसी भी शास्त्री संगीत से श्रेष्ठतर गायिका साबित करती हैं। गायक को तो गाने के लिए किसी वाद्ययंत्र के सहारे की जरूरत होती है लेकिन कोयल के क्या कहने, वह तो बिना वाद्ययंत्र के भी अत्यंत सुरीला गीत गा लेती है। तन-मन को अपने मधुर गीत से झंकृत कर देती है। वे उसे स्वाभिमानी भी करार देती है। उनकी कोयल बिना बुलाए कहीं नहीं जाती।
‘डाल हिलाकर आम बुलाता। तब कोयल आती है। नहीं चाहिए इसको तबला, नहीं चाहिए हारमोनियम। छिप-छिपकर पत्तों में यह तो गीत नया गाती है।’
जो मिटने में यकीन रखता है, कालजयी तो वही होता है और वही कालजयी कविताएं भी लिखता है।
क्या अमरों का लोक मिलेगा, तेरी करुणा का उपहार। रहने दो हे देव! अरे,यह मेरे मिटने का अधिकार।
हज़ारी प्रसाद द्विवेदी आदि के साथ महादेवी का कार्यक्षेत्र लेखन, संपादन और अध्यापन रहा। उन्होंने इलाहाबाद में प्रयाग महिला विद्यापीठ के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया। यह कार्य अपने समय में महिला-शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी कदम था। इसकी वे प्रधानाचार्य एवं कुलपति भी रहीं। 1932 में उन्होंने महिलाओं की प्रमुख पत्रिका ‘चाँद’ का कार्यभार संभाला। 1930 में नीहार, 1932 में रश्मि, 1934 में नीरजा तथा 1936 में सांध्यगीत नामक उनके चार कविता संग्रह प्रकाशित हुए। 1939 में इन चारों काव्य संग्रहों को उनकी कलाकृतियों के साथ वृहदाकार में यामा शीर्षक से प्रकाशित किया गया। उन्होंने गद्य, काव्य, शिक्षा और चित्रकला सभी क्षेत्रों में नए आयाम स्थापित किए। इसके अतिरिक्त उनकी 18 काव्य और गद्य कृतियां हैं जिनमें मेरा परिवार, स्मृति की रेखाएं, पथ के साथी, शृंखला की कड़ियां और अतीत के चलचित्र प्रमुख हैं।
वे मीरा के नाम से जानी ही नहीं गई , उन्होंने जन भावनाओं का सम्मान करते हुए 1936 में नैनीताल से 25 किलोमीटर दूर रामगढ़ कस्बे के उमागढ़ नामक गांव में एक बंगला बनवाया था। जिसका नाम उन्होंने मीरा मंदिर रखा था। जितने दिन वे यहां रहीं इस गांव की शिक्षा और विकास के लिए समर्पित रहीं। महिलाओं की शिक्षा और उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए उन्होंने बहुत काम किया। उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय संगम नगरी इलाहाबाद में बिताया। 11 सितंबर 1987 को इलाहाबाद में उनका निधन हुआ। इसी के साथ काल के क्रूर हाथों ने इस देश के हाथों से एक समर्थ रचनाकार, महिलाओं की मुक्ति योद्धा, समाज सुधारक, उत्तम व्यक्तित्व की धनी, सहृदय आत्मा को हमसे छीन लिया। महादेवी वर्मा ने हिंदी के कवियों और लेखकों ही नहीं, आजादी के दीवानों की भी यथासंभव मदद की। उनके दरवाजे दीन-दुखियों के लिए हमेशा खुले रहे। महाप्राण निराला को वे बहुत मानती थीं। उनके लिए अक्सर नए वस्त्र बनवा देती लेकिन निराला अपनी फक्कड़ी के चलते उसे किसी जरूरतमंद को दे देते। इसे देख वे विचलित तो होतीं। निराला पर नाराज भी होती लेकिन उनका उदार स्वभाव जान उनका सीना गर्व से चौड़ा हो जाता। जैसा निस्पृह भाई, वैसी ही बहन। महादेवी की आत्मा उनकी पुस्तकों में, उनकी रचनाओं में बसती है। उनकी पुस्तकों की ज्ञानगंगा में अवगाहन करते ही महादेवी वर्मा का चेहरा आंखों के सामने आ जाता है। स्मृतियां तरोताजा हो जाती हैं। उन्हें इस दुनिया से गए 29 साल गए लेकिन उनकी कविता चिर सजग आंखें उनींदी, आज कैसे व्यस्त बाना। जाग तुझको दूर जाना। क्या उनका इशारा इसी ओर जाने का था या वे इस देश का मार्गदर्शन कर रही थीं। जो भी हो, उनके हर गीत हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं। वे जितना हमारे लिए कर गई हैं, उतना तो अपना कोई सगा भी नहीं करता।