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फिल्मों पर प्रतिबंध की राजनीति गलत, चाहे कोई भी लगाए…

पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर लिखी गई संजय बारू की विवादित किताब ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनस्टर’ पर फिल्म बनकर तैयार है. ट्रेलर आने के साथ ही विवाद भी चले आए हैं. अब सुनने में आ रहा है कि मध्य प्रदेश की कमलनाथ सरकार फिल्म का रिव्यू करेगी, उसके बाद ही प्रदेश में दिखाई जा सकेगी. मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार को चिंता है कि कहीं ‘द एक्‍सीडेंटल प्राइम मिनिस्‍टर’ फिल्म से मनमोहन सिंह या कांग्रेस पार्टी की छवि खराब न हो जाए.

हो सकता है मध्य प्रदेश सरकार का खटका सही हो, लेकिन यह फिल्म को सेंसर करने या उस पर प्रतिबंध लगाने का आधार नहीं बनता. फिल्म को प्रमाणित करने के लिए मुंबई में सेंसर बोर्ड है. अगर सेंसर बोर्ड ने फिल्म पास कर दी है तो उस पर दूसरी सेंसरशिप करना गैर कानूनी है. अगर कांग्रेस की सरकार भी यही करती है तो वह शिवसेना जैसी हो जाएगी, जिसके नेता फिल्मों पर अपनी मुहर लगाने के लिए कुख्यात रहे हैं.

अगर कमलनाथ ऐसा करते हैं तो वह अपने पूर्ववर्ती शिवराज सिंह चौहान से कैसे अलग हो पाएंगे, जिन्होंने इसी तरह के हो हल्ला के कारण पद्मावत फिल्म मध्य प्रदेश में नहीं चलने दी थी. मुख्यमंत्री का काम कानून का राज स्थापित कराना है, न कि उन तत्वों को बढ़ावा देना जो कानून की धज्जियां उड़ाते हैं. अगर कोई फिल्म कानूनी ढंग से पास हो चुकी है तो उसको चलवाना मुख्यमंत्री की नैतिक ही नहीं कानूनी जिम्मेदारी भी है. भले ही फिल्म में खुद उसकी या उसकी पार्टी की निंदा की गई हो. अगर फिल्म में दिखाए गए किसी किरदार को लगता है कि उसके साथ नाइंसाफी की गई है तो उसके पास विरोध करने का अधिकार जरूर है.

फिल्मों के सड़कों पर होने वाले विरोध और उन्हें सरकारों से मिलने वाले संरक्षण से एक पुराना किस्सा याद आता है. अन्नू कपूर ने इसे अपने मशहूरू रेडियो शो में सुनाया था. कहानी यह थी कि दिलीप कुमार की मशहूर फिल्म गंगा-जमुना बनकर तैयार थी. लेकिन इसे सेंसर बोर्ड पास नहीं कर रहा था. सेंसर बोर्ड की दलील थी कि फिल्म में हिंसा का महिमामंडन किया गया है. फिल्म में दिलीप कुमार अंत में डाकू बन जाते हैं. गांधी के सिद्धांतों पर नए-नए आजाद हुए देश में हिंसा की ऐसी प्राण-प्रतिष्ठा वाजिब नहीं मानी गई.

दिलीप कुमार ने तब तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री से बात की, लेकिन वहां कोई बात नहीं बनी. अंत में वह प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के पास गए. नेहरू ने उनकी पूरी बात सुनी और फिर कहा कि रचना को समग्रता में देखना चाहिए. वैसे भी कलाओं पर अंकुश लगाना ठीक नहीं है. उसके बाद फिल्म रिलीज हुई और आज तक एक मिसाल है.

विरोधी चाहे कुछ करें, लेकिन कम से कम कांग्रेस की सरकारों को नेहरू के रास्ते से भटकना नहीं चाहिए. वैसे अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में भी कमल हसन की एक मशहूर फिल्म आई थी- हे राम. इस फिल्म में नाम लिए बिना महात्मा गांधी की हत्या के पीछे जिस संगठन को दिखाया गया, उसका चित्रण हूबहू राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से मिलता जुलता था. वही खाकी हाफ पेंट, वही काली टोपी और वैसी ही भाषा. लेकिन इस फिल्म को वाजपेयी सरकार ने प्रतिबंधित नहीं किया, जबकि वह उनकी विचारधारा पर कड़ा प्रहार करती थी.

 

मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार में भी कश्मीर की समस्या पर हैदर फिल्म आई थी. इस फिल्म ने जिस हिम्मत के साथ कश्मीर के हालात को बयान किया था, वह भारत सरकार की घोषित नीति से काफी अलग था. लेकिन वह फिल्म भी आई और देखी गई. यानी कलाओं को अपनी बात कहने दी जाए. उन्हें सामने आने दिया जाए. उसकी प्रशंसा, आलोचना या निंदा, जो उचित लगे वह किया जाए. लेकिन कला या अभिव्यक्ति का गला घोंट देना अलोकतांत्रिक है. और यह तब और खतरनाक है, जब चुनी हुई सरकारें अभिव्यक्ति की आजादी को कुचलने के लिए कानून के रास्ते से भटक जाएं.

अगर सरकारें इसी तरह कलाओं से प्रतिशोध लेने की आदत डाल लेंगी तो भारत में लोकतंत्र की यात्रा न सिर्फ थम जाएगी, बल्कि वह पुराने जमाने की ओर बढ़ने लगेगी, जब हर बात का इंसाफ तलवार से होता था. इसलिए जरूरी है कि लोकतंत्र को सस्ती लोकप्रियता और भीड़ तंत्र से बचाया जाए.

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