कविवर रहीम ने लिखा है कि बिगरी बात बने नहीं, लाख करै किन कोय। रहिमन बिगरै दूध को मथे न माखन होय। जरूर यह बात उन्होंने अपने व्यापक जीवनानुभवों के आधार पर लिखी होगी। पढ़े-लिखे लोगों को रहीम की इस बात पर संदेह नहीं है लेकिन समाजवादी पार्टी पर यह बात अक्षरश: खरी नहीं उतरती। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने कहा है कि बात बन गई है। शिवपाल और अखिलेश में कोई मतभेद नहीं है। मेरे रहते पार्टी में फूट हो ही नहीं सकती। शिवपाल यादव के विभाग उन्हें लौटा दिए जाएंगे। सपा प्रदेश अध्यक्ष भी वही रहेंगे। गायत्री प्रजापति और राजकिशोर सिंह की अखिलेश मंत्रिमंडल में पुनर्वापसी हो जाएगी। शिवपाल मान गए हैं। अखिलेश भी मान जाएंगे। जब अभी मानने और मनाने की बात हो रही है तो फिर इस दावे में कितना दम है, यह तो सोचने वाली बात होगी। हालांकि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भी कहा है कि नेता जी की बात टाली न जाएगी और शिवपाल यादव तो सुबह से ही रट लगाए पड़े थे कि वे हर हाल में नेताजी के साथ हैं। उनका संदेश ही उनके लिए आदेश है। अगर यह इतना ही सच था तो उन्हें नेताजी की बात पर अमल करना चाहिए था। इस्तीफा न देते। तेल भी देख लेते और तेल की धार भी देख लेते लेकिन उन्होंने तो अपनी पत्नी और बेटे से भी इस्तीफा दिलवा दिया, इसे क्या कहा जाएगा? यह पारिवारिक एकता और अखंडता का संकेत तो नहीं है।
अब इसे अखिलेश यादव की उदारता ही कहा जाएगा कि वे मुलायम सिंह यादव की आज्ञा मानने के फेर में जिंदा मक्खी निगल रहे हैं जबकि वे भी जानते हैं कि मुलायम सिंह यादव के इस डैमेज कंट्रोल से सर्वाधिक नुकसान उन्हीं को हुआ है। प्रदेश में उनकी छवि अब कमजोर मुख्यमंत्री की ही बनकर रह गई है। शिवपाल यादव एक बार पुनश्च मजबूत होकर उभरे हैं। गायत्री प्रजापति उनके चहेते थे। उनकी मंत्रिमंडल में वापसी कराने में वे सफल रहे हैं। देर-सबेर दीपक सिंघल भी अगर बतौर मुख्य सचिव अपनी कुर्सी पर विराजित नजर आएं तो इसमें कदाचित ही किसी को आश्चर्य बोध हो। बकौल सपा प्रमुख, अखिलेश मान जाएंगे और अखिलेश ने विवाद की शुरुआत में ही कह दिया था कि नेता जी की बात कौन नहीं मानेगा। सभी मानेंगे। नेताजी को लग रहा था कि परिवार में उनके बेटे ने उनके आदेश को चुनौती दी है। उनके भाई रामगोपाल ने उनके आदेश को चुनौती दी है। शायद इसीलिए वे बजाय अपने बेटे के साथ खड़े होने के भाई शिवपाल का पक्ष लिया। यह सच है कि उनके सामने धर्मसंकट की स्थिति है। सत्ता और वर्चस्व की इस महाभारत में उनके अपने ही आमने-सामने हैं। उन्होंने अखिलेश को मना तो लिया लेकिन उस पर क्या बीतेगी, उसके मनोबल का क्या होगा, इस ओर देखना, समझना तक मुनासिब नहीं समझा। जहां तक परिवार में मतभेद की बात है तो उसकी दागबेल तो उसी दिन पड़ गई थी जब उन्होंने अपनी जगह अपने बेटे अखिलेश यादव को बतौर मुख्यमंत्री स्थापित करने की कोशिश की थी। उस समय भी शिवपाल मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे और आज भी यह भाव उनके दिलोदिमाग में बना हुआ है कि वे मुख्यमंत्री क्यों नहीं? असल मतभेद की वजह तो यह है। मुलायम के लिए शिवपाल भरत हो सकते हैं। कुर्सी पर उनकी खड़ाऊं रखकर पूजा कर सकते हैं लेकिन भतीजे के प्रति वह इस तरह का भाव तो नहीं ला सकते। भरत को भी राम की बजाय लव-कुश को सामने रखना होता तो वे भी उनकी खड़ाऊं का राज चलाने का निर्णय शायद ही लेते। पहले किसानों को रसीद मिला करती थी, उस पर लिखा होता था कि यह रसीद नहीं है लेकिन वह होती रसीद ही थी। मुलायम सिंह यादव यह भी जानते हैं कि यह पहला मौका नहीं है जब शिवपाल और अखिलेश आमने-सामने आए हैं। मुख्यमंत्री बनने से आज तक दस बार चाचा-भतीजा आमने-सामने आ चुके हैं। कौमी एकता दल के विलय, अमर सिंह की सपा में वापसी, अखिलेश समर्थकों सुनील साजन और आनंद भदौरिया की शिवपाल यादव द्वारा बर्खास्तगी तो दोनों के बीच विवाद की वजह बनी ही। 14 अगस्त को शिवपाल ने मैनपुरी की एक सभा में यहां तक कह दिया कि अधिकारी उनकी सुन नहीं रहे। सपा नेता जमीन कब्जाने में जुटे हैं, अगर ऐसा ही रहा तो वे अपने पद से इस्तीफा दे देंगे। दीपक सिंघल की मुख्यमंत्री की इच्छा के विपरीत मुख्य सचिव के रूप में तैनाती, उन्हें उनके पद से मुख्यमंत्री द्वारा हटाया जाना,शिवपाल की इच्छा के विपरीत डीपी यादव के टिकट का अखिलेश के विरोध के चलते काटा जाना,बिहार चुनाव के महागठबंधन से सपा का अलग होना,फिल्म विकास परिषद में शिवपाल और अमर सिंह के दबाव में जयाप्रदा को वरिष्ठ उपाध्यक्ष बनाया जाना, मथुरा का जवाहरबाग अतिक्रमण और हिंसा कांड और अखिलेश के खिलाफ शिवपाल का मोर्चा खोला जाना दोनों के बीच तल्खी की वजह बनते रहे। हर बार यही दावे किए गए कि परिवार में मतभेद नहीं है लेकिन सच तो यह है कि देश का सबसे बड़ा यह राजनीतिक कुनबा दो खेमों में बंट गया है। एक खेमा शिवपाल, उनके बेटे और भतीजे धर्मेंद्र यादव का है तो दूसरा खेमा रामगोपाल यादव और अखिलेश यादव का है। मौजूदा अंतर्कलह में बाहरी व्यक्ति के हस्तक्षेप का आरोप मुख्यमंत्री, रामगोपाल यादव ने लगाया है और जिस तरह शिवपाल खेमा इससे कन्नी काटता नजर आया है, उसे बहुत हल्के में नहीं लिया जा सकता। मुलायम सिंह ने भले ही अपने परिवार को टूटने से बचा लिया है लेकिन यह झगड़ा टलने वाला नहीं है। अगर अखिलेश यादव की स्वच्छ और विकास पुरुष की छवि बनाए रखनी है तो भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना होगा। आपराधिक छवि के लोगों को सपा से दूर रखना होगा। अखिलेश यादव प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए तो इस मकसद में सफल भी हो सकते थे लेकिन जब प्रदेश में पार्टी की कमान शिवपाल यादव के हाथ में होगी तो वे हस्तक्षेप किस आधार पर करेंगे? वे तो अपनी पसंद के प्रत्याशियों तक का अनुमोदन नहीं कर सकेंगे?भले ही इस बात के दावे किए जाएं कि परिवार में मतभेद जैसा कुछ नहीं हैं लेकिन यह झगड़ा तो वर्ष 2002 से ही चल रहा है। अखिलेश का मुख्यमंत्री बनना भी मुलायम के कुनबे को खल रहा था और आज भी इस हालात में कोई कमी नहीं आई है। यह सच है कि मुलायम सिंह यादव ही है जो परिवार को फूट से बचाए हुए हैं लेकिन इसकी सर्वाधिक कीमत अखिलेश यादव को चुकानी पड़ रही है। वे अपने मन का अधिकारी तक नहीं रख पा रहे। खुलकर कोई निर्णय नहीं ले पा रहे। मुलायम सिंह यादव का मौजूदा निर्णय उनके मनोबल को कमजोर करने वाला है।
——-सियाराम पांडेय ‘शांत’