7.3 औसत आर्थिक वृद्धि दर रही बीते चार साल में
संप्रग-2 सरकार के आखिरी दो साल में अर्थव्यवस्था वृद्धि की औसत दर 5.9% रही थी। वहीं, बीते 4 साल में अर्थव्यवस्था की रफ्तार औसतन 7.3% रही है। नोमुरा समूह ने 2017-18 की चौथी तिमाही के लिए वृद्धि दर 7.7% रहने का अनुमान लगाया है। वित्त वर्ष 2012-13 में महंगाई दर 10.1% और 2013-14 में 9.3% रही थी। वहीं, राजग शासन के पिछले चार साल में यह औसतन 5.9, 4.9, 4.5 और 3.5% रही। संप्रग सरकार में चालू खाते का घाटा भी आसमान छू रहा था, जो इस समय जीडीपी से 2% कम है। इसका देश के राजकोषीय घाटे और मौद्रिक नीति पर अच्छा असर पड़ा। सरकार ने आरबीआई को महंगाई दर 4% के इर्दगिर्द रोकने के लिए मौद्रिक नीति बनाने का निर्देश दिया। इसी दिशा में चलते रहे तो अगले दशक तक भारत दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकता है।
इंफ्रा परियोजनाओं में पीएम की नजर: सरकार को बड़े सुधारों के कारण ही आर्थिक वृद्धि दर 5.9 से 7.3% पहुंचाने में कामयाबी मिली। जब नरेंद्र मोदी ने पद संभाला, तब कई इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं पर्यावरण मंजूरी नहीं मिलने के कारण अटकी पड़ी थीं। पीएम ने हस्तक्षेप कर परियोजनाओं को शुरू कराया। विदेशी निवेश आकर्षित करने के लिए कर प्रणाली में सुधारी।
एफडीआई की सीमा बढ़ी: सरकार ने बीमा क्षेत्र में एफडीआई सीमा 26 से बढ़ाकर 49% की। इसके बाद केंद्र ने रक्षा क्षेत्र में पहले 26% एफडीआई को मंजूरी दी, फिर बढ़ाकर 49% तक कर दिया। कुछ शर्तों के साथ रक्षा क्षेत्र में 100% एफडीआई तक की छूट दी गई है। इसके अलावा भारत में तैयार होने वाले खाद्य उत्पादों की मार्केटिंग में 100% एफडीआई को अनुमति दी। इससे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) 2013-14 के 36 अरब डॉलर से 2016-17 में 60 अरब डॉलर पर पहुंच गया।
एनपीए पर सरकार सुस्त: सरकारी बैंकों के फंसे कर्ज के मामले निपटाने में सरकार सुस्त रही, लेकिन दिवालिया कानून, 2016 को लागू करने में कामयाब रही। नतीजतन आरबीआई धीमे-धीमे इस समस्या से निपट रहा है।
कई कड़े फैसले भी हुए
मोदी सरकार ने कुछ कड़े फैसले भी लिए। इसी के तहत 8 नवंबर, 2016 को 500 और 1000 के करेंसी नोटों को चलन से बाहर कर दिया गया। इसके कुछ समय बाद सरकार ने कई अप्रत्यक्ष करों को खत्म कर वस्तु व सेवा कर (जीएसटी) लागू किया। इस पर लोगों ने कहा कि जीएसटी से देश की अर्थव्यवस्था बुरी तरह लड़खड़ा जाएगी। इसके उलट आर्थिक वृद्धि की दर में महज एक फीसदी की गिरावट आई। इससे साफ हुआ कि निवेशकों ने सरकार की नीतियों पर भरोसा ही नहीं जताया, बल्कि समर्थन भी किया।
अरविंद पनगढ़िया, पूर्व उपाध्यक्ष, नीति आयोग
न्यायपालिका और सरकार – तनाव घट ही नहीं रहा
मौजूदा सीजेआई 2 अक्तूबर को रिटायर हो रहे हैं। लेकिन क्या मोदी सरकार देश के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में इंदिरा गांधी की राह पर चलेगी…
पिछले चार सालों के दौरान सरकार और न्यायपालिका के बीच कई मामलों को लेकर तनाव बना रहा। चाहें वह जज लोया की मृत्यु की छानबीन का मामला हो या उच्च न्यायपालिका में नियुक्तियों का। सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम के चार सदस्यों की प्रेस कांफ्रेंस का मामला तो अभूतपूर्व था ही। लेकिन मोदी सरकार के पांचवें साल में यह सुधरता तो नहीं दिख रहा।
जहां तक उत्तराखंड हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस के एम जोसेफ की सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति को लेकर केंद्र सरकार की आपत्ति का सवाल है, मुझे उसमें ज्यादा दम नहीं लग रहा है। लेकिन अभी तक दोनो पक्षों ने अपनी मर्यादा का पालन किया है। सरकार को कॉलेजियम की संतुस्ति को एक बार वापस करने का अधिकार है। वह उसने किया है। लेकिन अभी तक कॉलेजियम ने इसे वापस सरकार के पास नहीं भेजा है। यदि सरकार फिर उसे वापस करती है तो गलत है, असंवैधानिक है। लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता तो कुछ भी गलत नहीं हो रहा है।
न्यायपालिका पर दबाव बनाने के लिए कांग्रेस की आलोचना होती रही है। इंदिरा गांधी ने कई न्यायाधीशों की वरिष्ठता को नजरअंदाज करते हुए अपने खास लोगों को मुख्य पदों पर बैठाया था। मौजूदा सीजेआई 2 अक्टूबर को रिटायर हो रहे हैं। लेकिन क्या मोदी सरकार जस्टिस रंजन गोगोई को देश का मुख्य न्यायाधीश नियुक्ति करेगी या फिर वह भी इंदिरा गांधी की राह पर चलेगी, यह देखने वाला होगा। आखिर वे भी तो प्रेस कांफ्रेंस करने वाले जजों में शामिल थे।
इस एक फैसले पर बहुत सी बातें निर्भर होंगी। सीजेआई द्वारा मनमुताबिक बेंच को केस सौंपने का मामला भी सामने है। लोया मामला एक बेंच को सौंपा गया तो अलग फैसला आया। हो सकता है कि अगले मुख्य न्यायाधीश इस केस को नए सिरे से सुनवाई के लिये किसी दूसरी बेंच को सौंप दें तो कुछ और फैसला भी मिल सकता है। लेकिन सरकार और न्यायपालिका के बीच छाया तनाव मुझे तो कम होता नजर नहीं आ रहा है। – जस्टिस अशोक गांगुली सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज
आलोचना का हक तो है
स्वस्थ लोकतंत्र में किसी भी संस्था की आलोचना बेहतरी का मार्ग भी प्रशस्त करती है। सरकार की न्यायपालिका की आलोचना को स्वस्थ नजरिये से देखा जाना चाहिए। केंद्र सरकार के चार साल के कार्यकाल में कई बार न्यायपालिका और सरकार के बीच मतभेद सामने आए। जजों की नियुक्ति प्रक्रिया, अदालतों में जजों की संख्या जैसे कई मुद्दों पर एक दूसरे के लिए विपरीत शब्दों का इस्तेमाल हुआ। इस साल सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों का चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ प्रेस कांफ्रेंस, उत्तराखंड हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस केएम जोसेफ की सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति प्रस्ताव पर विवाद और विपक्षी दलों द्वारा चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ संसद में महाभियोग प्रस्ताव ने अंतरराष्ट्रीय सुर्खियां बटोरी।
कुछ चुनिंदा अवसरों पर सरकार ने शीर्ष अदालत की आलोचना की तो कुछ मामलों में संविधानविद् दो फाड़ हो गए। एक वर्ग ने इसे सरकार व न्यायपालिका के बीच युद्ध के रूप में प्रचारित किया। मेरा मानना है कि स्वस्थ लोकतंत्र में न्यायपालिका आलोचनाओं के दायरे से बाहर नहीं है। अगर किसी मुद्दे पर सरकार न्यायपालिका की आलोचना करती है तो इसे शीर्ष अदालत पर सरकारी दबाव के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। स्वस्थ लोकतंत्र में किसी भी संस्था की आलोचना बेहतरी का मार्ग भी प्रशस्त करती है। जजों की नियुक्ति सहित कई मौकों पर सरकार द्वारा की गई न्यायपालिका की आलोचना को स्वस्थ नजरिये से देखना चाहिए।
चीफ जस्टिस के खिलाफ चार जजों की प्रेस कांफ्रेंस और बाद में कुछ विपक्षी दलों द्वारा सीजेआई के खिलाफ लाए गए महाभियोग प्रस्ताव पर भी सरकार ने ठीक से अपनी भूमिका निभाई। इस मामले में सीनियर जजों ने सही रास्ता नहीं अपनाया, जबकि विपक्ष राजनीति से प्रेरित होकर महाभियोग का प्रस्ताव लाया। यह सीधे-सीधे न्यायपालिका की छवि को नुकसान पहुंचाने वाला कदम था।
हालांकि राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू ने जल्द फैसला करते हुए महाभियोग प्रस्ताव के नोटिस को खारिज कर दिया। अंत में मैं फिर कहना चाहूंगा कि विशिष्ट संस्थाओं को आलोचना से नहीं बचाना चाहिए। सरकार को भी शीर्ष न्यायपालिका की आलोचना करने और अपना पक्ष रखने का हक है। इससे एक बेहतर संतुलन पैदा होता है। -सोली सोराबजी संविधान विशेषज्ञ व पूर्व अटॉर्नी जनरल
रीति बदली, नीति में बदलाव की दरकार…
संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता में गिरावट बड़ी चिंता…
चार वर्ष पूर्व जब केंद्र में पीएम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में नई सरकार ने शपथ ली थी तो सर्वाधिक चर्चा नौकरशाही की कार्य संस्कृति में संभावित बदलावों को लेकर ही थी। अधिकारियों को अधिक अधिकार, काम करने की आजादी और पहले से अधिक जिम्मेदार बनाए जाने की संभावना व्यक्त की जा रही थी। अब चार साल बाद अगर देश में नौकरशाही की स्थिति का आकलन करें तो मेरी समझ से इस क्षेत्र के कई हिस्सों में चीजें तो बदली हैं, मगर बड़े बदलावों की दरकार अब भी बनी हुई है।
चार साल के कार्यकाल में जो सबसे बड़ा परिवर्तन दिखाई दिया वह विभिन्न पदों में चयन और स्थायित्व से जुड़ा था। सरकार ने महत्वपूर्ण पदों पर बेहतर व्यक्ति का चयन किया। छोटे-बड़े विवादों या अन्य कारणों से महत्वपूर्ण पदों पर बैठे व्यक्तियों की आनन फानन विदाई की परंपरा खत्म हुई। कई मोर्चे पर अधिकारियों को काम करने की आजादी मिली और उनके आइडिया को भी हाथों हाथ लिया गया।
अन्य पीएम की तुलना में पीएम मोदी ने नौकरशाही से लगातार सीधा संवाद रखते हुए काम की जिम्मेदारी का लगातार अहसास भी कराया। इसी का नतीजा है कि सरकार ने हर गांव में बिजली, सभी को बैंक खाते, मुफ्त गैस कनेक्शन, सड़क निर्माण जैसी अपनी महत्वाकांक्षी योजनाओं को योजनाबद्ध तरीके से सफलतापूर्वक अंजाम तक पहुंचाया। फिर अधिकारियों-कर्मचारियों के लिए अपनी संपत्ति की घोषणा अनिवार्य करने की पहल से भी इस क्षेत्र में बड़ा और सकारात्मक बदलाव आया।
बड़े बदलाव की दरकार विभिन्न क्षेत्रों में अब भी पहले की तरह कायम है। मसलन देश की नौकरशाही में अब भी ग्रुप ए और बी स्तर के अधिकारियों और ग्रुप सी और डी स्तर के कर्मचारियों की संख्या में बड़ा अंतर कायम है। ग्रुप ए और बी जिसे अधिकारी वर्ग कहा जाता है कि उसकी कुल नौकरियों में भागीदारी महज 12 फीसदी है। शेष 88 फीसदी कर्मचारी वर्ग हैं। सिंगापुर की तर्ज पर अगर मोदी सरकार इस अंतर को कम करती तो सरकार के कामकाज की रफ्तार और तेज होती। इसके अलावा मोदी सरकार ने नौकरशाही को बिना किसी भय के काम करने का निर्देश देने के साथ जिम्मेदारी तो तय की, मगर इसे बेहतर बनाने के लिए सेफ गार्ड उपलब्ध नहीं करा सकी।
चार साल के कार्यकाल में मेरी चिंता संवैधानिक संस्थाओं के साथ-साथ जांच एजेंसियों की विश्वसनीयता में आई गिरावट है। बीते चार साल में एक भी उदाहरण ऐसा नहीं है जिसमें सीबीआई, एनआईए, आयकर विभाग, प्रवर्तन निदेशालय जैसे जांच एजेंसियों ने सत्ता पक्ष से जुड़े लोगों के खिलाफ भी जांच की हो। इस क्षेत्र में संतुलन न होने से इन एजेंसियों की साख को गहरा धक्का लगा है।
बीते चार साल में चुनाव आयोग की विश्वसनीयता प्रभावित हुई है तो जजों की नियुक्ति के मामले में सरकार का हस्तक्षेप खुल कर सामने आया है। बड़ी चिंता आरटीआई कानून को कमजोर किए जाने और चार साल बाद भी लोकपाल की नियुक्ति न होने की भी है। मेरा मानना है कि आरटीआई कानून के तहत सूचना हासिल करने की राह को इस दौरान दुश्कर बनाया गया है।
बीके चतुर्वेदी पूर्व कैबिनेट सचिव
रक्षा नीति – अब चीन से आंख मिलाकर बातचीत…
रक्षा बजट की कमी को शक्ति संतुलन से पाट रही सरकार
रक्षा और सामरिक मामलों में बजट की कमी और ताकतवर देशों के रुख में आए बदलाव के कारण उपजी वैश्विक परिस्थिति में भारत के लिए नए सिरे से शक्ति संतुलन बनाना अपरिहार्य हो गया। मोदी सरकार चार साल के कार्यकाल में इस शक्ति संतुलन को कायम करने में काफी हद तक सफल रही है। सरकार की समस्या यह रही कि वह रक्षा मामलों में जिस तेजी से काम चाह रही थी वह नहीं हो सका। चार साल में सरकार रक्षा बजट में इजाफा नहीं कर पाई। विकल्प के तौर पर एक तरफ अमेरिका से दोस्ती और दूसरी तरफ चीन के साथ कूटनीतिक तालमेल बनाने की कोशिश साफ महसूस की जा सकती है।
रक्षा व सामरिक लिहाज से भारत के लिए पाकिस्तान बड़ी समस्या नहीं। असल मसला चीन का है जिसकी अर्थव्यवस्था भारत से पांच गुना अधिक और रक्षा मामले में वह चार गुना ज्यादा ताकतवर है। उसपर चीन की समय समय पर की जाने वाली दोकलम जैसी पैतरेबाजी को भी साधने की कोशिश पिछले चार साल से चल रही है। इसे सरकार की सफलता कहा जा सकता है कि चीन के मुकाबले अमेरिका से नजदीकी रूस जैसे परंपरागत मित्र की कीमत पर नहीं हुई है। चीन-रूस-पाकिस्तान गठबंधन और चीन पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर (सीपीईसी) के असर को भी भारत ने फिलहाल काबू में कर रखा है।
रक्षा क्षेत्र में भारत रूस से अभी भी करीब आठ फीसदी आयात करता है और इसे बढ़ाने पर बातचीत हो रही है। सीमा पार आतंकवाद, एनएसजी सदस्यता और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में विस्तार जैसे अहम मुद्दों पर भारत को रूस और अमेरिका दोनों का साथ मिला है। उधर फ्रांस, जर्मनी और जापान जैसे मजबूत अर्थव्यवस्था वाले देश भी भारत के साथ खड़े दिख रहे हैं। ऐसे में भारत अगर चीन को आंखें नहीं दिखा सकता तो आंखें झुकाकर खड़े रहने की स्थिति भी नहीं है।
देश को रक्षा क्षेत्र में बजट की मार पड़ रही है। लिहाजा सरकार अल्पकालीन और दीर्घकालीन योजनाओं के बीच उलझ गई है। रक्षा उत्पादन में मेक इन इंडिया की नीति को ठोस शक्ल लेने में लंबा वक्त लगेगा। इस मामले में सुधार को भी परवान नहीं चढाया जा सका है। डिफेंस कॉरिडोर जैसी योजनाएं भी एक दो साल का मसला नहीं। अभी रक्षा मंत्रालय विभिन्न योजनाओं को हरी झंडी देने की प्रक्रिया में ही लगा है।
इस सरकार के पास सिर्फ एक साल का समय बचा है। लिहाजा इस क्षेत्र में किसी बड़े जादू की उम्मीद नहीं की जा सकती। रक्षा मंत्रालय ने 30 दिन के युद्ध केलिए पर्याप्त तैयारी के मकसद से हाल ही में 15000 करोड़ रुपए का आबंटन किया है। लेकिन इसे भी पूरा करने में दस साल का वक्त लग जाएगा। यही वजह है कि मोदी सरकार महाशक्तियों के साथ बड़ी सूझबूझ से दोस्ती गांठ रही है।
सी राजामोहन रक्षा एवं सामरिक मामलों के विशेषज्ञ
कूट नीति- अनौपचारिक शिखर वार्ताएं अहम पहल
इसमें कोई दो राय नहीं है कि महत्वपूर्ण मंचों पर भारत की भूमिका पहले की तुलना में बेहद मजबूत हुई है…
सत्ता में आते ही विदेश नीति के क्षेत्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुड नेबरहुड पॉलिसी और सभी देशों से बराबरी के स्तर पर बातचीत का वादा किया था। अब चार साल बाद इन वादों को याद करें तो वैश्विक स्तर पर बड़े परिवर्तनों के कारण जहां पड़ोस भारत की चिंता की वजह बना हुआ है, वहीं मोदी सरकार सभी देशों से बराबरी के स्तर पर बातचीत के वादे पर पूरी तरह से खरी उतरी है। वैश्विक मंच पर भारत की कूटनीतिक धमक बढ़ी है। हालांकि अमेरिका फर्स्ट की ट्रंप सरकार की नीति और ईरान के खिलाफ मोर्चेबंदी ने भारत की चुनौतियां बढ़ा दी हैं।
उपलब्धियों की बात करें तो इसमें कोई दो राय नहीं है कि महत्वपूर्ण मंचों पर भारत की भूमिका पहले की तुलना में बेहद मजबूत हुई है। अरब और मुस्लिम देशों से तालमेल बढ़ने के साथ मोदी सरकार ने ताकतवर देशों से किसी को नाराज किए बिना एक खूबसूरत कूटनीतिक संतुलन कायम किया है। दोकलम विवाद और एशिया प्रशांत क्षेत्र में अपनी कूटनीति के जरिए भारत चीन को यह संदेश देने में सफल रहा है कि उसे अन्य छोटे देशों की तर्ज पर झुकाना आसान नहीं है। अमेरिका फर्स्ट नीति के तहत ट्रंप सरकार के जलवायु परिवर्तन समझौते से हटने के बाद सोलर एजर्नी की राह पर यूरोपीय देशों के साथ आगे बढ़ कर भारत ने अमेरिका को भी संदेश देने में कामयाबी हासिल की है।
चौथे साल में पीएम मोदी की अनौपचारिक शिखर वार्ता की कूटनीति को भी अहम माना जा सकता है। इसके जरिए जहां उन्होंने विभिन्न मुद्दों पर चीन के समक्ष भारत का रुख स्पष्ट किया है। वहीं रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ अनौपचारिक शिखर बैठक के जरिए रूस को चीन और पाकिस्तान के ज्यादा करीब जाने से रोका है। इसके अलावा खाड़ी देशों में अपने नागरिकों को बचाने के लिए भारत के बचाव अभियान की दुनिया ने तारीफ की है।
जहां तक पड़ोसी देश का सवाल है कि अमेरिका को पाकिस्तान के प्रति अपने रुख में परिवर्तन लाने में तो भारत कामयाब रहा है, मगर संबंधों के मामले में स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। खासतौर से चीन का वर्ष 2050 तक आर्थिक, सामरिक सहित कई क्षेत्रों में दुनिया का नंबर एक देश बनने की मुहिम और इस क्रम में उसकी ओर से किया गया निवेश भारत के लिए चिंता की बात है। चीन लगातार भारत के पड़ोसी देशों को साधने में जुटा है।
ऐसे में भारत को साउथ एशिया और इस्ट एशिया में शामिल देशों से संपर्क साधने की रणनीति पर तेजी से काम करना होगा। खाड़ी देशों में अस्थिरता के विकल्प स्वरूप भारत को अपने नागरिकों की अफ्रीकी देशों में पहुंच बढ़ानी होगी।
शशांक पूर्व विदेश सचिव
मोदी सरकार की कल्याणकारी योजनाओं ने चार साल में 22 करोड़ गरीब परिवारों को लाभ पहुंचाया है। यह उदाहरण है कि जनहितैषी व्यवस्था कैसे काम करती है।