गीता योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के श्रीमुख की वाणी है। आदिशास्त्र श्रीमद्भगवतगीता का यथावत भाष्य यथार्थ गीता है। सरकारी योजनाओं में अरबों-खरबों खर्च कर और सब्सिडी से भी समाज में जो भाईचारा स्थापित नहीं हो पा रहा है, वह यथार्थ गीता के माध्यम से सहजता से प्राप्त हो जाएगा। यह कहना है यथार्थ गीता के रचनाकार परमहंस स्वामी अड़गड़ानंद जी महाराज का। धर्म व समाज से जुड़े मुद्दों पर उन्होंने अपने शिविर में दैनिक जागरण प्रतिनिधि ज्ञानेंद्र सिंह से बात की। प्रस्तुत है प्रमुख अंश…।
यथार्थ गीता क्या है? इसकी रचना का विचार कैसे आया?
गीता हमें जीवन का सही रास्ता दिखाती है और ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाती है। चूंकि योगेश्वर भगवान कृष्ण को साधारण रूप में व्यक्त किया गया है, इसलिए इसे यथार्थ गीता कहा जाता है। इसकी रचना में गुरुजी की दैवीय दिशा सहायक रही। धर्म को समझने के लिए आदिशास्त्र श्रीमद्भागवत के यथावत भाष्य को संकलित करने के लिए ही इसकी रचना की गई। भारत धर्मप्राण देश है और यहां की प्रत्येक समस्या के मूल में धार्मिक भ्रांतियां हैं, जिनका समाधान भी धार्मिक होना चाहिए।
यथार्थ गीता में भगवान श्रीकृष्णोक्त के वही सात सौ श्लोक हैं, जो गीता में हैं। साथ ही 25 प्रश्न ऐसे हैं, जिससे यथार्थ गीता को स्पष्ट किया गया है। धर्म क्या है, युद्ध क्या है, वर्ण क्या है, वर्णशंकर क्या है, शरीर यात्रा क्या है, मनुष्य शुद्ध है अथवा अशुद्ध, पाप क्या है, पुण्य क्या है, भजन की जागृति क्या है जैसे ज्वलंत सवालों के सम्यक समाधान के लिए ही यथार्थ गीता की रचना की गई है।
संतों पर गंभीर आरोप लग रहे हैं, इसे किस रूप में लिया जाए?
देखिए, संत शब्द सत शब्द के कर्ताकारक का बहुवचन है। अर्थ है साधु, संन्यासी, विरक्त या त्यागी पुरुष या महात्मा। संत उस व्यक्ति को कहते हैं, जो सत्य आचरण करता है तथा आत्मज्ञानी है। वह संत ही नहीं हैं, जो आपराधिक मामलों में जेल में हैं। संन्यासियों के वेश में वे अपराधी ही हो सकते हैं। संतों को अपने आचरण का भी ख्याल रखना होगा, क्योंकि कुछ संतों पर गलत आरोप भी लग जाते हैं।
कुछ संत अपने उत्पाद बाजार में उतार रहे हैं, इसे आप किस रूप में देखते हैं?
यह प्रवृत्ति संतों में नहीं आनी चाहिए। संत जब धन की लालसा में भागने लगता है तब वह महात्मा नहीं रह जाता। जो लोग अपने उत्पाद बाजार में उतार रहे हैं, वो बिजनेसमैन कहलाएंगे। फिर उसके उपासक नहीं रह जाएंगे, लोग उसके उपभोक्ता हो जाएंगे।
धर्म क्या है, सामाजिक व्यवस्था और धर्म में क्या अंतर है?
मर्यादा पुरुषोत्तम रामचंद्र ने धर्म की परिभाषा बताई है-परहित सरिस धर्म र्नंह भाई, परपीड़ा सम र्नंह अधमाई। यानी किसी को सुख देने से बड़ा कोई धर्म नहीं है और किसी को दुख देने से बड़ा कोई अधर्म नहीं है।
इस कुंभ को आप किस नजर से देखते हैं?
इस कुंभ में दिव्यता और भव्यता है। धर्म-अध्यात्म की नगरी से पूरे विश्व को आध्यात्मिकता के साथ समरसता का संदेश जा रहा है। संगम के पावन तट से पूरी दुनिया को स्वच्छता का भी संदेश जा रहा है।
आरक्षण से क्या समाज का उद्धार हो सकेगा?
आरक्षण से अब सभी को ऊपर उठना चाहिए। फिलहाल जो इसके आरक्षण के हकदार हैं, उन्हें सरकार अपने हिसाब से आरक्षण दे रही है। इस पर टिप्पणी नहीं करना चाहता, मगर अब आरक्षण पर ज्यादा जोर नहीं दिया जाना चाहिए।
Vishwavarta | Hindi News Paper & E-Paper National Hindi News Paper, E-Paper & News Portal