प्रदेश में सरकारी नौकरियों में पिछड़ों की भागीदारी का पता लगाने के लिए कमेटी गठित करने का फैसला भाजपा की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा नजर आ रहा है। भाजपा की तैयारी विपक्ष को उसी के दांव से मात देने की दिख रही है क्योंकि आगामी लोकसभा चुनाव के दौरान कम से कम उत्तर प्रदेश में यह बड़ा मुद्दा हो सकता है।
भाजपा इसके सहारे विपक्ष खासतौर से सपा व बसपा को अति पिछड़ों और अति दलितों के बीच कठघरे में खड़ा कर सकती है। वह यह सवाल भी उठा सकती है कि सामाजिक न्याय के नाम पर सियासत करने वाले इन दलों ने सिर्फ कुछ जातियों का ही ख्याल रखा।
दरअसल, राजनाथ सिंह सरकार ने सामाजिक न्याय समिति गठित कर सरकारी नौकरियों में पिछड़ों व दलितों की भागीदारी के आंकड़े जुटाए गए थे। सिंह ने भी उस समय यह समिति इस तर्क के साथ ही गठित की थी कि भाजपा की सरकार उन जातियों को भी आरक्षण का लाभ देकर सरकारी नौकरियों में भागीदारी देना चाहती है, जिनका सरकारी सेवाओं में प्रतिनिधित्व नहीं है।
साफ है कि भाजपा की मौजूदा सरकार ने भी उसी राह पर चलते हुए इस समिति का गठन किया है। हालांकि इस बार इसका कार्यक्षेत्र सिर्फ पिछड़ी जातियों तक ही सीमित रखा गया है। इसके पीछे दलित वोटों से छेड़छाड़ न करने की फिक्र ही नजर आती है। वैसे तो 2001 से आज 17 साल बीत गए हैं। पर, मोस्ट बैकवर्ड क्लासेज ऑफ इंडिया के अध्यक्ष शिवलाल साहू कहते हैं कि लंबा वक्त बीत जाने के बावजूद सरकारी नौकरियों में जातियों की भागीदारी का अनुपात आज भी लगभग वैसा ही है। ज्यादातर नौकरियां कुछ विशेष जातियों में सिमटकर रह गई हैं।
यह भी अहम पहलू
कई अति पिछड़ी जातियों के युवकों के लिए सरकारी नौकरी आज भी सपना बनी हुई है। चूंकि इन जातियों की आबादी की गिनती अंगुलियों पर की जा सकती है। इसलिए सियासी दलों ने अपने एजेंडे में इनकी तरक्की व विकास की बात को शामिल करने की जरूरत नहीं समझी। खासतौर से कंबोज, कसगर, नक्काल, नट, बैरागी, बियार, भठियारा, मारछा, राय सिख, नानबाई, मीर शिकार, खागी, कतुआ, माहीगीर, दांगी, धाकड़, जोरिया, पटवा/पटहारा/पटेहरा/देववंशीय, छीपी/छीपा, जोगी, ढफाली, नायक, मिरासी, मेव/मेवाती, कोष्टा/कोष्टी, तेवर/सिघड़िया, गाड़ा जैसी जातियों को अंगुलियों पर गिरने लायक भी भागीदारी नहीं मिली।
अति पिछड़ा वर्ग आयोग बनाए बिना लाभ नहीं
अति पिछड़ों की सार्वभौमिक उन्नति के लिए सरकार को अति पिछड़ा वर्ग आयोग बनाना चाहिए। जो अति पिछ़ड़ों की आर्थिक, शैक्षिक व सामाजिक स्थिति का पता लगाते हुए सरकारी नौकरियों में भागीदारी का भी पता लगाए। साथ ही अति पिछड़ों को संवैधानिक रूप अधिकार दिलाने की दिशा में काम करे। इसी से अति पिछड़ों में भरोसा पैदा होगा क्योंकि आयोग का दर्जा संवैधानिक होगा। समिति का कोई मतलब नहीं है।
-डॉ. रामसुमिरन विश्वकर्मा, संरक्षक, मोस्ट बैकवर्ड क्लासेज ऑफ इंडिया