सियाराम पांडेय ‘शांत’
समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव इन दिनों डूबकर पानी पी रहे हैं और किसी को भनक तक नहीं लगने दे रहे हैं। विधानसभा चुनाव नजदीक आते ही उन्होंने अपने बेटे अखिलेश की लौहपुरुष वाली छवि बनानी शुरू कर दी है। मुलायम के परिवार में एक खास किस्म का नाटक चल रहा है और इस नाटक के राजदार उनके परिजन ही हैं। पार्टी कार्यकर्ता भी इस खेल से अनजान हैं। प्रत्यक्ष में तो शिवपाल और अखिलेश के बीच एक दूसरे को नीचा दिखाने का खेल चल रहा है लेकिन तमाम बड़े संघर्षों के बावजूद चाचा-भतीजे की एक ही वाहन पर सवारी सोचने-समझने वालों को खटकती तो है ही। पति-पत्नी के बीच भी अगर हूं-टूं हो जाती है तो कई- कई दिनों तक मुंह फुलव्वल के हालात बने रहते हैं। बड़ी मुश्किल से सुलह-समझौता होता है लेकिन शिवपाल और अखिलेश अभी लड़ते हैं और अभी सहज होकर एक ही वाहन में बैठ जाते हैं। ‘क्षणे रुष्ट: क्षण्ो तुष्ट:’ की यह सहजता समझ में नहीं आती जबकि काम दोनों एक दूसरे के विपरीत करते हैं। मुलायम सिंह यादव अक्सर अपने भाई शिवपाल का ही समर्थन लेते हैं, बेटे अखिलेश को हमेशा डांटते ही नजर आते हैं और इस बार के पार्टी सम्मेलन में तो उन्होंने अखिलेश को यहां तक चेतावनी दे दी कि एक सीत जीतकर दिखाओ तो जानें। इसके बाद भी अखिलेश ने कभी नेताजी की बात का माख नहीं माना और शिवपाल ने भी हमेशा यही कहा कि नेताजी अगर कहेंगे तो अपना बलिदान भी दे दूंगा। ऐसा आज्ञाकारी भाई और ऐसा बेटा कहां मिलेगा? अखिलेश की सरकार में फिर मंत्री बनेंगे कि नहीं, इस सवाल का भी शिवपाल के पास बेहद रटा-रटाया जवाब है कि नेताजी जो भी कहेंगे करूंगा। यह इस बात का साक्षी है कि इस सारे खेल के सूत्रधार नेताजी ही हैं। सारा फेमिली ड्रामा उन्हीं के निर्देशन का कमाल है। चाचा-भतीजे के बीच कोई संभवत: कोई विवाद नहीं है। यह सब अगला चुनाव जीतने और अन्य राजनीतिक दलों को उलझाए रखने का चरखा दांव है। नेताजी दरअसल यह दिखाना चाहते हैं कि उनका बेटा भ्रष्टाचार विरोधी है और उनकी भी नहीं सुनता। उसने तो अपने चाचा तक को नहीं बख्शा। जबकि वे जानते हैं कि समाजवादी पार्टी का युवा चेहरा भले ही अखिलेश हों लेकिन चुनाव में उनकी अपनी मुलायमी छवि ही काम आती है। साढ़े चार साल तक उनके परिवार में कोई कलह नहीं थी। सब कुछ सामान्य चल रहा था। अचानक शिवपाल यादव को जमीन कब्जाने वाले, शराब बिकवाने वाले नजर आने लगे जबकि शिवपाल यादव पर मथुरा में जवाहर पार्क कब्जाने के दोषी रामवृक्ष यादव का समर्थन करने के आरोप लगते रहे हैं। कौमी एकता दल के विलय का ख्याल भी अचानक ही तो नहीं आया होगा। अखिलेश यादव पर भी मुस्लिमों के प्रति अत्यंत उदारता बरतने के आरोप लगते रहे, अचानक उन्हें किसी मुस्लिम पार्टी में खोट क्यों नजर आ गई? अभी तक तो अखिलेश अपने बल-बूते पर चुनाव लड़ने की बात कर रहे थे लेकिन अकस्मात जब उनके चाचा ने लोहियावादियों, चरणसिंह वादियों और गांधीवादियों को एक साथ लेकर चुनाव लड़ने का दांव चला तो इसका मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने विरोध क्यों नहीं किया? यह जानते हुए भी कि उत्तर प्रदेश में छोटे दलों की कोई खास हैसियत नहीं है। इन दलों को साथ लेने का मतलब होगा, वहां उनके लिए सीटें छोड़ना और क्या समाजवादी पार्टी इस मोर्चे पर सभी सहयोगी दलों को संतुष्ट कर पाएगी? कदाचित नहीं। बिहार के चुनाव में उसे जितनी सीटें लड़ने के लिए मिली थीं, क्या उतनी सीटों को पाकर सपा प्रमुख संतुष्ट थे। उन्होंने सीबीआई के शिकंजे से बचने के लिए महागठबंधन तोड़ा था या वे इस बात से डर गए थे कि राजद और जद यू को उन्हें यूपी चुनाव में सीटें देनी होंगी और यह उस समय उन्हें घाटे का सौदा नजर आया था। अब वही प्रयोग अगर सपा करने जा रही है तो इससे उसे क्या खास फायदा होगा? अभी तो एक दल है। एक परिवार है तो रोज किच-किच हो रही है। महागठबंधन बनने के बाद तो रोज ही सरकार कठघरे में खड़ी नजर आएगी। सच तो यह है कि समाजवादी पार्टी समान विचारधारा वाले दलों का एक महागठबंधन बनाना चाहती है। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने महागठबंधन बनाने का दायित्व शिवपाल यादव को सौंप दिया है और वे मुलायम सिंह यादव की चिट्ठी विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रमुखों तक पहुंचाने भी लगे हैं। उनसे संपर्क और राय-मशविरे का सिलसिला भी उन्होंने शुरू कर दिया है। इसमें उन्हें कितनी कामयाबी मिलेगी, यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन यह तो तय है कि मुलायम परिवार को इस चुनाव में भाजपा से हार का डर लगने लगा है। संभव है, पािरवारिक कलह भी इसके मूल में हो। वर्ना मुख्यमंत्री के ‘एकला चलो रे’ के जयघोष के बाद भी कई राजनीतिक दलों का महागठजोड़ बनाने की क्या जरूरत पड़ गई। क्या यह माना जाए कि अखिलेश डाल-डाल तो शिवपाल पांत-पात चल रहे हैं? अगर विपक्ष सपा प्रमुख पर यह आक्षेप कर रहा है कि मुलायम सिंह से अपना घर तो संभल नहीं रहा। विभिन्न राजनीतिक दलों को वे क्या एक करेंगे? एक भोजपुरी गीत है। ‘आपन झुलनी संभालूं कि तोयं बालमा।’ यह गीत किसी न किसी रूप में मौजूदा गठबंधन नीति पर सटीक बैठता है।
इसमें संदेह नहीं कि यह सुनते-सुनते इस देश और प्रदेश की जनता के कान पक गए हैं कि सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव का परिवार एक है। उसमें कोई अंतर्कलह नहीं है। किसी प्रकार की कटुता और मनोमालिन्य नहीं हैं। वहां कोई संघर्ष नहीं है। इस तरह के दावे मुलायम, अखिलेश और शिवपाल भी कर रहे हैं लेकिन इस समाजवादी परिवार में समाजवाद नहीं है,यह इस बात से सिद्ध है कि पारिवारिक संबंधों में हर दिन नए मोड़ आ रहे हैं। एक दूसरे को नीचा दिखाने की मुहिम जारी है। भितरघाती दांव-पेंच हो रहे हैं और यह सब आम जनमानस ही नहीं, पार्टी नेताओं की भी दुविधा के सबब बने हुए हैं। अगर परिवार में कलह नहीं हैं तो पहले शिवपाल के कई मंत्रालय छीनने और फिर उन्हें मंत्रिमंडल से बर्खास्त करने की जरूरत क्याें पड़ी ? अगर मतभेद नहीं है तो अखिलेश यादव द्वारा तैयार वीडियो में मुलायम और शिवपाल को तरजीह न दिए जाने का औचित्य क्या है?
मतभेद नहीं है तो सपा के प्रदेश अध्यक्ष के रूप में शिवपाल का चाबुक अखिलेश समर्थकों पर क्यों चल रहा हैं। क्यों वे उन्हें चुन-चुनकर निशाना बना रहे हैं। अखिलेश समर्थक विधायकों, विधान परिषद सदस्यों के बाद उन्होंने जिस तरह वन मंत्री पवन पांडेय को छह साल के लिए पार्टी से बाहर किया है, उससे तो नहीं लगता कि परिवार में सब कुछ ठीक है। पहले तो वे अखिलेश के घर मिलने भी पहुंच जाते थे लेकिन अब तो उन्होंने यहां तक कह दिया है कि वे मुख्यमंत्री के मातहत नहीं हैं जो उनके पास जाएं। बगैर बुलाए वे उनके पास कभी नहीं जाने वाले। शिवपाल का यह बयान इस बात का साक्षी है कि सुलह की खिचड़ी अभी पकी नहीं हैं। मुलायम सिंह यादव ने तो अपनी ओर से भाई और बेटे को गले मिलवा दिया था लेकिन उसी मंच पर दोनों के बीच कहासुनी इस बात का द्योतक है कि नफरत की ज्वालामुखी पूरे वेग से धधक रही है। शिवपाल यादव ने स्पष्ट तौर पर कहा है कि सांप्रदायिकता से संघर्ष के लिए लोहियावादियों, चरण सिंह वादियों व गांधीवादियों को एकजुट करेंगे। पहले भी हमने बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान महागठबंधन किया था मगर वह गठबंधन टूट गया था और इसके लिए कौन लोग जिम्मेदार थे, यह भी किसी से छिपा नहीं है। उनका इशारा प्रो. रामगोपाल यादव की ओर था। शिवपाल यादव का परिवार जदयू, राजद, कांग्रेस, राक्रांपा, जनतादल एस और वामदलों को अपने साथ जोड़ने की हो सकती है लेकिन उत्तर प्रदेश में इनमें से किसी का भी अपना ठोस जनाधार नहीं है। जनाधारहीन दलों को जोड़ने का मतलब है अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना। अब सवाल है कि बिहार विधान सभा के चुनाव में ऐन वक्त पर दांव देने वाले मुलायम पर ये दल सहज ही कैसे यकीन कर पाएंगे? बिहार में लालू और नीतीश के बीच सब कुछ ठीक नहीं है, उसी तरह रालोद और कांग्रेस के बीच छत्तीसी रिश्ते किसी से छिपे नहीं हैं,ऐसे में राजद सपा से जुड़ती है तो जदयू का और रालाेद के जुड़ने पर कांग्रेस का सपा से जुड़ना नामुमकिन है। रही बात मुस्लिम चेहरे की तो आजम ने बेभरोसा पार्टी और मुसलमान थाली के बैंगन नहीं जो कोई भी लुढ़का दे,जैसी बात कहकर सपा की चिंता बढ़ा दी है। आशु मलिक की मुलायम से बढ़ती नजदीकी से तो आजम परेशान थे ही, अब तो अमर भी सपा से नहीं हटाए जा रहे। मुलायम सिंह ने उन्हें अपना भाई कह दिया है, ऐसे में आजम खान के पास सपा छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। यह सच है कि भले ही मुलायम का पारिवारिक कलह एक नूराकुश्ती भर हो लेकिन इस रोज-रोज के झगड़े से मुस्लिम समाज का रुझान मायावती की पार्टी बसपा की ओर हो रहा है। मुलायम अगर पारिवारिक कलह के इस धारावाहिक को राजनीतिक फायदे के लिए और आगे बढ़ाना चाहेंगे तो इससे सपा का यादव-मुस्लिम समीकरण टूटेगा। भाजपा और बसपा दोनों ही को इससे फायदा होगा। अखिलेश ने गत दिनों परिवार की शांति वार्ता में मुलायम की पोल गायत्री प्रजापति और दीपक सिंघल के मामले में पहले ही उतार दी है। अब भी कुछ शेष है, जितना जल्दी यह एपिसोड खत्म हो, उतना ही अच्छा है। वर्ना बहुत देर हो जाएगी। मुलायम परिवार के हाथ कुछ भी नहीं लगेगा, सिवा पछताने के।