“क्या कांग्रेस की रणनीतिक गलतियां और जातिगत राजनीति ने उसे यूपी में कमजोर किया? जानें, भाजपा और अन्य दलों के उदय के पीछे का सच।”
विशेष संवाददाता – मनोज शुक्ल
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का पतन और सत्ता से बेदखली का इतिहास
लखनऊ। उत्तर प्रदेश, भारत का सबसे बड़ा और सियासी रूप से सबसे अहम राज्य, कांग्रेस के लिए एक समय स्वर्णिम अवसरों की भूमि था। लेकिन 1967 में कांग्रेस ने यहां सत्ता खोई और उसके बाद वह आज तक पूरी तरह उभर नहीं सकी। साढ़े तीन दशकों से सत्ता से बाहर रहने वाली कांग्रेस को इस हालत तक पहुंचाने के पीछे कई कारण और राजनीतिक गलतियां जिम्मेदार हैं।
कांग्रेस का पतन और 1967 का निर्णायक मोड़
1967 का साल यूपी की सियासत में ऐतिहासिक साबित हुआ। इस साल कांग्रेस ने पहली बार उत्तर प्रदेश की सत्ता गँवाई। इसकी वजह थी कांग्रेस आलाकमान की अदूरदर्शिता, आपसी खींचतान, जातिगत राजनीति का उदय और विपक्ष का उभार।
श्यामलाल यादव की किताब ‘एट द पावर, द हार्ट ऑफ पावर, चीफ मिनिस्टर्स ऑफ उत्तर प्रदेश’ कांग्रेस के पतन के इन पहलुओं पर विस्तार से प्रकाश डालती है। स्वतंत्रता सेनानी और यूपी की पहली महिला मुख्यमंत्री सुचेता कृपलानी का कार्यकाल इस पतन की कहानी का महत्वपूर्ण अध्याय है। उनके समय जातिवाद और भ्रष्टाचार के आरोपों ने कांग्रेस की छवि को नुकसान पहुंचाया।
‘एट द पावर, द हार्ट ऑफ पावर, चीफ मिनिस्टर्स ऑफ उत्तर प्रदेश’
सुचेता कृपलानी का संघर्ष और कांग्रेस की गलती
1950 और 60 के दशक में कांग्रेस की अंदरूनी खींचतान के कारण यूपी की राजनीति में अस्थिरता आई। 1967 में जब कांग्रेस ने सत्ता खोई, तो यह केवल एक राजनीतिक हार नहीं थी, बल्कि कांग्रेस के संगठनात्मक ढांचे और जनाधार की कमजोरी का संकेत भी था।
श्यामलाल यादव लिखते हैं कि कांग्रेस आलाकमान ने विपक्ष के उभार और जनता की बदलती मांगों को समय पर नहीं समझा। नतीजतन, चरण सिंह के नेतृत्व में यूपी में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी। कांग्रेस के बड़े नेता, जैसे हेमवती नंदन बहुगुणा, पार्टी छोड़कर अलग राह पर चले गए।
इमरजेंसी और कांग्रेस का पतन
1975-77 के दौरान इंदिरा गांधी द्वारा लागू की गई इमरजेंसी ने कांग्रेस की जड़ें हिला दीं। यूपी में जबरिया नसबंदी और तानाशाही के आरोपों ने जनता को कांग्रेस से दूर कर दिया। इस दौरान नारायण दत्त तिवारी जैसे नेता दिल्ली से आदेश लेने में व्यस्त रहे, जिससे प्रदेश में कांग्रेस की पकड़ कमजोर होती गई।
जातिगत राजनीति और मंडल आंदोलन का प्रभाव
1960 के दशक में राम मनोहर लोहिया के ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’ के नारे ने यूपी में जातिगत गोलबंदी की नींव रखी। यह प्रक्रिया 1990 के दशक में मंडल आयोग की सिफारिशों के बाद तेज हुई। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने इन आंदोलनों का फायदा उठाकर कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया।
मायावती और मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं ने अपनी-अपनी रणनीतियों से कांग्रेस के वोट बैंक को बांट दिया। वहीं, 1980 के दशक में भाजपा के मंदिर आंदोलन ने कांग्रेस की स्थिति और कमजोर कर दी।
भाजपा का उदय और कांग्रेस का हाशिए पर जाना
1967 में जनसंघ (भाजपा का पूर्व रूप) का उदय यूपी में हुआ। 1990 के दशक में राम मंदिर आंदोलन के जरिए भाजपा ने हिंदुत्व के एजेंडे को प्रदेश की राजनीति के केंद्र में ला दिया। 2022 में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भाजपा ने लगातार दूसरी बार चुनाव जीतकर यूपी में अपनी स्थिति को अभूतपूर्व रूप से मजबूत कर लिया।
आज का परिदृश्य: कांग्रेस के लिए सबक
आज कांग्रेस यूपी में हाशिए पर है। 2024 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपनी खोई जमीन को वापस पाने की है। श्यामलाल यादव की किताब यह रेखांकित करती है कि कांग्रेस ने अतीत की गलतियों से सीख नहीं ली।
यदि कांग्रेस को यूपी में पुनः स्थापित होना है, तो उसे:
- स्थानीय नेतृत्व को मजबूत करना होगा।
- वोट बैंक की नई रणनीति बनानी होगी।
- युवाओं और महिलाओं को अपने एजेंडे में प्राथमिकता देनी होगी।
- जातिगत और सांप्रदायिक राजनीति का विकल्प खोजना होगा।
उत्तर प्रदेश कांग्रेस के लिए एक सबक है। 1967 से लेकर 2024 तक के सफर में कांग्रेस ने जो गलतियां कीं, उनका खामियाजा पार्टी को आज भी भुगतना पड़ रहा है। यूपी की राजनीति को समझे बिना कांग्रेस के लिए राष्ट्रीय स्तर पर वापसी करना मुश्किल होगा।
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