प्रतापगढ़। उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के भारत सेवा दल के संस्थापक राजाराम तिवारी का शनिवार को इलाहाबाद में देहान्त हो गया। उन्होंने 14 लाख से अधिक भूले-बिछड़ों को मिलाने का काम किया था। 88 वर्ष के राजाराम तिवारी ने इलाहाबाद में शनिवार को भोर में लगभग 4 बजे अन्तिम सांस ली। उनका पार्थिव शरीर पैतृक स्थान प्रतापगढ़ लाया गया जहाँ शोक संवेदना व्यक्त करने वालों की लम्बी लाइन लगी है।राजाराम को प्रशासन से जुड़े लोग एवं श्रृद्धालु उन्हें भूले-भटके के नाम से जानते थे। दूसरों के लिए जीवन बिताने वाले राजाराम तिवारी ने भारत सेवा दल के मुखिया के रूप में भूले भटकों को मिलाने का अभियान देश आजाद होने के एक वर्ष पूर्व 1946 में आयोजित माघ मेले से किया था। उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। अब तक 57 माघ मेला और 12 कुंभ, अर्द्धकुंभ मेले में लाखों भूले भटकों को मिलाने का काम कर चुके राजाराम ने अन्तिम सांस ली। उनके चार बेटे लालजी तिवारी, प्रकाश चन्द तिवारी, उमेश चंद्र तिवारी, रमेश चन्द तिवारी और उमेश चन्द है। वर्तमान में उमेश को भारत सेवा दल का अध्यक्ष नामित किया गया है जबकि खुद वह संचालक की भूमिका निभा रहे । उमेश चन्द ने बताया कि 2001 के महाकुंभ में एक लाख 22 हजार 766 भूले बिसरों को उनके परिजनों से मिलवाया था।
राजाराम ने टीन काटकर बनाया था भोंपू
पुराने दिनों के बारे में राजाराम तिवारी के बेटे उमेश चंद्र तिवारी ने बताया कि 1946 में आयोजित माघ मेले में लाउडस्पीकर न होने की वजह से टीन काटकर उसका भोंपू बनाया था। कुल नौ लोगों की टोली के साथ वह दिनभर मेले में पैदल घूमकर भूले बिसरों को मिलाते थे। भूले बिसरे शिविर में आने वाले लोगों के खाने पीने की व्यवस्था राजाराम खुद ही करते थे।मूल रूप से प्रतापगढ़ जिले के पूरे बदल नन्दू का पुरवा पोस्ट गौरा तहसील रानीगंज के मूल निवासी राजाराम का जन्म 10 अगस्त 1928 को हुआ था इनके पिता का नाम स्व.जगन्नाथ थे। जब उनकी उम्र 16 साल की थी तो वे कुंभ मेला घूमने आए थे। इसी दौरान उन्हें एक बुजुर्ग महिला मिली, जो अपने परिवार से बिछड़ गई थी। उस जमाने में लाउडस्पीकर की व्यवस्था भी नहीं थी, जिससे अनाउंस कराकर उनकी फैमिली को ढूंढा जा सके। उन्होंने महिला को परिवार से मिलाने के लिए हर जगह छान मारा, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। काफी जतन के बाद उन्हें वो जगह पता चल गई, जहां उनके घरवाले ठहरे हुए थे।इस घटना के बाद से उन्होंने ठान लिया कि मेले में एक ऐसा शिविर लगाएंगे, जहां भूले-भटके लोगों को मिलवाया जा सके। साल 1946 में 18 साल की उम्र में राजाराम तिवारी ने गंगा तट पर श्भूले-भटकेश् शिविर की शुरुआत की। मेले में बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक अगर कोई अपने परिवार से बिछड़ जाता है तो उसे इस शिविर में भेजा जाता है। यहां पूरी डिटेल पूछकर लाउडस्पीकर से अनाउंस किया जाता है। इसके बाद बिछड़ा हुआ व्यक्ति या उसका परिवार नाम सुनकर शिविर में आ जाता है।