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रस ही रास और रास ही कृष्ण

रस ही ब्रह्म है और रस ही रास है। इसीलिए ब्रह्म को ‘रसो वै स: ’ कहा गया है। ब्रह्म को रास रचाने की जरूरत क्यों हैं? यह जानने के लिए हमें भक्ति के गायन और नर्तन स्वरूप में जाना चाहिए। गायन के क्रम में गायक इतना तन्मय हो जाता है कि उसे दीन-दुनिया की सुधि नहीं रहती। वह बस संगीत का होकर रह जाता है। यही बात नृत्य पर भी लागू होती है। नाचते वक्त नर्तक या नर्तकी को शरीर का ध्यान कहां रहता है। भाव-भंगिमाएं नृत्य की जरूरत के अनुरूप स्वत: बन जाती है। इसके लिए अलग से कुछ खास नहीं करना पड़ता। नृत्य, गायन और वादन तीनों ही का संबंध रस से है। कविता और गीत तो संपूर्ण रस है ही। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में स्वयं को गायत्रीछन्दसामहम्ा‌् कहा। मतलब छंद कहा। छंद जीवन का द्वंद्व नहीं हो सकता। वह तो जीवनानंद है। जो बुराइयों को खींचकर अच्छाइयों का अपने भक्तों के बीच आरोपण ही तो श्रीकृष्ण है। जो अपनी ओर सहज ही खींच ले, वही तो श्रीकृष्ण है। धर्मग्रंथों में श्रीकृष्ण को पूर्णावतार कहा गया है। याेगिराज कहा गया है। नटवर कहा गया है। नाचना और नचाना उनका स्वभाव है। खुद नाचते हैं। रसखान की मानें तो गोपियां जरा सा मक्खन और छांछ दिखाकर उन्हें जब चाहे तब नचा लेती हैं। तािह अहीर की छोहरियां छछियां भरि छांछ पर नाच नचावैं। जिसके इशारे पर शेष, महेश, ब्रह्मा, सभी देवगण, नक्षत्रमंडल, धरती, आकाश सब नाचते हैं, वह अगर गोपियों के समक्ष नाचता है तो यह उनकी प्रेमलीला ही है। बड़े उन्मुक्त भाव से वह कहते हैं कि राधा मेरे जीवन का धन, राधा मेरा जीवन प्राण। राधा को जो आराधेगा होंगे उसके पूरण काम। यह अपने प्रेम के लिए किया गया अब तक का सबसे बड़ा किंतु विलक्षण वादा है। इसमें राधा की खुशी ही समाहित नहीं है बल्कि राधा में आस्था रखने वाले हर जन का िहत निहित है। श्रीकृष्ण लीलावतार है। लीलाएं तो भगवान राम ने भी की लेकिन उनकी लीलाएं आदर्शों एवं मर्यादाओं की सीमा में निबद्ध हैं लेकिन कृष्ण किसी सीमा में नहीं बंधते। भावनाओं का बंध उन्हें स्वीकार नहीं। वे ब्रजभूमि में गोपियों की मटकी ही नहीं फोड़ते। उन्हें रास के लिए बाध्य भी करते हैं। बांसुरी बजाकर। ‘थी रात शरद उत्फुल्ल बदन। खिल उठा अचानक हिर का मन। सोचा बुलवा लें गोप सखी। हो चीर हरण की लीला भी।’ यह रास लीला सामान्य लीला नहीं है। हर गोपी के साथ अलग-अलग कृष्ण । किसी को नहीं लगता कि कृष्ण उनके साथ नहीं। जिधर देखो, उधर कृष्ण। कृष्ण का नाचना सामान्य परिघटना नहीं है। वह नाचते हैं नागराज कालिया के फन पर। पति की दुर्दशा देख नाग पत्नियां उनके हाथ जोड़कर खड़ी हो जाती है। वे नाचते हैं ब्रजभूमि में। सारा दैवत्वशीर्ष झूम उठता है। उनके जैसा नृत्य रास रचाने की लीला भगवान शिव भी करते हैं। योगी मत्स्येंद्रनाथ के रूप में। 64 योगिनियों के साथ महारास करते हैं। उनका महारास एक दिन का नहीं, वर्षों चलता है। कृष्ट नटवर हैं तो शिव नटराज। नटवर रास करे तो शिव का भी तो फर्ज बनता है कि वह अपने नटराज स्वरूप को प्रकट करे। वे तांडव नृत्य करते हैं। उनके नृत्य से सारा संसार कांपता है लेकिन कृष्ण के महारास में धरती और आकाश प्रमुदित हो जाते हैं। प्रेम और प्रेमी का द्वैतभाव खत्म हो जाता है। एक तरफ सैकड़ों गोपियां और दूसरी ओर 64 योगिनियां। समय का अंतराल हो सकता है। श्रीकृष्ण प्रेम करते हैं तो खुलकर करते हैं। इसे सुदामा समझ सकते हैं। वे रोते हैं तो सुदामा के पैर धोने के लिए किसी अन्य जल की जरूरत नहीं होती। ‘पानी परात को हाथ छुयाे नहीं, नैेनन के जल से पग धोए।’ शायद इसीलिए वे दीनानाथ हैं। ‘दीनानाम्ा् नाथ: य: स: दीनानाथ:। ’भगवान श्रीकृष्ण जब प्रकट होते हैं तो अपना पूरा स्वरूप दिखाते हैं, यशोदा को भी और अर्जुन को भी और जब वे अपने दिव्य स्वरूप को तिरोहित करते हैं तो उसकी सुरति भी नहीं रहने देते। यह उनका स्वभाव है। रास की भूमिका तो तभी बन जाती है जब ब्रह्मा जी उनकी परीक्षा के लिए सभी ग्वाल बालों और बछड़ों का हरण कर लेते हैं लेकिन महीनों श्रीकृष्ण ग्वाल-बाल और बछड़े बने घूमते हैं, किसी को पता भी नहीं चलता। ब्रह्म के बारे में गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है कि ब्रह्म वह है जो कर के बिना भी काम करता है। ‘बिनु पद चलहिं, सुनहिं बिनु काना। कर बिनु कर्म करय विधि नाना। आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी वक्ता बड़ जोगी। ’ अपने इस कर्म को श्रीकृष्ण ने अपने कृष्णावतार में पूरा किया और अपने पूर्ण ब्रह्म होने के संकेत दिए। जबकि अन्य अवतारों में ऐसा कोई संकेत नहीं दिया गया। तभी तो कहा गया कि कृष्णं वंदे जगद्गुरुम्ा्।

                                                                                                                                                      —— सियाराम पांडेय ‘शांत’

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