नई दिल्ली। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के समिति हॉल परिसर में भारतीय भाषा केंद्र के अंतर्गत अमृत लाल नागर की जन्मशताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में विश्वविद्यालय के में एक शानदार कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इस कार्यक्रम का केंद्र बिंदु ‘‘हमारे समय का साहित्य और जन साहित्य में इतिहास’’ था।
कार्यक्रम स्वागत अभिभाषण से शुरू हुआ जिसकी अध्यक्षता और मंच संचालन प्रोफसर देवेंद्र चौबे ने किया। कार्यक्रम के पहले पड़ाव के अंतर्गत पुस्तक का लोकार्पण किया गया ‘‘जिसमें शहर की संस्कृति और इतिहास के कुछ सवाल’’ और ‘‘आधुनिक भारत के इतिहास लेखन के कुछ साहित्यिक स्रोत’’पुस्तक शामिल थी ये पुस्तके अमृत लाल नागर को समर्पित थीं। कार्यक्रम के अंतर्गत मुख्य वक्ता के रूप में जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर और प्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पांडेय मौजूद रहें।। प्रोफ़ेसर चित्रा मुद्गल नें कार्यक्रम के अंतर्गत अपने लिखी पुस्तक ‘नालासोपारा पो.बॉक्स नं. 203’ का रचना पाठ किया। पूनम एस. कुदेसिया और गणपत तेली द्वार अमृत लाल नागर की लिखी रचना ‘गदर के फूल’ के कुछ अंश को पेश किया गया।
कार्यक्रम के मुख्य वक्ता के रूप में आलोचक मैनेजर पांडेय ने अपने अनुभवों को साझा किया। प्रोफ़ेसर पांडेय कहते हैं कि अब समय बदल चुका है पहले साहित्य अभिजात्य वर्ग तक सिमित था। साहित्य भी जातीयता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था अमुख साहित्य अमुख व्यक्ति ही पढ़ सकता था मतलब शुद्र, दलित और स्त्रियों की बड़ी ही दयनीय स्थिति थी। ये लोग इस लायक ही नहीं समझे जाते थे की इनको साहित्यिक गतिविधियों में जोड़ा जाए। ये समय ऐसा था की सिर्फ पंडित जी लोग ही साहित्य पढ़ सकते थे। जनेऊ पहनने वाले ही इस कतार में खड़े थे, जो साहित्य पढ़ सकते थे या साहित्यिक गतिविधियों में अपना योगदान दे सकते थे। मगर अब समय बदल चुका है। सभी साहित्य पढ़ सकते हैं और इससे जुड़ी गतिविधियों में अपना योगदान दे सकते हैं। प्रोफ़ेसर आगे कहते हैं कि आज इस बदले युग की विशेषता है। आपके जेब में पैसे हों आप पढ़िए और मजे की बात ये है कि बिना नहाये धोये साहित्य पढ़े जा सकते हैं अब आपको कोई नहीं रोक सकता। प्रोफ़ेसर पांडेय ने कहा कि मेरे नाहये धोये शब्द का मतलब है की पहले धार्मिक पुस्तकों को आडम्बर के साथ पेश किया जाता था, इसको ऐसा दर्शाया गया की इसको पढ़ने के लिए शुद्धि की जरुरत है और विशेष जाति वाले ही शुद्ध होते हैं जो इसको पढ़ने योग्य हैं। मगर इस बदले समय में ये मांग नहीं रही कोई भी किसी भी स्थिति में धार्मिक साहित्यों को पढ़ सकता है।
प्रोफ़ेसर पांडेय कहते हैं कि अमृत लाल नगर के समय में उनके जैसे लेखकों की कमी थी या यू कहा जाये तो गलत नहीं होगा की बलिदान देने वाले लेखक हमेशा से कम थे। सत्ता से सीधे टकराने वालों की कमी तब भी थी अब भी है। तब के लेखकों में सत्ता में बैठे अंग्रेजों से सीधे लड़ने में डर लगता था और अब लेखकों को वर्तमान सत्ता पर बैठे लोगों से सीधे लड़ने में डर लगता है। सभी अंदर से चाहते हैं की चीजें बदली जाए मगर कोई सामने आकर नहीं लड़ना चाहता। हम सब चाहते हैं की क्रांतिकारी पैदा तो हो मगर पड़ोस में। वो कहते हैं की असली इतिहास उसे समझा जायेगा जब हिरण अपना इतिहास लिखेगा क्योंकि शिकारियों के इतिहास तो पहले से लिखे जा चुके हैं। अपनी बात को थोड़ा समझाते हुए वो कहते हैं की अब समय आ गया है जब पिछड़ा शोषित दलित अपना इतिहास लिखे और ऐसा होना अब शुरू भी हो गया है। वर्तमान समय में ऐसे उदहारण हमको मिलने शुरू हो गए हैं जिसमे अब साहित्य पर ऊँची जाति का एकाधिकार खत्म हो रहा है।
कार्यक्रम के दूसरे पड़ाव में प्रोफ़ेसर चित्रा मुद्गल नें अपनी लिखी हुई पुस्तक नालासोपारा पो. बॉक्स नं. 203’ का रचना पाठ किया जिसके अंतर्गत उन्होंने अपनी पुस्तक की रचना के माध्यम से साहित्य के कुछ अनछुए पहलुओं को छूने की कोशिश की। कार्यक्रम का तीसरा पड़ाव अमृत लाल नागर के लिखी रचना गदर के फूल के कुछ अंश को पूनम एस. कुदेसिया और गणपत तेली द्वार प्रस्तुत किया गया। ग़दर के फूल का ये अंश 1857 के विद्रोह के समय के समय का सजीव चित्रण करते हुए लखनऊ और उसके इर्द-गिर्द के शहरों में इस विद्रोह का कैसा असर पड़ा इस पूरे समय को नागर जी की पंक्तियों ने सजीव कर दिया था। सभागार में बैठे सभी सुनने वालों के सामने 1857 का विद्रोह जीवित हो गया था। इस तरह कई लम्बे पड़ाव के साथ कार्यक्रम का पहला दिन खत्म हो गया। इस कार्यक्रम में युवाओं ने बढ़चढ़कर हिस्सा लिया और ये सिद्ध कर दिया की अमृत लाल नागर और उनकी रचनाएं आज भी उतनी ही तार्किक हैं जितना पहले के समय में थी।