मीरजापुर। भारत, तीज-त्यौहारों का देश है। यहां ऋतुएं बदलती रहती हैं। अपने साथ अनेक विशेषताएं भी लातीं हैं। यही विशेषतायें हमारी संस्कृति के प्रतीक हैं। वर्षा ऋतु धरती की प्यास मिटाने के साथ हरियाली दे जाती है। कीड़े-मकोड़ों के साथ पशु-पक्षियों को संजीवनी देती है और सावन माह की कजरी के सुमधुर ध्वनियों की तो बात पूछनी ही क्या? लोक-रंग में रची-बसी कजरी सावन के सुहाने मौसम के रंग में रंग जाती है और गांव-गांव की युवतियां, नव-विवाहितायें और यहां तक की बड़ी-बूढ़ी महिलायें भी नव-तरंगों की तरह हिचकोले लेने लगतीं हैं। युवकों और पुरुषों में भी कम उत्साह नहीं होता है। वे भी सावन में भगवान शिव की उपासना कर सबका साथ देते हैं और न-विवाहिताओं के साथ जीवन तमाम सपनों को बुनते हैं।
कजरी, लोकगीत का एक रूप है। वर्षा की शुरुआत होते ही यह महिलाओं के ओठों को छूने को बेताब हो जाती है और स्वर बनकर दिन और रात में गूंजने लगती है। सावन के झूलों पर इठलातीं युवतियां सावन के एक-एक पल को जीने की कोशिश करत है तो नव-विवाहिताएं अपने पिया के प्रेम को कजरी के माध्यम से व्यक्त करतीं हैं। यह लोक संगीत सदियों से लोक-रंग में डूबा है। वैसे तो यह पूरे देश में प्रसिद्व है, लेकिन उत्तर-प्रदेश के मीरजापुर, वाराणसी, जौनपुर, गाजीपुर, बलिया, कुशीनगर, महराजगंज, गोरखपुर, बस्ती व आसपास के क्षेत्र में ज्यादा ही लोकप्रिय है। इनमें मीरजापुरिया कजरी सर्वाधिक लोकप्रिय है।
कुश्ती प्रतियोगिता की तरह मीरजापुर क्षेत्र में होने वाले कजरी दंगल (प्रतियोगिता) न सिर्फ लोगों के उत्साह को दिखाती है बल्कि लोकरंग के उस भाव को भी दिखाती है, जिनमें शील, संकोच, लज्जा और भावनायें घुली-मिली होतीं हैं। मीरजापुर, बनारस सहित कुछ अन्य क्षेत्रों में इनमें हिस्सा लेने वाले संगठनों, संस्थाओं को अखाड़े के रूप में जाला जाता है। हजारों नागरिकों के बीच होने वाला यह मुकाबला काफी रोचक होता है। यह बात अलग है कि विगत कुछ दशकों से कजरी प्रेमियों की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है। कजरी क्या है और कहां से आई, इसका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। परन्तु साहित्यकारों एवं संगीतकारों की मानें तो मां विंध्यवासिनी और देवी पार्वती से इनकी उत्पत्ति को जोड़ा जाता है। तर्क भी देते हैं। वे बताते हैं, ‘‘महिलाएं रात्रि जागरण करतीं हैं और कलरी गातीं हैं। माता पार्वती या विन्ध्यवासिनी की पूजन-अर्चन करतीं हैं। सुहाग की रक्षा की कामना करतीं हैं।
एक दंतकथा के अनुसार कंतित नरेश की पुत्री का नाम कजरी था। उसने अपने पति के वियोग में जिन गीतों की रचना की, वे ही कजरी के नाम से विख्यात हुईं। कालान्तर में रचित इस प्रकार के अन्य वियोग गीत भी कजरी के नाम से जाने लगे। कजली गायन में अधरबंद, बिना मात्रा, मात्रिक छंद, हलकबंद, ककहरा कैद, ककहरा चबन, शीशापलट, शब्दबंद, गउबंद, नालबंद, घड़ाबंद, कयमबंद, रामा-रामा, जिअवा, झालरिया, लोय, हरी-हरी ना, अब रे मयनवा, सुगनवा, झीर-झीर बुनिया जैसे प्रयुक्त होने वाले देशज और संस्कृतनिष्ठ शब्द इसकी महत्ता को न सिर्फ बढ़ाते हैं बल्कि उनकी पिरोयी गई भावनाओं से लोगों को आकर्षित भी करती है। यू तो कजरी का इतिहास बहुत विस्तृत और प्राचीन है, लेकिन वर्तमान में इसका सही इतिहास ज्ञान नहीं हो सकता है। कई दशक पूर्व साहित्यकार अमर गोस्वामी ने कजरी के छह अखाड़े पंडित शिवदास, राममूरत, जहाॅगीर, भैरो, बप्फत एवं अक्खड़ का जिक्र किया था। इन अखाड़ों के गुरु अपने शिष्य गायकों से खुद की रचित रचनाओं का गायन कराते थे। आज भी ऐसे गुरु अखाड़ों का नाम जीवित हैं। शिवदास अखाड़े के लल्लन मालवीय उदाहरण के रूप में देखे जा सकते हैं।
मंगलदास, मोहन लाल, हीरालाल यादव, राम कैलाश के साथ ही मीरजापुर की कजरी गायिका उर्मिला श्रीवास्तव को कौन नहीं जानता। ये वे कलाकार हैं जिनके दम पर मीरजापुर समेत हर क्षेत्र में गायी जाने वाली कजरी को याद किया जाता है। आज भी महिला कजरी गायक कलाकार शीर्षस्थ पर हैं। कजरी साम्रज्ञी और कोकिल जैसी उपाधियों से विभूषित उर्मिला श्रीवास्तव के कजली गायन में महत्वपूर्ण योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। वे कहतीं हैं, ‘‘कजरी का असली आनन्द प्रकृति की हरियाली रहने तक रहेगी।’’ उर्मिला श्रीवास्तव की मानें तो विश्व-विख्यात कजरी की जन्मभूमि वेदों में वर्णित तपोभूमि व सिद्धपीठ का गौरव प्राप्त करने वाला मीरजापुर ही है। विंध्यवासिनी देवी का एक नाम कज्जला भी है। उसी से कजली की उत्पत्ति हुई है। परम्परा के अनुसार सावन के महीने में पड़ने वाले त्यौहारों में व्याहताएं और लड़कियां जब ससुराल से मायके आती हैं और रिमझिम बरसात में स्वच्छंद होकर बागीचों में पेड़ों की डालियों पर झूला डालकर झूलतीं हैं और सुमधुर स्वर से कजली गायन करती हैं, तब उनका आनन्द दो गुना हो जाता है।