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अश्वत्थामा ताउम्र झेली ब्राह्मण होने की पीड़ा

aaअशोक पाण्डेय
ब्राह्मण क्या है। ब्राह्मण मुख है। समाज का चेहरा है। जैसा ब्राह्मण, वैसा समाज। इसलिए कहा गया कि ‘ब्रह्मं जानाति य: स: ब्राह्मण:।’ अब सवाल उठता है कि ब्रह्म क्या है और उसे जानना क्यों जरूरी है। ब्रह्म को जानना इतना आसान है क्या? ब्रह्म श्रेष्ठता की पराकाष्ठा है।
पहली बात तो उस ऊंचाई तक पहुंचाना सामान्य व्यक्ति के वश में नहीं और कदाचित पहुंच भी गए तो जरूरी नहीं कि वहां स्थिर भी बने रहें। पहाड़ पर चढ़ना जितना कठिन है, उससे गिरना उतना ही आसान है। जरा सी असावधानी, जरा सा असंतुलन कचूमर निकाल सकता है। जीवन लीला खत्म कर सकती है या फिर हमेशा के लिए अपाहिज बना सकती है। ईश्वर ने अगर ऊँचे पहाड़ बनाए हैं तो उतनी ही बड़े गड्ढे भी बनाए हैं। खाई भी बनाई है। नीति कहती है कि मंडन में उम्र गुजर जाती, खंडन में देर न लगती है। ब्राह्मण शब्द को लेकर आज सर्वत्र ऐतराज है। इसकी वजह ब्राह्मण परंपरा का ठीक से अनुपालन न होना भी है। वेद ब्रह्म को नेति–नेति कहकर हाथ खड़े कर देते हैं। सच पूछिए तो वे भी उसे जान नहीं पाते। ज्ञान और बुद्धि की देवी सरस्वती के बारे में कहा गया कि ‘असितगिरि समंस्यात कज्जलं सिंधुपात्रे। सुरतरुवरशाखा लेखनी पत्रमुर्वी लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं तदपि तव गुणानामीशपारं न याति।’
यदि वह पृथ्वी को कागज बनाकर, सातों समुद्रों की स्याही बनाकर, कपवृक्ष की शाखाओं की कलम से ताजिंदगी लिखें फिर भी ब्रह्म के बारे में लिख नहीं पाती तो एक ब्राह्मण ब्रह्म को कैसे जान सकता है। सवाल उठता है कि क्या ब्रह्म ज्ञान का विषय है या वह ध्यान का विषय है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि न तो बैकुंठ में रहता हूं और ध्यान और ज्ञान में रहता हूं। मैं तो योगियों के हृदय में रहता हूं। ऐसे ब्रह्म को जानने वाला ही ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी है। आदि शंकराचार्य ने इसके आगे की बात कही और शायद यही एक ब्राह्मण को कहना भी चाहिए। ‘नतोहं कामये राज्यं न सौख्यं न पुनर्भवम। कामये दुखतप्तानां कामये आर्तनानम्ा्’ आर्तजनों की पीड़ा हरने में ही तो ब्राह्मण हर क्षण उद्यत रहता है। वह अपने सुख और लाभ के बारे में कब, कितना और कहां सोच पाता है। इसका मतलब साफ है कि ब्राह्मण केवल जाति नहीं है। वह योयता है। श्रेष्ठत्व की योयता। ब्राह्मण का गुण होता है क्षमा। ‘क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को अपराध।’ अब यह क्षमा करना भी इतना आसान है क्या? तो क्या जो क्षमा नहीं कर सकता। वह ब्राह्मण नहीं । यह सारे सवाल द्रोणपुत्र अश्वत्थामा को मथे जा रहे थे। वह कोस रहा था खुद को। अपने जन्म को। अगर वह न होता तो उसके पिता एक सात्विक ब्राह्मण की जिंदगी ही तो जी रहे थे लेकिन उसके जन्म ने उनकी सारी दिनचर्या ही बदल दी। एक नैष्ठिक ब्राह्मण कब कुरुवंश का चाकर बन गया, पता ही नहीं चला। उनके पिता तो त्याग और तितिक्षा के साक्षात स्वरूप थे। उनकी नजर में ब्राह्मण और राजा में कोई भेद ही नहीं था और जहां मित्रता हो वहां कैसा राजा और कैसा निर्धन लेकिन महाराज द्रुपद ने उनकी मित्रता को लांछित किया था। अपमानित किया था। हुआ यूं था कि एक रोज उन्होंने अपनी पत्नी कृपी को अश्वत्थामा को .कृत्रिम दूध पिलाते देख लिया था। वह दूध नहीं, आटे का घोल था। कोई भी पिता इस बात को बर्दाश्त नहीं कर सकता कि उसके बेटे को दूध न मिले। वे अपने बालसखा द्रुपद के पास गए और उनसे अपनी मित्रता का वास्ता देकर अपने बेटे को दूध पिलाने के लिए केवल एक गाय मांगी। द्रुपद का जवाब था कि ब्राह्मण हो। भिक्षा मांग लो, मैं तुम्हें हजारों गाएं दे दूंगा लेकिन मित्रता के नाते मैं तुम्हारी हसरत पूरी नहीं कर सकता। मित्रता हमेशा समान लोगों के बीच होती है और राजा का मित्र तो कोई राजा ही हो सकता है। दूसरा कोई होता तो अपनी मजबूरी का ध्यान करता। मांग लेता गाय लेकिन ब्राह्मण स्वाभिमान से कभी समझौता नहीं करता और उन्होंने भीष्म पितामह के कहने पर संभाल लिया राजकुमारों को शस्त्र और शास्त्र सिखाने का दायित्व और यहां भी उन्होंने अपने दायित्व को ऊपर रखा। हालांकि एक पिता के लिए पुत्र से अधिक कुछ नहीं होता। वह उसे अपना सब कुछ देना चाहता है लेकिन द्रोणाचार्य ने अपने पुत्र को अपना पूरा ज्ञान नहीं दिया। अपने दायित्व बोध पर ममत्व और अपनत्व को कभी हावी नहीं देने दिया। यही वजह थी कि जिस ब्रह्मास्त्र पर ब्राह्मण का अधिकार होता है। वह भी उन्होंने अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को सिखाया। अपने बेटे की जिद के आगे वे झुके भी तो उसे ब्रह्मास्त्र का सामान्य ज्ञान ही दिया क्योंकि वह जानते थे कि विद्या पर केवल योग्य व्यक्ति का ही अधिकार है। विद्या के दुरुपयोग को वे किसी भी लिहाज से समाज और राष्ट्र के लिए उचित नहीं मानते थे। पूरे महाभारत के युद्ध में अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग नहीं किया लेकिन जब उसे मनुष्य नहीं, हाथी कहा गया। तब भी वह उतना विचलित नहीं हुआ, जितना इस बात से कि उनसे युधिष्ठिर जैसे तथाकथित सत्यवादी ने भी झूठ बोला। छल और प्रपंच कर उसके पिता की हत्या कर दी गई। उस पिता की जिसने उसके लिए द्रुपद की सभा में अपमान सहा था और फिर अपने शिष्यों की बदौलत द्रुपद का राज्य छीन लिया था। उनकी गाएं छीन ली थीं लेकिन मित्रता के धर्म को निभाना वे वहां भी नहीं भूले थे। आधा राज्य द्रुपद को लौटाकर उन्हेें सिंहासन पर बैठाया और खुद भी सिंहासनारूढ़ होकर कहा था कि लो द्रुपद मैं भी राजा। तुम भी राजा। अब तो तुम मुझे अपना दोस्त मानते हो और यह कहकर उन्होंने वह आधा राज भी द्रुपद को सप्रेम लौटा दिया था लेकिन दु्रपद के अहंकार प्रदेश में उनका मित्रभाव स्थान न पा सका। द्रुपद ने द्रोणाचार्य के विनाश के लिए यज्ञ किया। उस यज्ञ से द्रौपदी और धृष्टद्युम्न जन्मे और इसी धृष्टद्युम्न ने पुत्र शोक में हथियार त्याग चुके द्रोणाचार्य का सिर काट लिया था। वह पुत्र क्या जो पिता की हत्या का बदला न ले। धृष्टद्युम्न ने पूरी पांडव सेना के विनाश के लिए नारायणास्त्र का इस्तेमाल कर दिया था और श्रीकृष्ण की कृपा से भले ही पांडव सेना अश्वत्थामा की कोपानि में जलने से बच गई थी लेकिन उसके अंदर का क्रोध मूर्तिमंत तो था ही। सारी कौरव सेना और अपने सभी भाइयों के मरने के बाद जब दुर्योधन तालाब में छिपा हुआ था तो पांडवों ने उसे वहां ललकारा और भीम ने उसकी जंघा तोड़ दी। उसे मारा नहीं, मरने के लिए छोड़ दिया। गीध, कौवों और शृंगालों ने उस पर हमला बोल दिया। यह देख अश्वत्थामा से रहा न गया। उसने भगवान शिव की आराधना की और उनकी कृपा से अर्जुन को छोड़कर सभी को पराजित करने की शक्ति प्राप्त कर ली। भगवान शिव की दी हुई तलवार से उसने धृष्टद्युम्न, द्रौपदी के सभी पुत्रें का वध कर दिया। पांडव किसी कार्य से बाहर थे अन्यथा उस रात उनका भी काम तमाम हो जाता क्योंकि एक रात के लिए शिवकृपा से वह अपराजेय था। उसने अपनी जिंदगी में पहली बार पांडवों के वंश के अंतिम चिराग पर ब्रह्मास्त्र से हमला किया था। अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा और उसके गर्भ की भगवान श्रीकृष्ण ने उस ब्रह्मास्त्र से रक्षा कर ली थी। इसके बाद अश्वत्थामा सीधे तालाब के पास पहुंचा और उसने कहा कि दुर्योधन तुम्हारे वंश में कोई नहीं रहा तो मैं पांडवों का भी पूरा वंश नष्ट कर आया हूं। वंशहीन पांडवों का जीवन भी अब मृत्यु सदृश ही है। यह सुनते ही दुर्योधन ने चैन की सांस ली थी। इसे कहते हैं मित्रता, जिसे निभाना केवल ब्राह्मण जानता है। द्रौपदी ने पांडवों से कहा कि उसके पुत्रें का वध करने वाले की उसके सामने हत्या कर दी जाए। अश्वत्थामा पकड़ कर लाया गया। द्रौपदी ने सोचा कि जिस तरह पुत्र वियोग में मैं दुखी हो रही हूं, उसी तरह माता कृपी भी पुत्र वियोग में दुखी हो जाएंगी। पहले ही वे पति के वियोग में दुखी हैं। उसे संभालने के लिए तो फिर भी उसके पांच पति हैं लेकिन माता कृपी का तो एक ही सहारा है, अश्वत्थामा और अगर वह भी इस संसार में न रहा तो उनका क्या होगा? यह विचार कर द्रौपदी ने अश्वत्थामा को क्षमा कर दिया। अब पांडवों के सामने धर्मसंकट था कि द्रौपदी की दोनो इच्छाओं का सम्मान कैसे हो। भगवान श्रीकृष्ण ने इस दुविधा को यह कहकर दूर किया कि ब्राह्मण का प्राण उसके धन में बसता है। इसलिए इसका धन छीन लो। पांडवों ने कहा कि धन के नाम पर इसके पास केवल एक कपड़ा है तब भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि अश्वत्थामा के ललाट में एक मणि है। तुम लोग इस मणि को निकाल लो। इससे जब तक यह धरती रहेगी तब तक अश्वत्थामा रोज इस पीड़ा को भुगतता रहेगा। उसे कभी चैन नहीं मिलेगा। कहते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण के इस अभिशाप की पीड़ा अश्वत्थामा आज भी झेल रहा है। यहां–वहां उसके देखे जाने की अफवाहें फैलती रहती हैं लेकिन मित्रता के लिए, अपनी पितृभक्ति ने लिए अश्वत्थामा ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया। बचपन से लेकर आज तक उपेक्षा का दंश ही तो झेल रहा है अश्वत्थामा।

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