पुस्तक समीक्ष
शांत
कश्यप का उपन्यास ‘हम सब माही’ समीक्षार्थ मेरे सामने हैं। हिंद युग्म द्वारा प्रकाशित इस कृति को उपन्यास कहूं, रिपोर्ताज कहूं या कि लंबी कहानी। इसे लेकर खुद ऊहापोह में हूं क्योंकि यह उपरोक्त तीनों ही विधाओं की प्रतिनिधि रचना है। अत: किसी एक पर उपाधिगत ठप्पा लगाना कृतिकार के साथ अन्याय करने जैसा होगा। इसमें साहित्यिकता तलाशना तो और भी कठिन है। शायद इसलिए कि पूरा उपन्यास ही सामान्य बोलचाल की भाषा में है। इस उपन्यास का अहम किरदार एक पत्रकार है। पत्रकार हो और पत्रकारिता न करे, ऐसा संभव नहीं है। शीर्षक को प्रासंगिकता प्रदान करने के लिए माही शब्द पर एक कविता है। उपन्यास का पत्रकार चरित्र जगह-जगह अवतरित होता है। उसके अपने अंदाज हैं। वह अपने दफ्तर में तो एकाध-मौकों पर ही दिखता है लेकिन महिला मित्रों के साथ अमूमन अपने घर पर, उनके घर पर, शॉपिंग मॉल में या फिर शराबखाने के आस-पास ही नजर आता है। उपन्यास शुरू होता है एक दुखद सूचना से। मृत्यु…21 साल की छोटी सी उम्र में एक बेरहम मौत। उदास चेहरे वाली उस लंबी, सांवली लड़की की किस्मत में क्या यही बदा था? क्या उसे पता था कि वह इतनी जल्दी दुनिया छोड़ जाने वाली है? क्या इसलिए वह जिंदगी के हर पल का आनंद लूट लेना चाहती है या जिंदगी की दुश्वारियों के खिलाफ उसकी यह बगावत थी।‘ कतरा-कतरा मिलती है जिंदगी, कतरा-कतरा जीने दे।’ शुरुआती प्रश्नाकुलता बताती है कि बेहतरीन कहन की तैयारी है लेकिन इसी के बाद ही वोदका, रम और स्कॉच जैसी आधुनिकाओं मतलब सामाजिक बुराइयों का प्रवेश हो जाता है और वे अंत तक बनी रहती हैं। तब तक जब तक कि पत्रकार अपने घर नहीं चला जाता। वहां वहां शराब से चाय पर कैसे आ जाता है,चरित्र का यह दोरंगापन ही इस उपन्यास की विषयवस्तु है। वैसे तो इस उपन्यास का एक भी पात्र ऐसा नहीं है जो संबंधों को लेकर गंभीर हो। उपन्यास में नगरीय चिंतन तो है लेकिन सोच में गंवई संस्कार भी है। बोलचाल में गाली-गलौज तो जैसे उनका संस्कार ही बन चुका है। यहां लड़के-लड़कियों को लिव इन रिलेशन में कोई गुरेज नहीं है। ड्रिंक के बिना तो जैसे उनका काम ही नहीं चलता। बीमार होने पर भी वे दवा की बनिस्बत बीयर को गले के नीचे उतार लेना ज्यादा मुफीद समझते हैं। पत्रकार को अपवाद मानें तो कथा नायिकाओं निक्की और सकीना में से किसी का भी अपने पाल्यों पर भरोसा नहीं है। इसके पीछे स्वच्छंद जीवन जीने की उनकी चाहत ही बहुत हद तक जिम्मेदार है। संबंध बनाना इनके लिए सामान्य बात है। एक प्रेमी से दुखी होने पर दूसरे प्रेमी से संबंध बना लेने में इन्हें कोई आत्मग्लानि नहीं होती क्योंकि ये जानती हैं कि सभी को मुकम्मल जिंदगी नहीं मिलती। कतरा-कतरा मिलती है। जिंदगी जिस स्वरूप में मिली है, उसे उसी रूप में जी लेना चाहिए। सभी मित्र हैं, एक दूसरे पर भुन्नाते भी हैं, एक दूसरे को गरियाते भी हैं लेकिन प्रेम करने के मामले में भी कोई किसी से कम नहीं है। बिल्कुल ‘नवली नवै न गहमर टरै’ वाली स्थिति है। दैहिक संबंध बनाने और पीने-पिलाने के फेर में उपन्यास कई जगह अश्लील भी बन गया है लेकिन अगर देख जाए तो वह कहानी के ताने-बाने में कुछ इस तरह समाया हुआ है कि उसे पढ़ने का मन करता है। यह अलग बात है कि इतनी स्वच्छंद विचारधारा को घर में पढ़ना शायद ही कोई भलेमानस स्वीकार करे। लिव इन रिलेशन और फ्रेंडशिप की पीड़ा कोई निक्की और सकीना से पूछ सकता है। निक्की के चंडीगढ़ के मित्र का भाई तो उसकी जान ही ले लेता है और सकीना भी जिसके साथ लिव इन रिलेशन में है, वह अपनी दूसरी लड़की से पक्की हो चुकी शादी की तब तक भनक नहीं लगने देता जब तक कि उसका राज अयां नहीं हो जाता। स्वच्छंद जीवन की कुछ सहूलियतें हैं तो उतनी या उससे अधिक पेचीदगियां भी हैं। देखा जाए तो यह उपन्यास आंचलिक और नगरीय घालमेल और मनोवैज्ञानिक सोच का सशक्त उदाहरण है। पत्रकार अभि के सामने भी विवाह की बात चलने जैसे हालात बनते हैं तो वह भी कमोवेश सकीना जैसा ही परेशान होता है और निक्की के मर्डर की खबर से तो वह जैसे टूट ही जाता है। उपन्यास बेहतर बन पड़ा है। अति आधुनिकता के संभ्रम से बचा जा सकता है। उम्मीद है कि अभिषेक कश्यप की अगली कृति कुछ ऐसी सामने आएगी जिसे कहीं भी, कभी भी पढ़ने में पाठक को संकोच न हो। उपन्यास में कहन की निरंतरता उसे जीवंत बनाती है तो सस्पेंस अंत तक बना रहता है और अंतिम सस्पेंस निक्की की हत्या के बाद तो यह है कि अभि क्या करेगा अपनी अच्छी मित्र सकीना के दुख दूर करेगा, उसका हो जाएगा। कुंवारा रहेगा या फिर माता-पिता के दबाव में गृहस्थी बसा लेगा। इन सवालों के जवाब अनुत्तरित हैं। एक लेखक का प्रयास पाठक की जिज्ञासा का प्रशमन होना चाहिए और मैं समझता हूं कि कृतिकार की यह एक बड़ी चूक है। शिल्प और भाषा कौशल के आधार पर समीक्ष्य कृति उपन्यासकार का एक सार्थक प्रयास है। साधुवाद।