Sunday , April 28 2024

कब खत्म होगी जाति और धर्म की राजनीति?

धर्म और जाति की राजनीति से आज भी भारत का पीछा नहीं छूट रहा है . आज हमारे पास धार्मिक राजनीति से जुड़ा का एक चिंताजनक वीडियो आया है . ये वीडियो कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं की एक बैठक का है. इसमें कांग्रेस के नेता कमलनाथ ये कह रहे हैं कि ‘अगर 90 प्रतिशत मुसलमानों ने वोट नहीं किया तो कांग्रेस पार्टी को बहुत बड़ा नुकसान उठाना पड़ेगा .’ 

कमलनाथ… कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी के करीबी हैं . वो मध्य प्रदेश में कांग्रेस के अध्यक्ष भी हैं . कमलनाथ.. UPA की सरकार में केंद्रीय मंत्री भी रह चुके हैं . और चर्चा तो ये भी है कि इस बार कमलनाथ, मध्य प्रदेश में कांग्रेस पार्टी की तरफ से मुख्यमंत्री पद के अघोषित उम्मीदवार हैं . सबसे बड़ा विरोधाभास ये है कि जनता के सामने… भाषण देते हुए.. संविधान और आचार संहिता की दुहाई देते हैं . लेकिन जब वो कार्यकर्ताओं के साथ बंद कमरे में बैठक करते हैं तो हिंदू-मुस्लिम फॉर्मूले के आधार पर अपनी चुनावी रणनीति बनाते हैं . पहले आप ये बयान सुनिए… फिर हम अपनी बात को आगे बढ़ाएंगे . 

इस तरह के बयानों से एक बार फिर ये साबित होता है कि आज भारत में आचार संहिता सिर्फ़ एक सजावटी शब्द बनकर रह गया है . चुनाव आचार संहिता और सुप्रीम कोर्ट का फैसला ये कहता है कि धर्म और जाति के नाम पर वोट नहीं मांगे जा सकते. लेकिन हमारे देश में चुनाव की रणनीति.. हिंदू-मुस्लिम फॉर्मूले के आधार पर बनाई जा रही है . 

कमलनाथ के इस बयान में आपने एक शब्द सुना होगा… मुस्लिम बूथ . यानी हमारे देश के नेताओं ने अब Polling Booth को भी हिंदू और मुसलमान बना दिया है . इस बात पर ज़ोर दिया जा रहा है कि सारे मुसलमान वोट करें तो कांग्रेस पार्टी की जीत होगी . 

ये वीडियो, भोपाल में मौजूद कांग्रेस पार्टी के कार्यालय का है . भोपाल में 7 विधानसभा सीटें हैं और वहां 22.16 प्रतिशत मुस्लिम वोट हैं . पूरे मध्य प्रदेश में मुसलमानों की आबादी करीब 6.57 प्रतिशत है . राज्य में 36 से 38 लाख मुस्लिम वोटर हैं . शायद इसीलिए कांग्रेस पार्टी मुस्लिम वोटों के लिए बहुत ज़्यादा परेशान दिखाई दे रही है . 

बीजेपी ने कमलनाथ के इस बयान के खिलाफ चुनाव आयोग में शिकायत की है . दूसरी तरफ कांग्रेस का कहना है कि कमलनाथ का ये वीडियो तीन महीने पुराना है.

हमारे देश में चुनाव आयोग के पास अधिकार तो हैं . लेकिन चुनाव आयोग अपने इन अधिकारों का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर नहीं कर पाता. वोट के लिए धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल करने पर चुनाव आयोग किसी पार्टी का चुनाव चिन्ह भी जब्त कर सकता है . लेकिन इसके बाद भी हमारे देश में जाति और धर्म के नाम पर वोट, हर चुनाव में मांगे जाते हैं. और नियमों का उल्लंघन इतना ज़्यादा होता है.. कि चुनाव आयोग कभी बड़े पैमाने पर कार्रवाई नहीं कर पाता . 

2 जनवरी 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने इस संबंध में एक बहुत महत्वपूर्ण टिप्पणी की थी. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि धर्म, वर्ग, जाति, समुदाय और भाषा के आधार पर वोट मांगना गैरकानूनी है.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि चुनाव एक धर्मनिर्पेक्ष प्रक्रिया है और इस प्रक्रिया का ठीक से पालन होना चाहिए . इंसान और भगवान के रिश्ते निजी पंसद का विषय है और सरकारों को ये बात ध्यान में रखनी चाहिए . 

लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इन निर्देशों के बाद भी हमारे देश में राजनीतिक पार्टियां चुनावों में हमेशा जाति धर्म, प्रांत और नस्ल के नाम पर वोट मांगती हैं.
 
अब इसी ख़बर से जुड़े एक विरोधाभास को समझने के लिए हम आपको Switzerland लेकर चलते हैं. आपने ये तो देख लिया, कि हमारे देश के नेता कैसे धर्म और जाति को आधार बनाकर वोट बैंक की राजनीति करते हैं. लेकिन Switzerland में कुछ ऐसा होने वाला है, जो भारत में धर्म की राजनीति और गो रक्षा के नाम पर अपनी दुकानदारी चलाने वालों को नैतिकता की शिक्षा दे सकता है.

इस रविवार यानी 25 नवंबर को Switzerland में एक जनमत संग्रह होने वाला है. और ये Referendum वहां रहने वाले लोगों के लिए नहीं, बल्कि गायों के हितों और उनके अधिकार के लिए होगा. सवाल ये है, कि ऐसा क्यों हो रहा है? और इसका जवाब है – गाय के सींगों की वजह से. ये बात अपने आप में हैरान करने वाली है, कि इस वक्त Switzerland में मौजूद सिर्फ 10 प्रतिशत गायें ऐसी हैं, जिनके सिर पर सींग हैं. वहां पर क़रीब तीन चौथाई गायें ऐसी हैं, जिनके सिर पर या तो सींग नहीं है. या फिर वो बिना सींग के ही पैदा होती हैं. Switzerland के किसान सिर्फ इसलिए गाय के सींगों को जला देते हैं, ताकि वो जानवरों को कम से कम जगह में आसानी से रख सकें. 

गाय के सींगों को जलाने की प्रक्रिया काफी महंगी होती है. और इससे उन्हें तकलीफ भी बहुत ज़्यादा होती है. सींग को जलाने से पहले गाय को Anaesthesia देकर बेहोश किया जाता है. और फिर बाद में Painkillers दिए जाते हैं. लेकिन ये Painkillers उनका दर्द कम नहीं करते. उदाहरण के तौर पर गाय के 20 फीसदी से ज़्यादा बछड़े, सींग जलाए जाने के कई महीने बाद तक, दर्द सहन करते हैं. ऐसा करने के पीछे एक सामान्य दलील ये दी जाती है, कि जिन गायों के सींग होते हैं, वो बेहद उग्र होती हैं. हालांकि, गाय के हितों की बात करने वाले लोगों की दलीलें बिल्कुल अलग है. उनका कहना है, कि सींग गाय के शरीर का एक अहम हिस्सा है. इसकी मदद से गाय ना सिर्फ एक दूसरे को पहचान पाती हैं. बल्कि आपस में संवाद भी करती हैं. और सींग की मदद से गायों की पाचन क्षमता और शरीर का तापमान भी सामान्य रहता है. भारत में गौ रक्षा का मुद्दा बहुत विवादित रहा है. लेकिन Switzerland में गाय के सींगों की रक्षा के लिए क़रीब 9 वर्षों से अभियान चल रहा है.

और इसमें अंतिम फैसले की तारीख 25 नवंबर 2018 तय कर दी गई है. उस दिन वहां जनमत संग्रह होगा. वहां के किसान चाहते हैं, कि Switzerland की सरकार अपने संविधान में बदलाव करके, ऐसे किसानों के लिए Subsidy का प्रावधान करे, जो अपनी गायों के सींग नहीं जलाते हैं. वहां ऐसा माना जाता है, कि गायों के सींग ना जलाने से किसानों पर आर्थिक बोझ बढ़ता है. और इसीलिए सरकार से इस बोझ को कम करने की मांग की जा रही है. हालांकि 9 वर्षों से चल रही इस मुहिम को वहां की सरकार का समर्थन हासिल नहीं है. 

Switzerland की सरकार का कहना है, कि अगर इस प्रकार की आर्थिक मदद दी गई, तो सरकार पर 215 करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा. जब वहां की राजनीतिक Lobby ने किसानों की मांगें नहीं सुनीं, तो गायों के हित के लिए 66 साल के एक किसान को आगे आना पड़ा. और उसने Cow Horn Initiative की शुरुआत की. Switzerland की ताज़ा स्थिति ये है, कि वहां पर गाय का सींग एक राष्ट्रीय मुद्दा बन चुका है. इस पर रविवार को जो जनमत संग्रह होगा उसमें वहां के 53 लाख लोग हिस्सा लेंगे. सितम्बर 2018 के बाद ये तीसरा मौका होगा, जब वहां के लोग अपनी बात कहने के लिए जनमत संग्रह में शामिल होंगे. 

वहां का लोकतंत्र दुनिया के दूसरे देशों के लोकतंत्र से थोड़ा अलग है. वहां का वोटर 5 साल में एक बार वोट देकर शांत नहीं बैठ जाता. बल्कि वो सरकार के हर बड़े फैसले की समीक्षा अपने वोटों के ज़रिए करता है. वहां का एक सामान्य वोटर एक साल में क़रीब 4 जनमत संग्रह में हिस्सा लेता है. सरकार द्वारा प्रस्तावित 15 Bills के लिए वोटिंग करता है. वर्ष 1848 से लेकर अब तक, वहां के लोग 600 से ज़्यादा प्रस्तावों के लिए 300 से ज़्यादा बार अपने मताधिकार का प्रयोग कर चुके हैं. Switzerland जैसे देशों में बात-बात पर जनमत संग्रह कराया जाता है. 

जबकि भारत में हर पांच साल में एक बार चुनाव होता है. और लोगों की राय भी एक ही बार पूछी जाती है. ये राय… मुद्दों के बारे में नहीं होती, बल्कि नेताओं और पार्टियों के बारे में होती है. धर्म और जाति के नाम पर यहां लोगों को भ्रमित कर दिया जाता है. और फिर पांच वर्षों तक नेताओं को अपनी मनमानी करने की छूट मिल जाती है. आज गाय के सींग की रक्षा के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करने वाले Switzerland के किसान, भारत के लोगों को असली लोकतंत्र की परिभाषा समझाएंगे.

E-Paper

Powered by themekiller.com anime4online.com animextoon.com apk4phone.com tengag.com moviekillers.com