नई दिल्ली। रियो ओलंपिक की बैडमिंटन स्पर्धा में रजत पदक जीतकर भारत का नाम रोशन करने वाली पीवी सिन्धु ने अपनी सफलता का राज स्वयं से प्रतिस्पर्धा बताया। असफलताओं से कभी निराश न होने वाली सिंधु ने कहा कि विश्व चैंपियनशिप में दो बार कांस्य पदक जीतने के बाद अगर मै साहस नही करती तो यह रजत पदक नही हासिल कर पाती। इंसान की प्रतिस्पर्धा पहले स्वयं से होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि मैंने ना उम्मीद का दामन छोड़ा, ना कभी हार मानना सीखा, फिर पता नहीं आज हम छोटी-छोटी असफलताओ को अपनी हार क्यों मान लेते हैं? यह जीत मेरे जीवन के सर्वश्रेष्ठ पलों में से एक है उम्मीद है कि ऐसे कई और पल आएंगे।
सिंधु ने कहा कि रियो ओलंपिक के क्वार्टर फाइनल में विश्व नंबर दो और लंदन ओलंपिक की रजत पदक विजेता वांग यिहान को हराने के बाद हौसले बुलंद थे और यह उनके करियर का सर्वश्रेष्ठ पल था। सिंधु ने बताया कि उन्होंने आठ साल की उम्र से ही बैडमिंटन खेलना शुरू कर दिया था। 2001 मे गोपीचंद की ऑल इंग्लैड चैपियनशिप जीत से उन्हे प्रेरणा मिली। सुबह के 4.15 बजे सिंधु बैटमिंटन प्रैक्टिस के लिए उठ जाती हैं। अपने करियर की शुरूआत मे सिंधु हर दिन 56 किलोमीटर की दूरी तय करके बैडमिंटन कैंप मे ट्रेनिंग के लिए जाती थी। वहीं, सिंधु के कोच गोपीचंद ने सिंधु के बारे मे बताते हुए कहा कि इस खिलाड़ी का सबसे स्ट्राइकिंग फीचर उसकी कभी न हार मानने वाली आदत है।
गौरतलब है कि पांच जुलाई 1995 को तेलंगाना में जन्मी पीवी सिंधु तब सुर्खियों में आई थीं, जब उन्होंने साल 2013 में ग्वांग्झू चीन में आयोजित विश्व बैडमिंटन चैंपियनशिप में कांस्य पदक जीता था। वह भारत की ऐसी पहली महिला एकल खिलाड़ी हैं, जिन्होने विश्व चैपियनशिप में पदक जीता। 30 मार्च 2015 को सिंधु को राष्ट्रपति ने पद्म श्री से सम्मानित किया। हाल ही में 29 अगस्त 2016 को राष्ट्रपति ने उन्हें भारत के सर्वोच्च खेल पुरस्कार राजीव गांधी खेल रत्न से नवाजा। ओलंपिक में सिंधु को नौवीं रैंकिंग मिली है।
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