डायरेक्टर शशांत खेतान की इसफिल्म का फर्स्ट हॉफ काफी स्लो है और काफी घसीटते हुए चलता है। ‘सैराट’ में प्यार को लेकर जो एक इनोसेंस था उस तरह का ट्रीटमेंट ‘धड़क’ में कहीं नजर नहीं आता। दूसरा ड्राबैक जो इस फिल्म में है वो यह कि ‘सैराट’ में एक वर्गभेद या जातिभेद विशुद्ध तौर पर उन्होंने स्पष्ट किया था जबकि ‘धड़क’ में एक संवाद के अलावा यह कहीं पर स्पष्ट नहीं हो पाता है कि आखिर दोनों में विसंगतियां क्या हैं? यह कहीं पर स्पष्ट नहीं हो पाता है कि आखिर यह मतभेद है क्यों?
सेकंड हॉफ में भी कई शॉर्ट्स बहुत लम्बे हो जाता है। ईमानदारी से कहा जाए तो चूंकि ‘धड़क’ सैराट की ऑफिशियल रीमेक है तो जाहिर है दोनों में तुलना होगी ही। लेकिन, फिर भी एक चांस दिया और ‘सैराट’ से अलग इस फिल्म को देखा जाए, परखा जाए तब भी फर्स्ट हॉफ काफी खींचा हुआ नजर आता है। फिल्म में इनोसेंसी का अभाव नजर आता है। साथ ही साथ पूरा माहौल जो शशांक ने बनाया है है वो काफी सिंथेटिक नजर आता है।
लेकिन, फिर भी इसमें अभिनय की बात की जाए तो जाह्नवी कपूर से लोगों को जिस तरह की उम्मीदें थीं वो उस पर खरी उतरती हैं। जाह्नवी कपूर के बारे में कहा जा सकता है कि बॉलीवुड को एक और हीरोइन मिल गई है। ईशान खट्टर एक शानदार परफॉर्मर हैं। ईशान और जाह्नवी की जोड़ी आने वाले समय में बॉलीवुड के लिए एसेट की तरह साबित होगा, यह इस फिल्म का एक प्लस पॉइंट है।
मराठी फिल्म का संगीत चूंकि इतना पॉपुलर हो गया था कि हिंदी में भी वही बैकग्राउंड स्कोर रखा गया है। तो एक तरह से वो रिपीटेशन लगता है, क्योंकि देश भर में वो गाने सुने जा चुके हैं सिर्फ शब्द बदल गए हैं। अपनी क्रिएविटी चलाते हुए शशांक खेतान ने फिल्म की क्लाइमेक्स ही बदल दी, जो आसानी से हजम नहीं होता।
‘सैराट’ का जो क्लाइमेक्स था उसमें कहीं न कहीं एक संदेश था कि जातिभेद और ऑनर किलिंग से कम से कम आने वाली नस्ल को मुक्त किया जाए।
धड़क में डायरेक्टर ने अपनी क्रिएटिविटी दिखाते हुए क्लाइमेक्स को बदल दिया है और इस क्लाइमेक्स में किसी तरह का सामाजिक संदेश नजर नहीं था, जब तक कि लास्ट स्क्रीन रोल पर नजर नहीं जाती और उसे पढ़ा न जाए। कुल मिलाकर ‘धड़क’ एक सामान्य सी बॉलीवुड फिल्म है, जिसे आप देखना चाहें तो देख सकते हैं।