धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः !
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय !! – श्रीमद्भगवद्गीता !! १ !! १ !!
हे संजय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः !
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्धुव्रा नीतिर्मतिर्मम !! – श्रीमद्भगवद्गीता !! १८ !! ७८ !!
(सञ्जय उवाच) जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण हैं (और) जहाँ गाण्डीवधनुषधारी अर्जुन हैं, वहीं पर श्री, विजय, विभूति (और) अचल नीति है, ऐसा मेरा मत है।
विस्तार:
धर्म की गति सूक्ष्म होती है (सूक्ष्मा गतिर्हि धर्मस्य), यह सम्पूर्ण लोकों का कल्याण करता है और इसमें अत्यन्त गूढता समाहित होती है। यथा – भक्त प्रह्लाद का नारायण की शरणागति होना, बलि का उपेन्द्र को सर्वस्व अर्पण करना, विभिषण का ब्रह्म राम की शरण ग्रहण करना और महात्मा अर्जुन का ब्रह्माण्डनायक प्रभु श्रीकृष्ण की शरण में जा शिष्यत्व ग्रहण करना एवं कहना – “मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए (शिष्यस्ते$हं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्)। श्रीकृष्ण सब लोकों के एकमात्र अधिपति हैं। ऋग्वेद में कहा गया है कि वह सब लोकों का एकमात्र स्वामी है (एको विश्वस्य भुवनस्य राजा)! इन्हीं सबके नाथ श्रीकृष्ण से प्रार्थना की जाती है – हे प्रभो! हम लोगों में सुख और कल्याणमय उत्तम संड्कल्प, ज्ञान और कर्म को धारण कराओ (भद्रं भद्रं क्रतुमस्मासु धेहि)। आरती में कहा जाता है – तुम हो एक अगोचर सबके प्राणपति।
गीताशास्त्र का प्रारम्भ ही “धर्म” शब्द से होता है और समापन “मम” कहकर। धर्ममम (मेरा धर्म) और इसके बीच में ही इसका सारतत्व है। श्रीकृष्णवाणी गीता को वेदव्यास जी ने सात सौ श्लोकों में रच महाभारत की शोभा बढा दी। इस ज्ञान के अथाह सागर को प्राणी-मात्र के लिए सर्वसुलभ कर दिया। गीता जी के प्रथम श्लोक का प्रथम शब्द आदि है और अंतिम श्लोक का अंतिम शब्द अंत है जो प्रस्तावना से उपसंहार तक की धर्मयात्रा पूर्ण करता है और ‘धर्ममम’ विश्वकल्याण की सुदृढ नींव बनता है। श्रीमद्भगवद्गीता का जितनी बार अध्ययन-मनन किया जाए उतनी ही बार नित नये अर्थ निकलकर सामने प्रस्तुत होंगे। यह मानव-मात्र के लिए अमृत है, देवगण और सिद्ध पुरूष भी इस अमृतपान के लिए लालायित रहते हैं। इसके माध्यम से श्रीकृष्ण जगत-कल्याण के लिए ॐ तत्सत् का उपदेश देते हैं। वराहपुराण में प्रभु स्वयं कहते हैं –
गीताश्रये$हं तिष्ठामि गीता मे चोत्तमं गृहम् !
गीताज्ञानमुपाश्रित्य त्रींल्लोकान् पालयाम्यगम् !!
अर्थात, मैं गीता के आश्रय में रहता हूँ, गीता मेरा श्रेष्ठ घर है। गीता के ज्ञान का सहारा लेकर ही मैं तीनों लोकों का पालन करता हूँ।
धर्म आचरण से प्रकट होता है (आचार प्रभवो धर्मः)। सामान्यजनों के लिए शिष्टाचार ही धर्म होता है। धर्ममम का पालन करके ही निज का, समाज का और राष्ट्र का उत्थान किया जा सकता है। महाराज मनु ने धर्म के दस लक्षण बताये हैं –
धृतिः क्षमा दमो$स्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः !
धीर्विद्या सत्यमक्रोधः दशकं धर्मलक्षणम् !!
अर्थात, धैर्य, क्षमा, मन का संयम, चोरी न करना, पवित्रता, इन्द्रियों का संयम, शुद्ध बुद्धि, उत्तम विद्या, सत्य और अक्रोध। जिस पुरुष में ये लक्षण होते हैं, जो पुरुष इसका पालन करता है, वही धर्म पर चलने वाला होता है। महाभारत में महाराज युधिष्ठिर कहते हैं कि –
तर्को$प्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्नाः
नैको ऋषिर्यस्य वचः प्रमाणम् !
धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां
महाजनो येन गतः स पन्था !!
अर्थात, तर्क धर्म को समझने और समझाने में असमर्थ है। किसी एक भी ऋषि का वाक्य प्रमाण अथवा अंतिम निर्णय नहीं है तथा ऐसा प्रतीत होता है कि मानो धर्म का तत्व गुफा में छिपा हुआ है। अतएव महापुरुष जिस मार्ग पर चलें, उसे हम प्रशस्त पथरूप में स्वीकार कर सकते हैं।
इसीलिए धर्म को स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करने के लिए श्रीहरि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और योगेश्वर श्रीकृष्ण रूप में एवं अन्य अवतारों के माध्यम से अपने जीवन-चरित्र और दिव्य वचनों को समस्त प्रजा के आगे रखते हैं जिससे जनसमुदाय शिक्षा ले धर्म के सही स्वरूप को समझे और वैसा ही आचरण करे। अर्जुन से भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं – “श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है। क्योंकि हे पार्थ! यदि कदाचित् मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ तो बडी हानि हो जाए क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।”
वैदिक शिक्षा में कहा जाता है – धर्म का पालन करो (धर्मं चर)। महाभारत वनपर्व में उल्लेख है –
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः !
तस्माद्धर्मं न त्यजामि मा न धर्मो हतो$वधीत !
अर्थात, धर्म ही आहत (परित्यक्त) होने पर मनुष्य को मारता है और वही रक्षित (पालित) होने पर रक्षा करता है। अतः मैं धर्म का त्याग नहीं करता, इस भय से कि कहीं मारा (त्याग किया) हुआ धर्म हमारा ही वध न कर डाले।
धर्मेणैवर्षयस्तीर्णा धर्मे लोकाः प्रतिष्ठिता !
धर्मेण देवता वतृधुर्धुर्मे चार्थः समाहितः !!
अर्थात, धर्म के द्वारा ही ऋषिगण इस भवसागर से पार हो गये। सम्पूर्ण लोक धर्म के आधार पर ही टिके हुए हैं। धर्म से ही देवता बढे हैं और धन भी धर्म के ही आश्रित है।
कूर्मपुराण में देवी भगवती हिमवान् को कहती हैं – “गिरिश्रेष्ठ! श्रुति तथा स्मृतिशास्त्रों में जो सम्यक् वर्णाश्रमकर्म (धर्म) बतलाया गया है, मुक्ति प्राप्ति के लिए अध्यात्मज्ञानयुक्त उस कर्म का निरन्तर आचरण करो। धर्म से भक्ति उत्पन्न होती है और भक्ति से परम (तत्त्व) प्राप्त होता है। श्रुति एवं स्मृति द्वारा प्रतिपादित यज्ञादि कर्म को धर्म कहा गया है। वेद के अर्थ को जानने वाले श्रेष्ठ विद्वानों के द्वारा जिस कर्म को वेदसम्मत कहा गया है वह कर्म करणीय है और जो मनुष्य प्रयत्नपूर्वक उस कर्म को करते हैं, वे मुझे प्रिय हैं।”
धर्म के महत्व को बताते हुए महर्षि वेदव्यास जी कहते हैं – “पुराण तथा धर्मशास्त्र वेदों के विस्तार हैं। एक से ब्रह्म का विशेष ज्ञान होता है और दूसरे से धर्म का ज्ञान होता है। धर्म की जिज्ञासा करने वालो के लिए धर्मशास्त्र श्रेष्ठ प्रमाण कहा गया है और ब्रह्मज्ञान के लिए पुराण उत्कृष्ट प्रमाण है। वेद से अतिरिक्त अन्य किसी से धर्म का तथा वैदिक धर्मविद्या का ज्ञान नहीं होता इसलिए द्विजातियों को धर्मशास्त्र तथा पुराण पर श्रद्धा रखनी चाहिए।”
धर्म को चतुष्पाद कहा जाता है और इसे वृषभ की संज्ञा दी जाती है (वृषो ही भगवान् धर्मः), अतः इसके चार पाद (चरण) होते हैं। भविष्यपुराण के अनुसार – “धर्म के चार चरण हैं ज्ञान, ध्यान, शम और दम। आत्मज्ञान ज्ञान कहलाता है, अध्यात्मचिन्तन ध्यान कहलाता है, मन की स्थिरता शम है और इन्द्रियों का निग्रह दम है। चार लाख बत्तीस हजार वर्ष धर्म का एक पाद कहा जाता है। जब धर्म की वृद्धि होती है तब आयु की भी वृद्धि हो जाती है। जैसे-जैसे कलियुग की आयु में बढोतरी होगी, अधर्म पालन से आयु कम होती रहेगी। तब अधर्म ही लोगों का भाई-बन्धु होगा एवं अपने कार्यो की सिद्धि होने तक ही बन्धुता रहेगी, सौहार्द बना रहेगा।
अधर्म मार्ग को पकडकर वैसा ही मनमाना आचरण कर दुर्योधन पक्ष अपनी आयु पूर्ण कर चुका था केवल देहों का त्यागना रह गया था क्योंकि पांडवों पर समय-समय पर अत्याचार करते हुए दुर्योधन ने सभी सीमाओं को, सभी मर्यादाओं को पार कर लिया था। जब पांडवों की सहनशीलता जवाब दे गयी तब वे युद्ध के लिए प्रस्तुत हुए और भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कहा – “क्षत्रिय के लिए धर्मयुद्ध से बढकर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्त्तव्य नहीं है। हे पार्थ! अपने आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वाररूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं। ये सब शूरवीर पहले से ही मेरे द्वारा मारे हुए हैं, भय मत कर। निःसंदेह तू युद्ध में वैरियों को जीतेगा इसलिए युद्ध कर।”
प्रत्येक मानव अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है, प्रकृति अनुसार ही कर्त्तव्य का निर्धारण होता है। पाँचों पाण्डव महान पुरुषार्थी थे। अर्जुन की प्रकृति महान क्षत्रिय की थी और एक महायोद्धा के लिए न्यायोचित युद्ध में हिंसक होना पुण्यों में वृद्धि करता है। इससे प्रजा का कल्याण होता है, प्रकृति अपने शान्त स्वभाव में सुरक्षित रहती है, यही स्वधर्म पालन है, ममधर्म पालन है क्योंकि जिस कार्य की जिम्मेदारी जिस पर होती है, उस कार्य में यदि किंचित् दोष भी हो तो भी कल्याणकारक है, सुख-शान्ति को स्थापित करने में सहायक है। सिंह और गरूड को अहिंसा शोभा नहीं देती और गाय की आँखों में ही करूणा व्याप्त रहती है। स्वधर्म पालन में यदि मृत्यु भी वरण कर ले वह श्रेयस्कर है। इससे कीर्ति बढती है और मृत्यु पश्चात् भी सदा के लिए नाम अमर हो जाता है। समाज में और राष्ट्र में सुख-शान्ति, समृद्धि और सुरक्षा के व्यापक हित में आसुरी शक्तियों पर, तामसिक शक्तियों पर और निन्दनीय शक्तियों पर नियन्त्रण करना अति आवश्यक होता है। विदुर जी के मतानुसार शासक को दुष्ट के साथ दुष्टता का व्यवहार करना चाहिए और सज्जनों के साथ दयालुता का।