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देवेन्द्र फडनवीस की आलोचना स्वाभाविक : सुधांशु द्विवेदी

 

suएक फिल्म को रिलीज किये जाने एवं भारतीय फिल्मों में काम करने के एवज में भारतीय सैन्य कल्याण कोष में पाकिस्तानी कलाकारों द्वारा पांच करोड़ रुपये दान दिये जाने की कतिपय लोगों की शर्त मंजूर कराने में अपनी भूमिका को लेकर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडनवीस की काफी आलोचना हो रही है।

हमेशा ही प्रतिबद्धता की दुहाई देने वाले फडनवीस मनसे नेता राज ठाकरे की गुंडागर्दी के सामने इस तरह से झुक जाएंगे, इसकी उम्मीद शायद ही किसी को न रही होगी। लेकिन अब तो देवेन्द्र फडनवीस विपक्षी राजनीतिक दलों के साथ-साथ देश के बुद्धिजीवियों, राष्ट्र के हितैषियों एवं पूर्व सैन्य कर्मियों के निशाने पर भी आ गए हैं।

देवेन्द्र फडनवीय अब सफाई देते फिर रहे हैं। लेकिन इस सुलह सफाई से क्या हासिल होने वाला है। पैसे के लिये मूल्यों एवं सिद्धातों से समझौता कर लेना तथा भारतीय सेना को भी इस पूरे विवाद में घसीट लेना समझदारीपूर्ण निर्णय कैसे माना जा सकता है? पाकिस्तानी कलाकारों का वैसे तो छाती पीट-पीटकर विरोध किया जाए तथा बाद में जब वह आर्थिक रूप से उपकृत करते हुए मोटी रकम दे दें तो उनकी खुशामद करना शुरू कर दिया जाए, तो फिर इसे झूठ और पाखंड का पर्याय नहीं माना जाएगा तो और क्या कहा जाएगा? देवेन्द्र फडनवीस अब सफाई दे रहे हैं कि उन्होंने निर्माताओं की ओर से सेना कल्याण कोष में पांच करोड़ रुपए देने की पेशकश किये जाने का विरोध किया था।

फडणवीस तर्क दे रहे हैं कि लोकतांत्रिक सरकारों को शांति के लिए कई बार अलगाववादियों और वाम चरमपंथियों के साथ बातचीत करनी पड़ती है। फडनवीस यह भी बता रहे हैं कि राज ठाकरे के द्वारा तीन मांगें रखी गई थीं, जिनमें से दो मांगों पर कोई आपत्ति नहीं थी। जब पांच करोड़ रुपये का मुद्दे की बात आई मैंने हस्तक्षेप किया और फिल्म प्रोड्यूसर्स गिल्ड से कहा कि उन्हें इसपर सहमत होने की आवश्यकता नहीं है।

फडनवीस अब दुहाई दे रहे हैं कि मैंने स्पष्ट तौर पर कहा कि हमारे शहीदों के परिवारों के साथ खड़ा होने का गिल्ड का फैसला सही है लेकिन इसमें बाध्यता नहीं होनी चाहिए।

देवेन्द्र फडनवीस तर्क दे रहे हैं कि क्या हमारी सरकार शांति के लिए अलगाववादियों से या नक्सली समूहों से बातचीत नहीं करती। ऐसे में राजनीतिक पार्टी से अपेक्षाकृत छोटे मसले पर चर्चा किये जाने की इतनी तीखी आलोचना नहीं की जानी चाहिए। अब फडनवीस को कौन समझाए कि हुर्रियत या नक्सलियों के साथ अगर कभी कोई वार्ता करनी पड़े तो वह बातचीत पूरी तरह परिस्थितिजन्य होती है तथा उस संपूर्ण प्रक्रिया में वाद-संवाद की पहल करने वालों की मंशा स्वार्थ आधारित नहीं रहती। वह तो बस लोकमंगल की कामना और किसी भी अनहोनी को टालने के लिये ऐसी बातचीत करते हैं। लेकिन फडनवीस ने जिस संवाद प्रक्रिया में मध्यस्थता की है वह पूरी तरह स्वार्थ पर आधारित थी जिसमें राज ठाकरे जैसे लोगों का राजनीतिक स्वार्थ व कुटिलता का भी भरपूर समावेश था।

अब फडनवीस इस पूरे प्रकरण में चाहे जो कुछ भी कहें लेकिन उनकी आलोचना होना स्वाभाविक है। वह पूरी तरह से विपक्ष के निशाने पर आ गये हैं। कांग्रेस ने सवाल उठाया है कि क्या देवेन्द्र फडनवीस के कहने का मतलब है कि महाराष्ट्र में स्थिति कश्मीर या नक्सल प्रभावित राज्यों की तरह हो गई है। क्या मुख्यमंत्री द्वारा राज ठाकरे को हुर्रियत और नक्सलियों की तरह गंभीर मुद्दे के रूप में देखा जा रहा है। बहरहाल जिस तरह से भारतीय सेना का राजनीतिकरण किया गया है, उसे तो सैन्य अधिकारी भी समझ रहे हैं। उन्होंने इस संदर्भ में बयान भी दिया है

लेकिन संवेदनहीन सत्तााधीशों पर शायद ही इस बयान का कोई असर पड़े। देवेन्द्र फडनवीस अगर राज ठाकरे जैसे उद्दंड व्यक्ति के सामने झुक सकते हैं, उन्हें मनसे कार्यकर्ताओं की संभावित गुंडागर्दी से निपटने में पुलिस बल का उपयोग करने में घबराहट होती है तो फिर आखिर वह किस बात के मुख्यमंत्री हैं, यह सवाल तमाम लोगों के मन में उठ रहे हैं लेकिन फडनवीस इन सवालों का जवाब देने के बजाय अपने निर्णय को उचित

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