गांधी का चरखा जिस साल सौ साल पूरे कर रहा है उसी साल में चरखे पर उनकी जगह प्रधानमंत्री की तस्वीर छप जाने को लेकर विवाद हो रहा है. सौ साल के फासले में हम कितना कुछ भूल गए कि याद ही नहीं रहा कि 1917 में ही गांधी को चरखा मिलने की उम्मीद जगी थी.
जब उनके गुजराती मित्र भड़ौंच शिक्षा परिषद में ले गए. सत्य के साथ प्रयोग में गांधी ने तो लिखा है कि मित्र उन्हें घसीटकर ले गए. इसी जगह पर गांधी की मुलाकात बहन गंगाबाई से होती है. गंगाबाई से दोबारा गोधरा की परिषद में मुलाकात होती है तो परिचय थोड़ा गाढ़ा होता है. उन्होंने बहन गंगाबाई को साहसी और घोड़े की सवारी के लिए भी तैयार रहने वाली महिला बताया है.
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गांधी ने लिखा है कि “अपना दुख मैंने उनके सामने रखा. दमयंती जिस प्रकार नल की खोज में भटकी थी, उसी प्रकार चरखे की खोज में भटकने की प्रतिज्ञा करके उन्होंने मेरा बोझ हल्का कर दिया. गुजरात में अच्छी तरह भटक चुकने के बाद गायकवाड़ के बीजापुर गांव में गंगा बहन को चरखा मिला. वहां बहुत से कुटुंबों के पास चरखा था, जिसे उठाकर उन्होंने छत पर रख दिया. गंगा बहन ने मुझे खबर भेजी. मेरी खुशी का पार न रहा. “
बहन गंगाबाई की मदद से न सिर्फ गांधी ने चरखा खोज लिया, जिसे भारत ने भुला दिया था, बल्कि उनके कारण खादी बनने भी लगी. इस चरखे में साबरमती आश्रम के मगनलाल गांधी ने कुछ सुधार किए. गांधी ने लिखा है कि गंगाबाई ने अवंतिकाबाई, रमीबाई, शंकरलाल बैंकर की माताजी और वसुमती बहन को कातना सिखा दिया. मेरे कमरे में चरखा गूंजने लगा. सत्य के प्रयोग में गांधी एक जगह लिखते हैं कि लक्ष्मीदास लाठी गांव से एक अंत्यज भाई रामजी और उनकी पत्नी गंगा बहन को आश्रम ले आए. कायदे से चरखा के सौ साल पूरे होने पर इन महिलाओं की तस्वीर चारों तरफ होनी चाहिए. बहन गंगाबाई और भाई उमर सोबानी इसके असली नायक हैं.
इस बात के लिए प्रधानमंत्री की आलोचना करने वाले कांग्रेसी भी भूल गए कि यह गांधी के चरखे का सौंवा साल है. साल 2017 में चंपारण सत्याग्रह के भी सौ साल पूरे हो रहे हैं. चंपारण सत्याग्रह के दौरान ही गांधी से एक महिला ने कहा था कि वह कपड़े नहीं बदल सकती है क्योंकि उसके पास दूसरी साड़ी नहीं है. उसके बाद गांधी भारत के कपास की यात्रा और किसानों की गरीबी के बारे में सोचने लगे. गांधी भारत की गरीबी का हल खोज रहे थे. उन्हें जवाब चरखे से मिला. आज के नेता वोट खोज रहे हैं, उन्हें जवाब गांधी के चरखे में मिला.
अंत में चलते-चलते, सरकार को बिन मांगे एक सलाह… कैशलेस लेन-देन की बात करने वाली सरकार के विभिन्न विभाग किस सोच के तहत डायरी और कैलेंडर छपवा रहे हैं. जिस स्मार्ट फोन से आम जनता को बैंकिंग करने के लिए कहा जा रहा है, उसी स्मार्ट फोन में घड़ी और कैलेंडर भी मिल जाता है. सरकार को यह प्रथा बिना किसी आठ तारीख का इंतजार किए बंद कर देनी चाहिए. सरकार का काम कैलेंडर छापना नहीं है. इस एक आदेश से केंद्र से लेकर राज्य सरकारें छपाई को लेकर होने वाली कमीशनबाजी से मुक्ति पा जाएंगी. स्मार्ट फोन में नोट पैड होते हैं इसलिए डायरी की कोई जरूरत नहीं. न जाने इनकी छपाई पर कितना पैसा बेकार पानी में जाता होगा. केंद्रीय खादी ग्रामोद्योग को कैलेंडर और डायरी में पैसा नहीं फूंकना चाहिए. छपवाना ही है तो उसे तो रिसाइकिल किए गए कागज पर कैलेंडर छापना चाहिए. बेहतर तो यही है कि कैलेंडर और डायरी पर बेकार होने वाले पैसे को कताई के काम में लगे मजदूरों को बोनस के तौर पर बांट दिया जाता. उसी में सरकार की जय-जय हो जाती.