
2008 में जब रॉक ऑन फिल्म आई थी तो मैजिक नाम के एक ऐसे म्यूजिकल ग्रूप के सदस्यों की दोस्ती पर आधारित थी जिसमें संगीत के लिए जज्बा था। अब जब रॉक ऑन 2′ आई है तो दोस्ती और संगीत का जज्बा तो बरकरार है लेकिन फिल्म की कहानी में केमिकल लोचा पड़ गया है और इसी कारण इसमें वो जादू नहीं है जो इस कड़ी की पहली फिल्म यानी रॉक ऑन में था।
इसकी कई वजहें हो सकती हैं लेकिन शायद सबसे बड़ी वजह खुद फरहान अख्तर हैं। वे इस फिल्म के निर्माता भी हैं, हीरो भी, संवाद लेखक भी और गायक भी। गाने अलबत्ता उन्होंने अपने पिता जावेद अख्तर को लिखने दिए हैं। आखिर पिता के लिए भी पुत्र का कोई धर्म होता है, वरना जो संवाद लिख सकता है वो गाने भी क्यों नहीं लिख सकता? आखिर गीतकार बनने के पहले जावेद भी संवाद लेखक ही थे। इसलिए फरहान की ख्वाहिशें इतनी अधिक हैं तो क्या आश्चर्य? फिल्म में सबसे ज्यादा दृश्यों में भी वही हैं।
वैसे अपनी फिल्मों में सलमान खान भी सबसे ज्यादा दृश्यों होते हैं लेकिन वे कम से कम गायकी और संवाद लेखन में हाथ नहीं आजमाते। फरहान शायद उनको भी मात करना चाहते हैं। उनको शुभकामनाएं। एक बात और। चकित मत होइएगा। रॉक ऑन 2 में सिर्फ संगीत नहीं है बल्कि किसान भी हैं। जी हां, रॉक ऑन 2 का आदि यानी आदित्य श्रॉफ ( फरहान) एक हादसे के लिए खुद को दोषी मानने के बाद मेघालय चला गया और संगीत पर नहीं बल्कि मेघालय के किसानों की खुशहाली पर ध्यान देने मे लगा है।
उसने किसानों के लिए एक सहकारी समिति भी बना ली है। हां, उसकी बीवी (प्राची देसाई) और बच्चे मुंबई में रहते हैं। उसके मैजिक बैंड का पुराना दोस्त जो यानी जोसेफ ( अर्जुन रामपाल) अब एक पब का मालिक और रिएलिटी शो में जज की भूमिका निभाता है। दूसरा दोस्त केडी (पूरब कोहली) अभी भी संगीत में लगा है। उधर जिया (श्रद्धा कपूर) नाम की एक लड़की है जो बहुत अच्छा गाती है और संगीत की दीवानी है। लेकिन अपने शास्त्रीयसंगीत प्रेमी पिता के भय से सार्वजनिक जगहों पर गा नहीं पाती है। उसके पिता को लगता है कि आजकल का सगीत पश्चिम से प्रेरित है और भारतीय संगीत को खराब कर रहा है।
क्या जिया कभी सार्वजनिक जगहों पर आधुनिक संगीत गा पाएगी? लेकिन इसके लिए आदि को आगे आना होगा और अपने पुराने दोस्तों को फिर से जोड़ना पड़ेगा। फिर किसानों क्या होगा? भाई फरहान अख्तर नाम का शख्स दोनों का कल्याण का क्यों नहीं कर पाएगा? उसे मेघालय और मुंबई – दोनों जगहों पर अपने जलवे दिखाने होंगे। भले ही मेघालय सरकार के अधिकारी उसकी राह में अवरोध खड़ा करें लेकिन वो संगीत के एक शो से किसानों का भी भला करेगा और अपने ग्रूप का भी।
फिल्म खेती और संगीत के बीच फंस के रह गई है और साथ ही फरहान अख्तर की आत्ममुग्धता का शिकार बन गई है। अगर श्रद्धा कपूर के चरित्र पर कहानी का जोर थोड़ा अधिक होता तो फिल्म और बेहतर हो सकती थी क्योंकि दो पीढियों का संघर्ष सामने आता। पर ऐसे में फरहान अख्तर पर से फोकस हट जाता और? ये उनको गवारा कैसे होता? और अगर उन्होंने खुद गाने न गाए होते और किसी प्लेबैक सिंगर को रखा होता तब भी अच्छे गाने के लिए इसे याद रखा जाता।
फिल्म का संगीत शंकर-एहसान-लाय का है लेकिन संगीतकार क्या करें अगर गायक सधे हुए सुरों का न हो। फिल्म की सिनेमेटोग्राफी बहुत अच्छी है पर निर्देशन उतना ही कमजोर। श्रद्धा कपूर अवश्य बेहतर और प्रभावशाली लगीं है। हालांकि उनके दृश्य भी कम ही है। प्राची देसाई के पास कुछ खास करने के लिए नहीं है। अर्जुन रामपाल वैसे भी फिल्मी दुनिया में सिकुड़ते जा रहे है। यहां भी वही स्थिति है।
Vishwavarta | Hindi News Paper & E-Paper National Hindi News Paper, E-Paper & News Portal