भारत और अमेरिका की दोस्ती चीन और पाकिस्तान के गले की फांस बनी हुई है। वे इसे अपने लिए खतरा मान रहे हैं। इस दोस्ती को लेकर वे पहले ही काफी परेशान थे लेकिन रक्षा क्षेत्र में अमेरिका से अहम समझौता कर भारत ने इन दोनों ही देशों की बोलती बंद कर दी है। प्रत्यक्ष तौर पर चीन ने इस करार को अमली जामा पहनते देखने की बात कही है लेकिन चीनी मीडिया की बौखलाहट से साफ जाहिर है कि चीन इस समझौते के बाद खुद को सहज नहीं पा रहा है। जिस तरह का फैसला हुआ है,उसकी उम्मीद उसे हरगिज नहीं रही होगी।
भारत अमेरिका की गोद में बैठ जाएगा और उसे अपने सैन्य अड्डों के इस्तेमाल की इजाजत दे देगा, इसकी उसे रंचमात्र भी आशंका नहीं थी। दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है, शायद भारत ने इसी रीति-नीति पर अमल किया है लेकिन नादान दोस्त से दानेदार दुश्मन अच्छा होता है, इस सिद्धांत पर भी विचार किया जाना चाहिए था। दुश्मन से तो फिर भी सतर्क रहा जा सकता है लेकिन जब दोस्त पीठ में छुरा भोंकता है तो संभलने का भी मौका नहीं मिलता। इसीलिए पूर्वजों ने बेहद पते की बात कही थी कि ‘पानी पीओ छान कर और दोस्ती करो जान कर।’ ईस्ट इंडिया कंपनी की गुलामी से मुक्त हुए भारत को अभी सत्तर साल ही हुए हैं। किसी भी देश से सामरिक महत्व के समझौते करते वक्त हमें इस बात को भी ध्यान में रखना होगा।
इस फैसले की नरेंद्र मोदी और मनोहर पर्रिकर चाहे जिस रूप में व्याख्या करें। राजनीतिक पंडित इसकी जैसी भी मीमांसा करें, लेकिन उन्हें थोड़ा पीछे जाकर अटल बिहारी वाजपेयी की कार्यशैली में झांकना चाहिए था। अफगानिस्तान पर हमले के लिए अमेरिका भारत के सैन्य ठिकानों के इस्तेमाल की अनुमति चाहता था लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी ने पूरी दृढ़ता से इससे इनकार कर दिया था और कहा था कि वह भारत की निजता और स्वायत्तता में किसी भी तरह का अवरोध बर्दाश्त नहीं कर सकते।
उस समय पाकिस्तान ने अमेरिका को अपने एयर बेस के इस्तेमाल की इजाजत दी। अमेरिका का काम तो कब का खत्म हो गया। सद्दाम हुसैन मारा गया। ओसामा बिल लादेन मारा गया लेकिन एक बार जो अमेरिकी सेना पाकिस्तान एयरबेस पर डटी तो वह हटने का नाम नहीं ले रही। आतंकवादियों के खात्मे के नाम पर वह पाकिस्तान में अक्सर ड्रोन बम गिराती रहती है। ऐसा भारत के साथ नहीं होगा, यह कैसे कहा जा सकता है?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लगता है कि उन्होंने करार का बड़ा मैदान मार लिया है लेकिन इस करार के दूरगामी परिणामों की ओर देखने की उन्होंने कोशिश नहीं की है। बकौल चीनी मीडिया इस फैसले से भारत की सामरिक सैन्य स्वतंत्रता खतरे में पड़ेगी। वह खुलकर फैसले लेने की स्थिति में नहीं होगा। भले ही वे बौखलाहट वश ऐसा कह रहे हों लेकिन भारत के लिए आत्ममंथन के सूत्र तो दे ही रहे हैं। इस करार से पहली बात तो यह कि भारत और रूस की वर्षों पुरानी सहज मित्रता के टूटने का खतरा है। अमेरिका और रूस के बीच बेर-केर के संबंध भी इसके मूल में हैं। सोवियत संघ के विघटन में अमरिका की भूमिका को वह एक झटके में नजरअंदाज कैसे कर सकता है? विचारधारा के स्तर पर चीन और रूस की सोच एक सी है। रूस भारत का मित्र होने के बावजूद चीन के खिलाफ नहीं जा सकता लेकिन पाकिस्तान के खिलाफ तो उसने पूर्व में भारत का साथ दिया ही है, इस बात को भी भूला नहीं जा सकता। यह सच है कि चीन से भारत को बड़ा खतरा है। उसने भारत के एक बड़े भूभाग पर पहले ही कब्जा कर रखा है। अरुणाचल प्रदेश की पहाड़यों पर चीनी सैनिक अक्सर लाल निशान बनाते रहे हैं। चीनी सैनिक भारतीय सीमा में घुसपैठ भी करते रहे हैं। बलूचिस्तान में वह चीन-पाक आर्थिक गलियारा भी बना रहा है। लाल किले की प्राचीर से बलूचिस्तान पर चिंता जताकर भारत ने पहले ही चीन की दुखती रग पर हाथ रख दिया है। चीन ने तो भारत को चेतावनी तक दे डाली है कि अगर भारत ने बलूचिस्तान में बन रहे आर्थिक गलियारे पर अड़ंगा लगाया तो उसे इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। दक्षिण चीन सागर में वह भारत को धमकाता ही रहता है। इसमें शक नहीं कि भारत-अमरिका के मध्य हुए करार से भारत की ताकत बढ़ेगी,वहीं चीन की प्रभुत्ववादी सोच को रौंदने में अमेरिका को भी मदद मिलेगी। पहली बात तो इस समझौते के तहत भारत और अमेरिका जहां रक्षा क्षेत्र में साजो-सामान के मामले में साझेदार बनेंगे, वहीं दोनों देशों की सेनाएं मरम्मत और आपूर्ति के सिलसिले में एक दूसरे की संपदाओं और अड्डों का इस्तेमाल भी कर सकेंगी। समझौते को लेकर दोनों देशों ने विश्वास जाहिर किया है कि इस व्यवस्था से डिफेंस टेक्नोलॉजी और व्यापारिक सहयोग के क्षेत्र में नए अवसर मिलेंगे। ईश्वर करें, उनके ये विश्वास पूर्णता को प्राप्त हों। इसमें संदेह नहीं कि चीन को मात देने के लिए भारत सरकार का यह कूटनीतिक प्रयास है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी विदेश नीति की बिसात पर ऐसी चालें चल रहे हैं जिससे ड्रैगन की नींद उड़ गई है। चीन आए दिन पाकिस्तान के सहारे भारत को परेशान करता रहा है लेकिन अब बाजी पलट गई है। अब चीन परेशान है। मोदी ने बलूचिस्तान और पीओके का जिक्र कर एक तीर से दो निशाने साधे हैं। पाकिस्तान तो बौखलाया ही, उसके समर्थक चीन को भी कम मिर्ची न लगी। चीनी मीडिया ने तो भारतीय प्रधानमंत्री पर अपना आपा खो बैठने तक का आरोप लगा दिया। वियतनाम और म्यांमार के रास्ते दक्षिण-पूर्व एशिया में प्रभाव बढ़ाने की भारतीय कोशशें भी चीन को नागवार गुजर रही हैं। गिलगित, बलूचिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर में पाकिस्तान के खिलाफ विद्रोह की आग तो उठी ही थी। अब सिंध प्रांत के मीरपुर खास में अलग सिंधु देश की मांग उठने लगी है। पाकिस्तान में सर्वाधिक हिंदू सिंध प्रांत में रहते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने म्यांमार के राष्ट्रपति तिन क्यॉ को आश्वस्त किया है कि सवा अरब भारतवासी म्यांमार के साथ हैं। गौरतलब है कि म्यांमार चीन के बेहद करीब रहा है और म्यांमार में चीन बहुत तेजी से अपना प्रभाव बढ़ा रहा है। जी-20 शिखर सम्मेलन में जाने से पहले मोदी की वियतनाम यात्रा के भी कूटनीतिक निहितार्थ निकाले जा रहे हैंं। इस दौरान दोनों देशों के बीच ब्रह्मोस मिसाइल समेत कुछ समझौतों पर हस्ताक्षर हो सकते हैं। चीन और वियतनाम के बीच 1970, 1980 और 1990 के दशक में युद्ध हो चुके हैं। दोनों के बीच दक्षिण चीन सागर को लेकर भी विवाद है। वियतनाम के जरिये चीन को घेरने की मोदी की कोशिश सराहनीय तो है ही। भारत और अमेरिका के बीच हुए मौजूदा समझौते के तहत दोनों देश एक दूसरे के नौसेना और वायु सेना के ठिकानों का इस्तेमाल कर सकेंगे। इससे हिंद महासागर में अमेरिका की सकि्रयता में इजाफा होगा। अभी हिंद महासागर में अमेरिका का सबसे शक्तिशाली बेस डिगो गार्सिया में हैं जो भारत से 3000 किमी. और दक्षिण चीन सागर से 5000 किमी. दूर है। भारतीय नेवल बेस के प्रयोग की सहमति के बाद अमरिका के लिए चीन की चौधराहट पर नकेल कसना आसान हो जाएगा। भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की चौकड़ी चीन के लिए खतरा ही नहीं, चिंता की बड़ी वजह है। यह सिक्के का एक पहलू है लेकिन हमें यह भी सोचना होगा कि इस करार के बाद पाकिस्तान को लेकर अमेरिका का रुख क्या होगा? अभी तो वह अपने एक हाथ में पाकिस्तान और दूसरे में हिंदुस्तान को रखता है। कहीं भारत अमेरिका के हाथों की कठपुतली बनकर तो नहीं रह जाएगा? अमेरिका का पाक प्रेम अगर पहले ही की तरह बदस्तूर जारी रहा तो पाकिस्तान पर भी नकेल कस पाना भारत के लिए कठिन होगा। अमेरिका कभी नहीं चाहेगा कि भारत पाकिस्तान पर कड़ी कार्रवाई करे। आतंकवादियों के खात्मे में अलबत्ते वह भारत के साथ हो सकता है। खैर, समझौता मुबारक। आगे की आगे देखी जाएगी ।
—-सियाराम पांडेय ‘शांत ’