सियाराम पाण्डेय ‘शान्त’
प्रख्यात उपन्यासकार अमृतलाल नागर को मानस का हंस लिखने की प्रेरणा बंबई में मिली थी और गोस्वामी तुलसीदास को समझने के सूत्र बनारस में हाथ लगे थे। यह सब तब हुआ जब वे मानस चतुश्शती के अवसर अपने भतीजों के पुत्रों के यज्ञोपवीत संस्कार में शामिल होने मुंबई गए थे। फिल्म निर्माता निर्देशक महेश कौल से उन्होंने गोस्वामी तुलसीदास के जीवन पर फिल्म बनाने का आग्रह किया। इसकी एक वजह यह थी कि कभी महेश कौल ने फिल्म सिनेरियों में उनके जीवन से जुड़े कई आख्यान सुनाए थे। लेकिन जब नागर जी द्वारा महेश कौल से तुलसीदास पर फिल्म बनाने का आग्रह किया तो लगभग चौंकने वाले अंदाज में महेश कौल का जवाब मिला था कि पंडित जी क्या तुम चाहते हो कि मैं भी चमत्कारबाजी की चूहादौड़ में शामिल हो जाऊं। एक मानसप्रेमी तुलसीभक्त से इस तरह की प्रतिक्रिया की नागर जी को सपने में भी उम्मीद नहीं थी। महेश को लग रहा था कि तुलसीदास की प्रामाणिक जीवन गाथा कहां मिलेगी। उनके इस सवाल से नागर जी थोड़ा विचलित भी हुए लेकिन विद्वान विषम परिस्थितियों में भी मध्य का रास्ता निकाल ही लेता है। अतएव नागर जी ने किंवदतियों में वर्णित अंध श्रद्धा के अंधकार के बीच से गोस्वामी जी की आत्मपरक कविताओं से तादात्म्य सथापित करने वाली हकीकतों के प्रकाशबिंदु तलाशने शुरू कर दिए। उन्होंने अपने मानस में गोस्वामी तुलसीदास का नाटक प्रस्तोता और कथावाचक स्वरूप गढ़ा। फलस्वरूप वे वे महेश कौल जैसे मंझे हुए फिल्म अभिनेता के समक्ष तुलसीदास से कहीं अधिक व्यावहारिक और यथार्थ में यकीन रखने वाले तुलसीदास को अपने औपन्यासिक सांचे में प्रस्तुत करने में सफल हो सके। जिस कवितावली, हनुमान बाहुक और विनयपत्रिका में लोग जहां भक्ति और देवत्व तलाश करते हैं, वहीं नागर जी ने उन्हीं किंवदंतियों में से तुलसी के संघर्षों भरी जिंदगी के ऐसे पन्ने उजागर किए जिन्हें एकबारगी नजरन्दाज कर पाना किसी के लिए भी मुमकिन नहीं है।
बनारस के मित्रों की बीच तुलसीदास द्वारा प्रह्लाद लीला, ध्रुवलीला और नागनथैयालीला शुरू कराने और फिर बनारस में विश्व की पहली रामलीला शुरू कराने के प्रसंग के बीच उनके अंदर का लेखक जाग उठा। उन्होंने सोचा कि गोस्वामी तुलसीदास चाहते तो पूरी रामलीला एक ही जगह खत्म हो जाती लेकिन तुलसी बाबा द्वारा पूरे शहर और उसके अनेक मोहल्लों को रामलीला से जोड़ने के पीछे उनका उद्देश्य विश्व की सांस्कृतिक राजधानी काशी को रामकथा से संप्क्त करना ही रहा होगा।
इस लीला में विविध जातियों के लोग अभिनय करते थे। इसके पीछे उनकी सोच जातीय समन्वय बनाए रखने की भी रही होगी। वे दरअसल वर्णाश्रम धर्म की स्थापना के प्रबल पक्षधर थे और कदाचित उन्होंने ऐसा किया भी। यह अलग बात है कि इन सबके बीच वे असंस्कारी ब्राह्मणों और क्षत्रियों को लताड़ लगाने में भी पीछे नहीं रहे। जाहिर है कि इन सबकी वजह से उन्हें काफी संघर्ष और अंतर्विरोधों का सामना करना पड़ा। तुलसीदास लोकधर्मी तो थे ही, ऐसे में लोगों को संगठित करना तत्कालीन जरूरत थी। और कहना न होगा कि गोस्वामी तुलसीदास ने इस मोर्चे पर लग-भिड़कर काम किया। अमृलाल नागर भी इस बात को शिद्दत से स्वीकारते हैं कि विनय पत्रिका में तुलसी के अंतर्संघर्ष के ऐसे अनमोल क्षण संजोए हुए हैं कि उसके अनुसार ही तुलसी के मनोव्यक्तित्व का ढांचा खड़ा करना मुझे श्रेयस्कर लगा। रामचरित मानस की पृष्ठभूमि में मानसकार की मनोछवि निहारने में मुझे पत्रिका के तुलसी ही से सहायता मिली। उन्होंने कवितावली, गीतावली और दोहावली में भी तुलसीदास की जीवन झांकी मिलने का उल्लेख किया है।
तुलसी भक्तों की आपत्ति की परवाह किए बगैर नागर जी ने मानस का हंस में काशी की वेश्या से तुलसी के असफल प्रेम का भी जिक्र किया है। मानस का हंस के पृष्ठ 110 पर उन्होंने लिखा कि तुलसी हड़बड़ाकर चले तो चौखट की ठोकर लगी। लड़खड़ाए तो गायिका ने उन्हें थामने के लिए हाथ बढ़ाया। उंगलियां तुलसी की कलाई से छू गईं। सारा शरीर बिजली की सनसनाहट से भर गया। यह एकदम नव अनुभव था। मन चक्कर में पड़कर चौकन्ना हो गया।
उस दिन दोपहर, संाझ और रात तुलसी जिधर देखते थे, उधर उन्हें एक सलोना सा चेहरा दिखलाई देता था। कानों में केवल एक ही स्वर सुनाई देता था- सुनी री मैंने हरी आवन की अवाज। विद्यार्थी यूं भी पं. तुलसीदास की अध्यापन कला पर मुग्ध रहते थेे किंतु आज तो वे छक-छक गए। तुलसीदास की इस तन्मयता को भंग करने वाली केवल एक ही वस्तु थी.. छत की धूप। समय के संकेतों पर उनका ध्यान बीच-बीच में अपने आप ही जा पड़ता था। चले हुए विचारों के रंगीन पदों के भीतर मोहिनी बाई की आकर्षक छवि बार-बार झांककर उनका मोद बढ़ा जाती थी। नागर जी अपने अधिकांश उपन्यास लखनऊ के चौक और उसके आसपास के परिवेश और जनजीवन को बहुत ही अंतरंगता से निरूपित करते हैं जिनमें बूंद और समुद्र, नाच्यौ बहुत गोपाल, अमृत और विष मुख्य हैं। इसके अतिरिक्त नागर जी ने सूरदास के जीवन पर आधारित जीवनीपरक उपन्यास खंजन नयन भी लिखा जिसके लिए वे आगरा, मथुरा और उसके आसपास की उन सारी जगहों पर गए जहां सूरदास रहे थे। उनका मानस का हंस उपन्यास भी तुलसीदास से संबधित उन जगहों अयोध्या, काशी के अलावा उन स्थलों, जहां वह रहते थे, की यात्रा करके तो लिखा ही गया है, इस उपन्यास के कई हिस्से उन्होंने अयोध्या में रहकर लिखे।
अमृतलाल नागर कुशल शब्द चितेरे थे। लखनऊ से उनका जुड़ाव भी किसी से छिपा नहीं है। नागर जी ने मानस का हंस अपने ठेठ लखनवी अंदाज में लिखा है। तुलसीदास के जीवन से जुड़ी प्रेरक और ज्ञानवर्धक सामग्री जुटाने में उन्होंने अथक परिश्रम किया है। यह उनके उपन्यास में दिखता भी है।